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16 जून का दिन भारत के इतिहास का बहुत ही महत्वपूर्ण दिन है। इसी दिन सप्त सिन्धु क्षेत्र के सिन्ध प्रदेश पर अरब हमलावरों का मुकाबला करते हुए सिन्ध नरेश महाराजा दाहिर सेन शहीद हुए थे। अरबों का भारत से संबंध दो प्रकार से रहा है। पहला अरब क्षेत्रों में इस्लाम के उदय होने से पूर्वकाल में और दूसरा वहां इस्लाम के उदय होने के बाद के काल में। पहले कालखंड का संबंध सकारात्मक था। अरब लोग समुद्र के रास्ते भारत में व्यापार करने के लिए आते थे। इसलिए उनका आना-जाना ज्यादातर दक्षिण में ही होता था। भारत के मसालों की बहुत मांग रहती थी। यहां के ज्ञान विज्ञान का भी उन्होंने यूरोप तक प्रचार-प्रसार किया, ऐसा कहा जाता है। लेकिन अरब में इस्लाम के उदय के बाद हालात बदल गए। जीवन व्यवहार के उनके पहले तौर तरीके बदल गए। इतना ही नहीं, उन्होंने इस्लाम पूर्व के अपने ही पूर्वजों के काल खंड को ‘जाहिलियत काल’ कहना शुरू कर दिया। उनका मानना था कि अब उनका ‘उदय काल’ शुरू हुआ है।
इसका पहला खामियाजा इरान को भुगतना पड़ा और दूसरा भारत को। लेकिन इस बार यह शुरुआत दक्षिण भारत से नहीं, बल्कि पश्चिमोत्तर भारत या सप्त सिंधु क्षेत्र से हुई। यह देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि महाराजा हर्ष की मृत्यु के बाद सप्त सिन्धु क्षेत्र राजनीतिक दृष्टि से खंडित हो चुका था। कोई एक महा प्रतापी शासक यहां नहीं रहा था। छोटे छोटे टुकड़ों में बंटा यह विशाल क्षेत्र राजनीतिक एकता के अभाव में उदय काल के अरबों का शिकार हो गया। अरबों ने इस क्षेत्र को जीतने के अनेक प्रयास किए। ये प्रयास मुआविया की खिलाफत के समय में ही शुरू हो गए थे, लेकिन अरबों को मुआविया के शासन काल में सिन्ध को जीतने का अवसर नहीं मिला। उसके बाद मुआविया वंश के स्थान पर खलीफत उन्मैयदों के हाथ आ गई। खलीफा अबद अल बिन यूसुफ खलीफा बना और उसने अबद हज्जाज बिन यूसुफ को इराक का सूबेदार नियुक्त किया। हज्जाज ने प्रारम्भिक सफलताओं के बाद जून 712 में मोहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में अरब सेना को सिन्ध पर हमला करने का आदेश दिया। उस समय महाराजा दाहिर सेन सिन्ध नरेश थे। दाहिर सेन महाराजा चच के वंश से ताल्लुक रखते थे। चच का इतिहास चचनामा में सुरक्षित है। यह राजवंश शौर्य और पराक्रम में बढ़ा चढ़ा राजवंश था। वैसे भी सिन्ध सागर से जुड़ा हुआ था, इसलिए इस राजवंश ने सुरक्षा के पुख्ता इन्तजामात कर रखे थे। नगर के चारों ओर प्राचीर तो थी है। किला भी काफी मजबूत था। मोहम्मद बिन कासिम ने यह हमला सिन्ध के उस समय के नगर देवल पर किया। देवल में ऐतिहासिक शिव मंदिर था। इसी मंदिर के कारण नगर को देवल या देवालय कहा जाता था। यह मंदिर और नगर वर्तमान कराची के नज़दीक ही था। उस समय सिन्ध प्रदेश की राजधानी अलोर थी।
लेकिन राजधानी से भी ज्यादा जरूरी देवल की रक्षा करना था। यदि अरब देवल को न जीत सके तो दोबारा शायद सिन्ध की ओर मुंह न करते। लेकिन यदि मंदिर पर अरबों का कब्जा हो गया तो अरबों को आगे बढऩे का रास्ता मिल जाता। सिन्ध व्यापार का भी बहुत बड़ा केन्द्र था। यदि सिन्ध पर अरबों का कब्जा हो जाता तो व्यापार का यह रास्ता शत्रु के हाथ में चला जाता। इतना ही नहीं, इस बार के अरब वे अरब नहीं थे जिनका भारत के साथ सदियों से संबंध चला आ रहा था। अब अरब दूसरे देशों पर केवल अपना राजपाट स्थापित करने के लिए ही नहीं हमला करते थे, बल्कि उनका उद्देश्य विजित प्रदेशों को इस्लाम मत में मतान्तरित करना भी होता था। इरान यह भुगत रहा था। बहुत से इरानी अपने मज़हबी