सम्पादकीय

रूस का यूक्रेन पर हमला आने वाले दिनों में विश्व व्यवस्था को बदलने वाला साबित होगा

Gulabi
26 Feb 2022 5:10 AM GMT
रूस का यूक्रेन पर हमला आने वाले दिनों में विश्व व्यवस्था को बदलने वाला साबित होगा
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कोरोना महामारी से विश्व भर में लाखों लोगों की मौत और आर्थिक उठापटक के बाद से ही यह स्पष्ट हो गया था कि
दिव्य कुमार सोती। कोरोना महामारी से विश्व भर में लाखों लोगों की मौत और आर्थिक उठापटक के बाद से ही यह स्पष्ट हो गया था कि द्वितीय विश्वयुद्ध और उसके बाद शीत युद्ध के जटिल घटनाक्रम के जरिये अस्तित्व में आई वह वैश्विक व्यवस्था दरकने लगी है, जिसमें अमेरिका वैश्विक सुरक्षा का गारंटर हुआ करता था। जब कोरोना महामारी के रूप में फैला तब अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप सत्ता में थे। उनका बार-बार यह कहना था कि वैश्विक सुरक्षा के लिए चीन और जिहादी चरमपंथ सबसे बड़ा खतरा हैं। जब चीन की ओर से कोरोना वायरस को लेकर विश्व से जानकारी छुपाने के चलते महामारी फैली तो ट्रंप हाथ धोकर चीन की जवाबदेही तय करने के लिए उसके पीछे पड़े, परंतु इसी बीच हुए अमेरिकी चुनावों में उन्हें जो बाइडन के नेतृत्व में वामपंथी उदारवादी शक्तियों के हाथों पराजय का सामना करना पड़ा। बाइडन ने सत्ता में आते ही सारी अमेरिकी शक्ति चीन से हटाकर रूस की ओर लगा दी और द्वितीय विश्व युद्ध से भी पिछले जमाने की यूरोपीय रंजिशों को फिर से जीवित करने में लग गए।
नाटो सोवियत संघ और उसके नेतृत्व वाली वारसा संधि के देशों की संयुक्त सैन्य शक्ति से मध्य यूरोप को बचाने के लिए अस्तित्व में आया था। पिछली सदी के आखिरी दशक में सोवियत संघ के विघटन के बाद से नाटो नैतिक रूप से औचित्यहीन हो गया था। अब उसके विस्तार की आवश्यकता नहीं बची थी। इसके बावजूद अमेरिका नाटो का विस्तार पूर्वी यूरोप में रूस की ओर करता ही गया। 1998 के बाद से पूर्वी यूरोप के दर्जनों देशों को नाटो का सदस्य बनाया गया। जबकि मिखाइल गोर्बाचोव को अमेरिका की ओर से यह मौखिक आश्वासन मिला था कि सोवियत संघ के विघटन के बाद नाटो का विस्तार नहीं किया जाएगा। स्पष्ट है कि इसके बाद भी नाटो का विस्तार मध्य यूरोप के ताकतवर देशों जैसे जर्मनी और पूर्वी यूरोप के छोटे देशों को अमेरिकी अंगूठे के नीचे रखने के लिए किया गया।
जब पुतिन ने रूस की सत्ता संभाली तो भारी आर्थिक कर्ज से दबे रूस की कमजोर स्थिति को देखते हुए उन्होंने अमेरिका और यूरोपीय नेताओं के सामने यह प्रस्ताव रखा था कि वे यह सुनिश्चित करें कि नाटो उनके देश के लिए खतरा न बनने पाए, जो अनसुना कर दिया गया। इसके बाद दस साल तक पुतिन नाटो के रूस की ओर विस्तार पर चुप्पी साधे रहे, परंतु 2007 में म्युनिख में अपने ऐतिहासिक भाषण में उन्होंने कहा कि अमेरिका के नेतृत्व वाला एकध्रुवीय विश्व अलोकतांत्रिक है और वैश्विक सुरक्षा को खतरे में डाल रहा है। इसके बाद से पुतिन ने रूस की मजबूत होती स्थिति का लाभ उठाकर पूर्वी यूरोप और मध्य-पूर्व में अमेरिकी प्रभुत्व को चुनौती देना शुरू किया और अंतत: यूक्रेन के रूसी भाषी इलाके क्रीमिया को रूस में विलय कर डाला। इस सबके बीच चीन की भारत-प्रशांत क्षेत्र में बढ़ती दादागीरी और दक्षिण चीन सागर और भारतीय इलाकों पर कब्जा जमाने की उसकी मंशा अमेरिका को जगा देने के लिए काफी होनी चाहिए थी, पर अमेरिकी राजनीतिज्ञ अपने क्षुद्र स्वार्थों में उलझे रहे।
