सम्पादकीय

Russia-US relations in 2021: पटरी पर लौटते रूस-अमेरिका संबंध, नई विश्व व्यवस्था की सुगबुगाहट

Tara Tandi
21 Jun 2021 8:55 AM GMT
Russia-US relations in 2021: पटरी पर लौटते रूस-अमेरिका संबंध, नई विश्व व्यवस्था की सुगबुगाहट
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नाजुक और बेहद संतुलित सामरिक संबंधों की विश्व व्यवस्था निरंतर परिवर्तनकारी रहती है।

जनता से रिश्ता वेबडेस्क | गौरव कुमार। नाजुक और बेहद संतुलित सामरिक संबंधों की विश्व व्यवस्था निरंतर परिवर्तनकारी रहती है। वर्तमान में वैश्विक स्तर पर जिस प्रकार के परिवर्तन हो रहे हैं वे विश्व व्यवस्था को एक नए आयाम देते नजर आ रहे हैं। इसमें विभिन्न देशों के द्विपक्षीय और बहुपक्षीय संबंध भी लगातार बदल रहे हैं। विश्व में बढ़ती सामरिक चुनौतियों के बीच एक जो बड़ी घटना हुई है वह है अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन और रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के बीच जेनेवा में आयोजित शिखर बैठक। बाइडन ने करीब एक दशक बाद पुतिन से मुलाकात किया है। दोनों की पिछली मुलाकात मार्च 2011 में हुई थी जब पुतिन रूस के प्रधानमंत्री थे और बाइडन अमेरिका के उपराष्ट्रपति।

विश्व की इन दोनों बड़ी शक्तियों के नेताओं की मुलाकात ऐसे समय में हुई है जब अमेरिका और रूस के संबंध अब तक के सबसे बुरे दौर में हैं। दोनों देशों के बीच आज आपसी तनाव का ऐसा माहौल है, जो शीत युद्ध की स्थिति की याद दिलाता है। एक तरफ बाइडन क्रीमिया पर रूसी कब्जे को लेकर पुतिन की आलोचना करते हैं, उन्हें निर्मम हत्यारा कहते हैं तो वहीं पुतिन बाइडन के इस आरोप का खंडन करते हैं कि उनके देश ने कभी अमेरिकी चुनाव में हस्तक्षेप किया है। इन आरोपों-प्रत्यारोपों के अलावा अमेरिका के साथ रूस के संबंधों में गिरावट की मुख्य वजहों में पूर्वी यूक्रेन में रूस की सैन्य उपस्थिति, वहां मानवाधिकारों का हनन और अमेरिकी संपत्तियों पर रूस समर्थित हैकरों द्वारा साइबर हमले हैं। इन दोनों के बीच मनमुटाव भारत सहित विश्व के अन्य देशों पर खासा प्रभाव डाल रहे हैं।

ऐसे में दोनों देशों के बीच इस शिखर बैठक को अहम माना जा रहा है। वैश्विक स्तर पर सामरिक जानकार इसका विश्लेषण अलग-अलग कर रहे हैं। हालांकि इन विश्लेषणों के केंद्र में यही बात निकल कर आ रही है कि इस शिखर सम्मेलन से जितनी उम्मीदें की जा रही थीं उतनी पूरी तो नहीं हो सकीं, लेकिन इससे दोनों के बीच तनाव को कुछ कम करने और कूटनीतिक संबंधों की बहाली की दिशा में कुछ मदद जरूर मिली है। इस बैठक के दौरान एक अच्छी बात यह हुई कि संयुक्त बयान में मतभेदों को सार्वजनिक तौर पर जाहिर नहीं किया गया और दोनों नेताओं ने इसे सकारात्मक दिखाने का प्रयास किया। बैठक में तनाव के मुद्दों पर बात की गई है, ताकि उनको हल करने के उपाय किए जा सकें। इसके अलावा कुछ मुद्दों पर सहमति भी कायम हुई है।