विश्वासों की रक्षा के लिए ही भारत की शरण में चले आए थे। अब वह आन्धी सिन्ध के रास्ते भारत में ही प्रवेश करना चाह रही थी। भारत की रक्षा का दायित्व सिन्ध नरेश महाराजा दाहिर सेन पर था। महाराजा दाहिर सेन भी अपने इस ऐतिहासिक दायित्व को समझते थे। यही कारण था कि उन्होंने देवल की रक्षा के पुख्ता इन्तज़ाम किए थे। दाहिर सेन की योजना थी कि किसी तरह अरब सेना को सिन्धु नदी पार करने से ही रोका जाए। इसलिए उसने जिलोर में अपने बेटे जय सिंह के नेतृत्व में सेना की एक टुकड़ी तैनात कर रखी थी। जय सिंह ने अपनी अंतिम सांस तक मोर्चा संभाले रखा। लेकिन धीरे धीरे उसके सभी सैनिक मारे गए। मोहम्मद बिन कासिम ने जय सिंह को अपने पक्ष में करने हेतु अनेक प्रलोभन दिए।
परन्तु जय सिंह ने सिन्धु की साक्षी में मातृभूमि की रक्षा में अपने प्राण देना श्रेयस्कर समझा। अब अरब सेना देवल की प्राचीर तक आ पहुंची थी। अरब सेना देवालय की प्राचीर को भेद कर बार बार अन्दर घुसने का प्रयास कर रही थी। उसके सैनिक तो धराशायी हो रहे थे, लेकिन देवल की प्राचीर को वे भेद नहीं पा रहे थे। दाहिर सेन स्वयं अपनी सेना का नेतृत्व कर रहे थे। देवालय के शिखर पर राज्य पताका फहरा रही थी। सिन्ध के लोगों का विश्वास था कि जब तक यह पताका शिखर पर फहराती रहेगी तब तक सिन्ध अविजित ही रहेगा। लेकिन इस प्रतीक का यह महत्व अरब सैनिक नहीं जानते थे। इतिहास में प्रतीक ही किसी देश की गौरव गाथा का माध्यम बनते हैं। प्रतीकों की रक्षा के लिए सेनाओं को मरते कटते देखा है। अरब दर्शन प्रतीकों के इस मनोवैज्ञानिक प्रभाव को कहां समझ पाते। लेकिन घर के भेदिए तो इस रहस्य को जानते थे। इतिहास गवाह है कि भारत के पराभव में घर के इन्हीं भेदियों का हाथ रहा है। मोहम्मद बिन कासिम जब किसी भी तरह देवल की प्राचीर को भेद नहीं पा रहा था तो उसने घर के इन्हीं भेदियों की तलाश शुरू की।
देवल की प्राचीर भेदने में तो उसे सफलता नहीं मिली, पर भेदियों की तलाश में अवश्य सफलता मिल गई। अब अरब सेना का सारा जोर किसी तरह देवल के शिखर पर फहरा रही उस पताका को ही गिराने में लग गया। सभी आग्नेय अस्त्र देवल के शिखर की ओर चलने लगे। अचानक वह पताका नीचे गिर पड़ी। सिन्ध सैनिकों में हलचल होने लगी। दाहिर सेन के निकटस्थ सलाहकारों ने अनुभव कर लिया कि हतप्रभ सिन्ध सैनिक अब ज्यादा देर तक शत्रु के सम्मुख टिक नहीं पाएंगे। उन्होंने महाराजा को रणनीति के अनुसार किसी निकटस्थ प्रदेश में शरण लेने के लिए कहा। या फिर कम से कम महाराजा को तो अपने परिवार को किसी अन्य निकटस्थ शासक के यहां भेज देना चाहिए। सिन्ध नरेश ने मातृभूमि की रक्षा करते हुए प्राण देना बेहतर समझा। जब उसके सैनिकों ने अपने प्राण न्योछावर कर दिए हों तो वह पलायन कैसे कर सकता था। महाराजा दाहिर सेन ने इतिहास की उज्जवल परम्परा की रक्षा करते हुए रणभूमि में लड़ते लड़ते प्राण त्याग दिए। मोहम्मद बिन कासिम ने उन्हें आत्म समर्पण करने का अवसर भी दिया, लेकिन दाहिर सेन ने शहादत का रास्ता ही चुना। उसके बाद लड़ाई का मोर्चा उसकी पत्नी महारानी लाडी ने सम्भाला। अब अरब सैनिक आश्चर्यचकित थे। उन्होंने रणभूमि में सेना का नेतृत्व करते हुए शायद पहली बार किसी वीरांगना को देखा था। महाराजा और महारानी दोनों ने ही मातृभूमि की रक्षा हेतु अपने प्राण दे दिए। उनके इस आत्म बलिदान ने भारतीयों में एक नई चेतना भर दी। यही कारण था कि अगले तीन सौ साल तक अरब सिन्ध से आगे नहीं बढ़ सके।
कुलदीप चंद अग्निहोत्री
वरिष्ठ स्तंभकार
ईमेल: [email protected]
By: divyahimachal
Rani Sahu
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