सम्पादकीय

Russia Ukraine War : यूक्रेन पर अपने तटस्थ रुख से कहीं विश्व पटल पर अलग-थलग तो नहीं पड़ जाएगा भारत?

Gulabi Jagat
31 March 2022 11:40 AM GMT
Russia Ukraine War : यूक्रेन पर अपने तटस्थ रुख से कहीं विश्व पटल पर अलग-थलग तो नहीं पड़ जाएगा भारत?
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इन दिनों एक देश पर जिस तरह बड़ा और अतार्किक हमला किया गया है
नारायण मूर्ति बुद्धवरप्पु
इन दिनों एक देश पर जिस तरह बड़ा और अतार्किक हमला किया गया है, उसको लेकर हमलावर देश चाहे जितने भी कारण गिनाए, वे अनुचित ही रहेंगे. इस युद्ध के बाद से अब दुनिया जिस मुहाने पर खड़ी है, वहां से भारत (India) को पूरे विवेक के साथ कदम उठाने की जरूरत है. चाहे विश्व किसी भी दिशा की तरफ जा रहा हो, लेकिन मानव पीड़ा को देखते हुए यूं तटस्थ रहना लोक कल्याण नहीं कहलाएगा. यूक्रेन (Ukraine) पर रूस (Russia) के हमले पर भारत का ये रुख उसको विश्व स्तर पर अलग-थलग कर सकता है. इसका सीधा असर पिछले कई दशकों से विश्व की प्रमुख शक्तियों में गिने जाने और विश्व पटल पर सकारात्मक मजबूत पहचान बनाने के देश की आकांक्षाओं पर भी पड़ सकता है.
इस हृदयविदारक और पूरी तरह अनावश्यक युद्ध की जड़ें दुनिया की गहरी कूटनीतिक नींद और पश्चिमी देशों द्वारा स्थिति को समझने के बावजूद चुप रहने में छिपी हैं. शीत युद्ध की समाप्ति के बाद G7 और G20 देशों के बीच कई ऐतिहासिक समझौतों के आधार पर जो नई विश्व व्यवस्था बनाई गई, उसमें उनकी अदूरदर्शिता ने न सिर्फ इसे विफल कर दिया, बल्कि स्पष्ट रूप से सबसे खराब भी साबित किया है. दरअसल, पश्चिमी देशों ने एक तरफा सोच से ही ये फैसला कर लिया कि वे जो कदम उठा रहे हैं वो पूर्व सोवियत संघ से बने तमाम नवोदित राष्ट्रों के साथ-साथ दुनिया के बाकी देशों के लिए भी एकदम सही हैं. अगर उन देशों ने इन फैसलों को लोकतांत्रिक जनादेश द्वारा चुना होता तो ये सब फिर भी स्वीकार्य होता.
सुस्त राजनयिक रवैया
लेकिन इसके बाद यूक्रेन जैसे देशों का नाटो में शामिल होने का लालच देकर उन्होंने खतरनाक कदम उठा लिया, जबकि वे जानते थे कि रूस को, जो गोर्बाचेव-येल्तसिन युग के बाद स्पष्ट रूप से अपनी बाईं तरफ के देशों की ओर झुक रहा था, कतई पसंद नहीं आएगा. व्लादिमीर पुतिन को तो छोड़ दें, नाटो की सेना टुकड़ियों का रूस की सीमा पर मध्यस्ता के बिना तैनात होना किसी भी रूसी नेता को स्वीकार्य नहीं होगा. यही नहीं, इन हालात की पृष्ठभूमि में खुले तौर पर रूस के वो उद्योगपित नेता हैं जिन्होंने रूस के ऑयल बिजनेस को लूटकर अवैध तरीके से पैसा कमाया है और इसके दम पर वे अब अमेरिका और यूरोप में ऐसे राजनीतिक फैसलों को प्रभावित कर रहे हैं. इनमें से कई के पुतिन से करीबी संबंध हैं और कई ने पश्चिमी प्रतिष्ठानों में प्रभावशाली पदों तक चालाकी से अपना रास्ता बना लिया है. संक्षेप में कहें तो पुतिन के हाथ पश्चिमी देशों के नेताओं की गर्दन पर हैं. यूक्रेन से अत्याचार की खबरों और तस्वीरों पर पश्चिमी सरकारों का मूक दर्शक बने रहना बेशक दुखद स्थिति ही दर्शाता है. ऐसी स्थिति में वे बस रूस पर कई तरीके से प्रतिबंध लगाने का दबाव बनाने के अलावा और कुछ कर भी नहीं सकते.