इन मामलों में अफगानिस्तान में आतंकवाद का मुकाबला, सीरिया में मानवीय सहायता प्रदान करना और ईरान को परमाण शक्ति बनने से रोकना जैसे मुद्दे शामिल हैं। आपसी सहयोग को आगे बढ़ाने से न केवल दोनों को लाभ होगा, बल्कि इससे अन्य सहयोगी और मित्र देशों को भी फायदा होगा। इससे रूस खुद को अमेरिका के बराबर महान शक्ति की पंक्ति में खड़ा कर सकेगा। साथ ही इससे उसको आंतरिक मुद्दों और खराब हुई अर्थव्यवस्था को सुधारने का अवसर भी मिलेगा। इसके साथ ही अमेरिका के लिए भी यह सामरिक रूप से अहम साबित होगा, क्योंकि उसे चीन के खिलाफ रूस का सहयोग अधिक मायने रखता है। रूस के साथ अमेरिका के रिश्ते सही होंगे तो उसकी ओर से उसे चिंता नहीं होगी। ऐसे में अमेरिका को चीन पर नजर रखने के पर्याप्त समय मिलेगा। अभी रूस की नजदीकियां लगातार चीन के साथ बढ़ती जा रही हैं। रूस चीन के लिए हथियारों का सबसे बड़ा आपूíतकर्ता भी बन गया है। वर्ष 2014 से 2018 के बीच चीन ने अपने 70 प्रतिशत हथियारों का आयात रूस से ही किया। ऐसी स्थितियां किसी भी रूप में अमेरिका के लिए लाभदायक नहीं हैं।


अमेरिका और रूस के तनावपूर्ण संबंधों के बीच अभी भारत की स्थिति सबसे चुनौतीपूर्ण हो गई है। अमेरिका हो या रूस दोनों को भारत की जरूरत किसी भी रूप में अवश्य है। यह न केवल व्यापारिक जरूरत है, बल्कि सामरिक और शक्ति संतुलन के लिए भी अनिवार्य है। ऐसे में अमेरिका का ध्यान भारत से संबंध पर निरंतर रहता है और यही स्थिति रूस की भी है। ठीक इसी प्रकार भारत को भी अमेरिका और रूस के साथ अपने संबंध बेहतर करने की अनिवार्यता है। इसलिए भारत भी नहीं चाहता कि भारत से विमुख होकर अमेरिका या रूस चीन या पाकिस्तान की ओर जाएं। यह भारत की सामरिक और सुरक्षात्मक रणनीति की मांग भी है। इसके चलते हर समय भारत की कूटनीति की परीक्षा होती रहती है। वैसे तो भारत का अमेरिका और रूस दोनों के साथ अच्छे संबंध माने जाते हैं, किंतु हाल के समय में रूस के साथ इसके रिश्तों में थोड़ी जटिलता दिखने लगी है। विगत कुछ वर्षो से रूस और भारत के संबंधों में अमेरिका का कारक हावी हो गया है। इसका व्यापक असर भारत के साथ रूस के संबंधों पर पड़ रहा है। कहा जा रहा है कि इसके चलते रूस की नजदीकियां चीन और पाकिस्तान से बढ़ रही हैं। यह स्थिति भारत के लिए काफी चिंताजनक है। इसके कारण क्षेत्रीय शक्ति संतुलन के बिगड़ने, भारत की सुरक्षा चुनौतियां बढ़ने की आशंका गहरा रही है। दरअसल भारत की अपने करीब 60 प्रतिशत रक्षा उपकरणों के लिए रूस पर निर्भरता है
वैसे देखा जाए तो भारत और रूस शीत युद्ध की समाप्ति के बाद से ही बेहद करीबी दोस्त के तौर पर अपने संबंधों को निर्धारित करते रहे हैं। अब तक कोई प्रत्यक्ष हितों के टकराव का मामला दोनों देशों के बीच नहीं उत्पन्न हुआ है, किंतु अमेरिका के साथ भारत के संबंधों के प्रगाढ़ होने के साथ रूस भारत से छिटकने की स्थिति में आता दिख रहा है। इसके समानांतर भारत को भी रूस का चीन के साथ नजदीकियां बढ़ाना रास नहीं आ रहा। कुल मिलकार अमेरिका और रूस के इस शिखर बैठक से दोनों के संबंधों के सामान्य होने की उम्मीद जगी है। ऐसा होता है तो यह भारत के हित में होगा। इससे भारत को आगे अपनी रणनीति निर्धारण में आसानी होगी।

गत दिनों विश्व के सात विकसित देशों के संगठन जी-7 की शिखर बैठक के बाद विश्व व्यवस्था के नए स्वरूप के निर्धारित होने की सुगबुगाहट शुरू हो गई है। भारत के लिहाज से यह बेहद महत्वपूर्ण है। सबसे महत्वपूर्ण है चीन के खिलाफ इस समूह की एकजुटता। संगठन के देशों ने चीन के आíथक और सामरिक विस्तारवाद की चुनौतियों से मुकाबला के लिए साझा संकल्प जारी किया है। इस शिखर बैठक से अमेरिका में सत्ता परिवर्तन की हनक भी दिखी और विश्व व्यवस्था में अमेरिका की नए स्वरूप में वापसी का संकल्प भी दिखा।

