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पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने भारत सरकार से अनुरोध किया है
डॉ. वेदप्रताप वैदिक। पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने भारत सरकार से अनुरोध किया है कि वह दक्षेस (सार्क) के 19वें शिखर सम्मेलन में भाग ले। वह इसका बहिष्कार न करे। दक्षेस का 18वां आखिरी शिखर सम्मेलन 2014 में हुआ था। 19वां सम्मेलन पाकिस्तान की अध्यक्षता में इस्लामाबाद में होना था लेकिन उन्हीं दिनों उरी में हमला हुआ तो भारत ने उसका बहिष्कार कर दिया।
तब से अब तक दक्षेस का कोई सम्मेलन नहीं हुआ, क्योंकि दक्षेस के संविधान में लिखा है कि उसके आठों सदस्यों में से यदि एक को भी आपत्ति होगी तो शिखर सम्मेलन नहीं होगा। सभी फैसले सर्वसम्मति से होंगे। कुरैशी ने भारत सरकार से कहा है कि यदि उसके प्रधानमंत्री या विदेश मंत्री साक्षात उपस्थित न हो सकें तो कोई बात नहीं। वे 'जूम' पर सम्मिलित हो जाएं।
कुरैशी यह सुझाव देते समय भूल गए कि जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दक्षेस-राष्ट्रों को कोरोना के बारे में संबोधित किया था, तब पाकिस्तान ने उस 'जूम' बैठक का भी बहिष्कार कर दिया था। इतना ही नहीं, अफगानिस्तान के सवाल पर भारत में बुलाई गई राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहाकारों और विदेश मंत्रियों की बैठक का भी पाक ने बहिष्कार कर दिया था।
इस बैठक का सीधा संबंध पाकिस्तान से था लेकिन फिर भी भारत ने इसे बुलाया, इसीलिए पाकिस्तान और उसके 'इस्पाती मित्र' ने इसमें भाग लेने से मना कर दिया। पाकिस्तान के सभी प्रधानमंत्रियों और सेनापतियों को अच्छी तरह से पता है कि कश्मीर का मसला न तो युद्ध से, न आतंकवाद से और न ही अंतरराष्ट्रीय मंचों पर शोर मचाने से हल होगा। इसके बावजूद वह कश्मीर के सवाल पर सारी दुनिया में बदनामी मोल ले रहा है।
कश्मीर पर अब अमेरिका भी पाकिस्तान का साथ नहीं दे रहा है। तुर्की-मलेशिया अपवाद हैं लेकिन अन्य इस्लामी राष्ट्र इस मुद्दे पर मुखर नहीं हैं। सिर्फ चीन पाक का समर्थक है लेकिन कश्मीर के सवाल पर आजकल वह भी संभलकर बोलता है, क्योंकि उसके यहां भी तिब्बत-शिनच्यांग की समस्याएं खड़ी हुई हैं। अफगानिस्तान में हुए पट-परिवर्तन के कारण दक्षेस का मामला पहले से भी ज्यादा उलझ गया है।
1985 में जब दक्षेस शुरू हुआ, तब अफगानिस्तान इसका सदस्य नहीं था लेकिन 2007 में भारत की पहल पर सर्वसम्मति से उसे दक्षेस का सदस्य बनाया गया। हर सम्मेलन में उसकी भागीदारी बनी रही लेकिन अब जबकि काबुल की तालिबानी सरकार को दुनिया के किसी भी देश ने औपचारिक मान्यता नहीं दी है और संयुक्तराष्ट्र संघ में जिसे अभी तक प्रतिनिधित्व नहीं मिला है, उसे दक्षेस के शिखर सम्मेलन में कैसे आमंत्रित किया जा सकता है?
न्यूयाॅर्क में आयोजित दक्षेस राष्ट्रों के विदेश मंत्रियों का सम्मेलन भी सितंबर 2021 में इसीलिए स्थगित करना पड़ा था। क्या इस स्थगन के लिए भी भारत जिम्मेदार है? जब 2016 में भारत ने इस्लामाबाद सम्मेलन पर एतराज किया था, तब जरा याद करें कि नेपाल के अलावा शेष सभी छह राष्ट्रों ने उसमें भाग लेने से मना कर दिया था। नेपाल इसलिए उसका बहिष्कार नहीं कर सका, क्योंकि तब वह उसका अध्यक्ष था।
पाकिस्तान हर बात में इस्लाम की दुहाई देता है लेकिन इस मुद्दे पर वह बांग्लादेश, मालदीव और मुस्लिम देशों को भी नहीं मना सका। तालिबान के सवाल पर आज भी दक्षिण एशिया के तीनों मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान का साथ नहीं दे रहे हैं। पाकिस्तान की फौज-नेताओं की हमेशा धारणा रही है कि अफगानिस्तान में भारत पाकिस्तान-विरोधी लाॅबी खड़ी करना चाहता है।
यह धारणा शीत युद्ध काल से बनी हुई चली आ रही है, क्योंकि उन दिनों भारत की तरह अफगानिस्तान भी गुट-निरपेक्ष राष्ट्र था जबकि पाकिस्तान अमेरिकी खेमे का वाचाल सदस्य था। भारत-अफगानिस्तान, दोनों ही सोवियत संघ के अभिन्न मित्र थे। जब-जब काबुल में पाकिस्तानपरस्त शासन आया, इस्लामाबाद की कोशिश रही कि भारत के विरुद्ध वह वहां 'स्ट्रेटजिक डेप्थ' खड़ा कर ले।
अब तालिबानी शासन में वह यही करना चाहता है। इस रणनीति में वह चीन की सक्रिय मदद चाहता है लेकिन चीन शुद्ध महाजनी देश है। वह पाकिस्तान की पीठ ठोकने के बहाने अफगानिस्तान की तांबे-लोहे की खदानों को चूस डालेगा। यदि पाकिस्तान चाहता है कि दक्षेस फिर से उठ खड़ा हो तो उसके अध्यक्ष के नाते उसे सबसे पहले भारत के साथ अपने संबंधों को सहज करना होगा। पाकिस्तान और भारत, दोनों का भला इसी में है कि वे अपने संबंध सहज करें और इसकी पहल पाकिस्तान की तरफ से ही होनी चाहिए।
Rani Sahu
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