27 मार्च को जो बाइडेन के एक बयान ने इस आग में घी डालने का काम किया है. अमेरिकी राष्ट्रपति ने रूसी लोगों से आग्रह करते हुए कहा कि इस हमले के बाद पुतिन अब सत्ता में नहीं रह सकते और वे उनसे सीधे तौर पर छुटकारा पा लें. अपने प्रोपेगेंडा को सही साबित करने के लिए पुतिन को तो बस इतना ही चाहिए था. अमेरिकी राष्ट्रपति ने शायद अपनी स्क्रिप्ट से हटकर ये कहा होगा और इस तरह रूस में शासन परिवर्तन की मांग करके वे एक बड़ी गलती कर बैठे हैं. वहीं रूस पर जो प्रतिबंध लगाए जा रहे हैं, उनका असर दिखने में अभी समय लगेगा और इसका खामियाजा रूस में आम आदमी को ही भुगतना पड़ेगा, और ये वही लोग हैं जिन्हें पुतिन ने यूक्रेन में अपने 'विशेष अभियान' की अलग ही कहानी बताई है.
इसी बीच, पश्चिमी राजनयिक रूस पर प्रतिबंधों की धमकियों के साथ इधर-उधर ताक रहे हैं और रूसी तेल पर निर्भरता कम करने के लिए खाड़ी देशों के साथ त्वरित तौर पर बातचीत और समझौते कर रहे हैं. हालांकि, अब बहुत देर हो चुकी है. यूक्रेन के उन लाखों नागरिकों के लिए बहुत देर हो चुकी है जिन्होंने अपने नवेले और उभरते देश पर पुतिन के अवसरवादी और बर्बर हमले का भयंकर नरसंहार देखा है. वे भी विश्व के हर अन्य देश के नागरिकों की तरह शांति और समृद्धि के पात्र हैं.
घमंडी हमलावर
हम यूक्रेन के लोगों को ऐसे देश में बसने पर दोष नहीं दे सकते, जहां लोकतांत्रिक ढंग से सरकार चुनी गई हो. हम यूक्रेन की चुनी हुई सरकार को लोकतंत्र की पश्चिमी शैली की ओर झुकाव के लिए दोष नहीं दे सकते. हम निश्चित रूप से यूक्रेन के उन बहादुर नागरिकों को भी दोष नहीं दे सकते, जो अपने राष्ट्र की रक्षा के लिए अपनी जान दांव पर लगाए हुए हैं. इसी तरह हम पश्चिमी कूटनीतिक विफलताओं के बारे में जितना बोल सकते हैं, उतना मैं ऊपर लिख ही चुका हूं. लेकिन हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि सही मायने में पुतिन ही असली हमलावर हैं और अपने घमंड और ताकत के नशे में वह इस मानवीय त्रासदी के जिम्मेदार कहलाएंगे.
तानाशाही दिमाग
क्या पुतिन ने पश्चिमी देशों को सबक सिखाने के लिए ये नरसंहार शुरू किया है? क्या यूक्रेन पर हमले के बाद उसे कब्जाकर पुतिन एक बार फिर महान सोवियत संघ बनाने के अपने सपने को पूरा करना चाहते हैं? बेशक दोनों ही बातें आपे से बाहर करने वाली हैं और ये भी नहीं कहा जा सकता है कि पुतिन ने इन पर विचार नहीं किया होगा.
कौन जानता है कि एक तानाशाह के दिमाग में क्या है, क्योंकि अपने फैसलों से पुतिन ने साबित कर दिया है कि वह एक अडिग निरंकुश व्यक्ति हैं जो बारीकियों या मानव जीवन की परवाह नहीं करते हैं. या ये भी कहा जा सकता है कि पुतिन शायद वास्तव में महसूस करते हैं कि उनसे पहले के शासकों – गोर्बाचेव और येल्तसिन जैसे सुधारक – ने इन देशों को जरूरत से ज्यादा जमीन दे दी. यूएसएसआर के विभाजित से पहले पुतिन इसकी खुफिया एजेंसी केजीबी के प्रमुख थे और इसके बंटवारे को वह अभी तक शायद स्वीकार नहीं कर पाए हैं.