गौरतलब है कि चीन विगत दशक से अपने नागरिकों को 2047 तक दुनिया का सबसे विकसित देश होने का सपना दिखा रहा है। इस सपने को पूरा करने के लिए चीन कई परियोजना पर काम कर रहा है। इसमें एक बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव (बीआरआइ) भी शामिल है। इसके तहत चीन अन्य दूरस्थ देशों से ढांचागत यातायात परियोजना पर काम कर रहा है। इसके तहत वह अपने पड़ोसी देशों, अफ्रीका और यूरोप तक सड़क, रेल एवं जल मार्ग के जरिये संपर्को का जाल बिछा रहा है। भारत को भी इसी नीति के तहत वह लगातार घेरने का काम कर रहा है जिसे सामरिक भाषा में मोतियों की माला कहा गया है। हालांकि भारत ने बीआरआइ में शामिल होने से मना कर दिया है। इसके साथ ही चीन दक्षिण चीन सागर से लेकर भारत की सीमाओं पर घुसपैठ करने की महत्वाकांक्षा को पूरा करने का लगातार प्रयास करता रहा है।

चीन की इस रणनीति को जवाब देने के लिए जी-7 देशों ने बिल्ड, बैक, बेटर वल्र्ड (बी-3 डब्ल्यू) प्रस्तावित किया है। कहा जा रहा है कि ये देश इस पर 40 खरब डॉलर से भी ज्यादा खर्च करेंगे। इस परियोजना के तहत विकासशील देशों में बुनियादी ढांचे को विकसित किया जाएगा। हालांकि यह चीन के बीआरआइ विकल्प नहीं है, लेकिन साफ है कि इससे उसकी गति कमजोर जरूर हो सकती है। इस पहल से छोटे देश ढांचागत विकास के लिए चीन के जाल में नहीं फंसेंगे। भारत ने इस पहल का जोरदार स्वागत किया है। भारत को भी इस पहल से जुड़ने की जरूरत है, ताकि चीन के लगातार चल रहे आक्रामक रवैये को इसके माध्यम से शांत किया जा सके।

देखा जाए तो चीन की विस्तारवादी नीति के खिलाफ जिस प्रकार की रणनीति पर यह संगठन काम कर रहा है उससे विश्व व्यवस्था में एक नए गुट के निर्माण की संभावना प्रबल होती जा रही है। वैसे भी कोरोना के बाद की विश्व व्यवस्था की कल्पना की जा रही थी। देखा जाए तो जी-7 देशों की बैठक के बाद उसका एक स्वरूप सामने आने लगा है। इसमें भारत का स्थान अगली पंक्ति में आता दिख रहा है। चीन को अमेरिका कट्टर प्रतिद्वंदी मान रहा है और एशिया में भारत को उसका विकल्प भी मान रहा है।

दरसअसल जी-7 दुनिया की सबसे बड़ी और विकसित अर्थव्यवस्था वाले सात देशों का एक संगठन है। वर्तमान में इसके सदस्य देश फ्रांस, जर्मनी, इटली, जापान, अमेरिका, ब्रिटेन और कनाडा हैं। जी-7 में नए सदस्यों को जोड़ने पर पाबंदी नहीं है, किंतु संगठन में नए सदस्य बनाने के कुछ नियम अवश्य हैं। आरंभ में यह संगठन छह देशों का जी-6 समूह था, 1976 में कनाडा भी इस समूह में शामिल हो गया और यह जी-7 बन गया। वर्ष 1998 में इस संगठन में रूस भी शामिल हो गया था और यह जी-7 से जी-8 बन गया था, लेकिन जब 2014 में रूस द्वारा यूक्रेन से क्रीमिया को हड़प लिया गया तब रूस को इस संगठन से निलंबित कर दिया गया था। इन देशों के बीच प्रतिवर्ष बैठक होती है जिसमें मुख्य वैश्विक आर्थिक मुद्दे पर चर्चा होती है। इस सम्मेलन में विशेष अतिथि के तौर पर किसी गैर सदस्य देश को भी आमंत्रित किया जाता है। यह संगठन स्वतंत्रता और मानवाधिकारों की सुरक्षा, लोकतंत्र और कानून का शासन तथा समृद्धि और सतत विकास जैसे मुद्दों पर भी काम करता है। एड्स, टीबी और मलेरिया से लड़ने के लिए वैश्विक फंड की शुरुआत इसी संगठन की देन है। वर्ष 2016 के पेरिस जलवायु समझौते को लागू करने में भी इस संगठन की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।


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