यूरोप में भी जहां अमेरिका रूसी प्रभाव को लेकर चिंतित रहा, वहीं तमाम यूरोपीय देशों पर बढ़ते चीनी प्रभाव को लेकर कभी सशंकित नहीं हुआ। रूस पर लगातार अमेरिकी दबाव का चीन ने भरपूर लाभ उठाया और अमेरिका के विरुद्ध दोनों देशों में एक प्रकार की सहमति ने जन्म ले लिया, जो तब भी नहीं थी जब दोनों देशों में कम्युनिस्ट सरकारें हुआ करती थीं। रही सही कसर बाइडन की चीन को कोरोना महामारी से मारे गए 60 लाख लोगों की मौतों के लिए जवाबदेह बनाने के स्थान पर शीत युद्ध के जमाने के नाटो का यूक्रेन में रूसी सीमा तक विस्तार करने की जिद ने पूरी कर दी। कुछ महीने पहले अफरातफरी में अफगानिस्तान छोड़कर कर जाती अमेरिकी सेनाओं ने यह स्पष्ट कर दिया था कि विश्व व्यवस्था में अमेरिका के दिन लद गए और अमेरिकी सैन्य प्रबंधन तंत्र अक्षमता और अव्यवस्था से ग्रस्त है। अब इसके पूरे आसार हैैं कि अमेरिका यूरोप की भूराजनीतिक उठापटक में फंसता चला जाएगा। ऐसे में अगर चीन रूस की तर्ज पर एशिया में पांव पसारने और ताइवान पर कब्जा करने का प्रयास करता है तो इसके कम ही आसार हैं कि अमेरिका ताइवान के पक्ष में सीधे युद्ध में उतरे। चीनी रणनीतिकार यह सब देख रहे हैं। ऐसी स्थिति में प्रश्न यह होगा कि क्या भारत एशिया का सामरिक संतुलन बदलते देखता रहे? यह हमारे लिए संभव नहीं होगा, क्योंकि ताइवान से निपटने के बाद चीन भारत पर ही ध्यान लगाएगा। पूरे हिमालयी मोर्चे पर वह वैसे भी आगे बढ़ रहा है। अगर कल को चीन भूटान जैसे किसी देश पर कोई सैन्य कार्रवाई करता है तो हमारा जवाब कैसा होगा, यह विचार करने का समय है। हमें यह भी देखना होगा कि चीन के प्रति उदार बाइडन प्रशासन कहीं रूस से उसका गठजोड़ तोडऩे के लिए चीनी कम्युनिस्ट नेताओं से एक बार फिर निक्सन-किसिंजर की तरह कोई गुप्त संधि तो नहीं कर लेगा? संभवत: रूस इन संभावनाओं को लेकर कुछ हद तक सजग है। यह मात्र एक संयोग नहीं कि यूक्रेन में युद्ध शुरू करने से कुछ महीने पहले पुतिन ने भारत-चीन सैन्य तनाव के मद्देनजर एस-400 मिसाइल प्रतिरोधी प्रणाली की भारत में तैनाती सुनिश्चित की, परंतु अब अमेरिकी प्रतिबंधों का दबाव रूस को चीन की ओर धकेलेगा और पुतिन के लिए भारत और चीन के बीच संतुलन बनाना कठिन होता जाएगा।
कोरोना महामारी से उपजी परिस्थितियों में हर बड़ा देश लाभ उठाने के प्रयास में है। ऐसे में देशों के बीच में गठजोड़ तेजी से बनेंगे और टूटेंगे भी। सैन्य तनाव और टकरावों की संभावनाएं पहले से कहीं अधिक हैं। सामरिक अनिश्चितता से भरा यह काल भारत के लिए बड़े मौकों और बड़े खतरों, दोनों को ही जन्म देने वाला है। हम वैश्विक स्तर पर भारी उठापटक से बचना चाहें तो भी नहीं बच सकते। ऐसे में यह आवश्यक है कि हम अत्यंत सजग रहते हुए इस अंतरराष्ट्रीय उठापटक का अपने राष्ट्रीय हितों में उपयोग करने के रास्ते खोजें। किसी एक अंतरराष्ट्रीय गठजोड़ पर निर्भर न रहते हुए हर परिस्थिति के लिए तत्पर रहें।
(लेखक काउंसिल आफ स्ट्रेटजिक अफेयर्स से संबद्ध सामरिक विश्लेषक हैं)
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