भारत का रुख
रूस के साथ उसके संबंध कितने भी अनुकूल क्यों न हों, भारत को इस स्थिति में सावधानीपूर्वक निर्णय और विवेक का प्रयोग करने की आवश्यकता है. भारत कितना भी तटस्थ रुख क्यों न रखे, यूक्रेन में मानवीय पीड़ा के मंजर के सामने ये ज्यादा समय तक स्वीकार्य नहीं होगा. और मीडिया में जो दावे किए जा रहे हैं कि भारत को रूस तेल की आपूर्ति कर रहा है, वो भी विश्व मंच पर देश की छवि के लिए शुभ संकेत नहीं हैं. भारत वर्तमान स्थिति में चुप नहीं रह सकता, जब हजारों की संख्या में लोग मर रहे हों, लाखों लोग विस्थापित हो रहे हों, बच्चों और महिलाओं को अपना घर छोड़कर जाना पड़ रहा हो और ये सब एक तानाशाह के घमंड और घृणा से भरे विचारों की वजह से हो रहा है जिसने ये सब इसलिए किया क्योंकि उसे डर था कि रूस अंतरराष्ट्रीय राजनीति में अपना प्रभाव खो रहा है. ऐसा नहीं है कि इस विशेष भू-राजनीतिक समानता को पाने के लिए और दूसरों के सामने अपना पक्ष रखने के लिए पुतिन के पास और कोई विकल्प नहीं थे. चाहे कुछ भी हो, युद्ध हमेशा विवाद का अंतिम उपाय होना चाहिए.
जहां तक भारत का सवाल है, तो मौजूदा स्थिति में उसे यूक्रेन की पीड़ित जनता के साथ सहानुभूति और एकजुटता दिखानी चाहिए और विश्व स्तर पर तमाम मंचों पर हासिल किए गए मुकाम को खोना नहीं चाहिए क्योंकि इसके पीछे भी दशकों की मेहनत लगी है. भारत का मूल दर्शन शांति और सार्वभौमिक कल्याण है. मैं यह नहीं कहता कि भारत को हर सूरत में पश्चिमी राय का ही पक्ष लेना चाहिए. ये भी बहुत हद तक मुमकिन है कि पिछले तीन हफ्तों में भारत ने कूटनीतिक रूप से पश्चिमी देशों के साथ व्यापार, शिक्षा और उद्यम के क्षेत्र में उस आधार को खो दिया हो, जिसे उसने पिछले दो दशकों के अथक परिश्रम के साथ पाया था.
मैं तर्क दे रहा हूं कि यहां जरूरत भारत को अपना दिल और भाव दिखाने की है. ये भी सही है कि रूस पिछले कई दशकों से भारत के पक्ष में रहा है और जरूरत की हर घड़ी में इस मित्र देश से हमें पूरा सहयोग भी मिला है. लेकिन अभी वो देश जो अत्याचार और अन्याय कर रहा है, उस माहौल में उसके साथ दिल खोलकर बात करने और इसके परिणाम समझाने की जरूरत है ताकि उसकी सोच को बदला जा सके. ये खासतौर पर तब और महत्वपूर्ण हो जाता है, जब हमारे देश खुद इस तरह के आक्रमणों को झेल चुका है और ऐसे कई भयावह मंजरों का साक्षी रहा है. आइए आशा करते हैं कि सभी को सद्बुद्धि मिले और दुनिया में फैली ये नफरत खत्म हो जाए. एक देश को बनाने और बसाने में कई वर्ष लग जाते हैं, लेकिन इसे धूल में मिलाने में कुछ ही हफ्ते. यूक्रेन पर हमले का असली दर्द अभी सामने नहीं आया है। इन मौतों और विस्थापन के घाव तब सही मायने में सामने आने लगेंगे जब शांति बहाल होगी और पुनर्निर्माण का काम शुरू होगा.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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