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यूक्रेन संकट मानव सभ्यता की परख का समय
अश्विनी कुमार। रूस की सेनाएं लगातार यूक्रेन में घुसती जा रही हैं। पूरी दुनिया इस रूसी हमले के आगे असहाय दिख रही है। वह आर्थिक प्रतिबंधों एवं विरोध से आगे नहीं बढ़ पा रही है। वहीं मात्र 4.4 करोड़ की आबादी वाला यूक्रेन रूसी हमले का डटकर मुकाबला कर रहा है। यही कारण है कि मास्को ने अपने परमाणु दस्ते को सक्रिय कर दिया है। यह संकेत करता है कि मौजूदा संघर्ष लंबा खिंच सकता है। रूस को स्विफ्ट वित्तीय प्रणाली से बाहर करने और अमेरिका एवं अन्य देशों से यूक्रेन को सैन्य मदद देने से उन लोगों को जरूर कुछ राहत मिलेगी, जो पीड़ित-प्रताड़ित पक्ष से सहानुभूति रखते हैं।
पुतिन का यह दुस्साहस कोई नया नहीं है। इससे पहले 2008 में रूस द्वारा जार्जिया और 2014 में क्रीमिया पर बेशर्मी से कब्जा संयुक्त राष्ट्र चार्टर का घोर उल्लंघन था। मध्य यूरोप का मानचित्र बदलने की रूसी महत्वाकांक्षा की 21वीं सदी में कोई और मिसाल नहीं मिलती। पूर्ववर्ती सोवियत संघ की साम्राज्यवादी शैली वाले गौरवशाली अस्मिता बोध से कुप्रेरित रूसी हमले में एक संप्रभु राष्ट्र की पहचान समाप्त होने का संकट वास्तव में विधिसम्मत संचालित अंतरराष्ट्रीय ढांचे की परीक्षा लेने वाला है।
जब दुनिया कोविड महामारी के कोप से बाहर निकलने में जुटी थी, तब रूसी हमले ने वैश्विक राजनीतिक अस्थिरता को और बढ़ा दिया। इसने वैश्विक शांति सुनिश्चित करने के दायित्व से बंधी संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्थाओं की भूमिका एवं प्रासंगिकता पर भी नए सिरे से प्रश्न चिन्ह लगा दिए हैं। कमजोर बहुसंख्या किस प्रकार वीटो से लैस ताकतवर अल्पसंख्या के समक्ष निष्प्रभावी हो जाती है, इसे देखते हुए संयुक्त राष्ट्र में सुधार अपरिहार्य हो गए हैं। आखिर यह कितनी शर्मनाक स्थिति है कि आक्रांता ही अपने विरुद्ध लाए प्रस्ताव पर निर्णय-नियंता बन जाए। यूक्रेन पर हमले को लेकर रूस के खिलाफ अमेरिका के नेतृत्व में आए प्रस्ताव पर यही देखने को मिला।
आत्मरक्षा की आड़ में यूक्रेन के 'विसैन्यीकरण' के लिए रूस ने जो विशेष सैन्य अभियान चलाया है, वह एक तरह से खुद को दिए घाव पर मरहम लगाने जैसा है। यूक्रेन को अमेरिका के नेतृत्व वाले नाटो के पाले में जाने से रोकने और पूर्व सोवियत संघ के खोए गौरव को पुन: हासिल करने की चेष्टा में यह रूस का स्वरचित घटनाक्रम है। इससे पहले जार्जिया, क्रीमिया, माल्डोवा और डोनबास में पुतिन के दांव एक सोची-समझी रणनीति के तहत ही लगते हैं। पुतिन चीन के साथ मिलकर रूस के पुराने वर्चस्व को वापस पाने की कोशिश में लगे हैं। यूक्रेन युद्ध का परिणाम ही यह तय करेगा कि पुतिन अपने इन मंसूबों में कितने कामयाब होंगे।
सोवियत संघ के विघटन के बाद एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में यूक्रेन के अस्तित्व पर पुतिन का सवाल उठाना बेतुका है। यूक्रेन मामले में हस्तक्षेप को लेकर पुतिन ने दो-टूक कहा कि इसके ऐसे दुष्परिणाम भुगतने होंगे, जैसे कभी इतिहास में नहीं देखे गए होंगे। उनकी इस चेतावनी ने पहले से तनावपूर्ण माहौल को और तल्ख बना दिया। ऐसे में यह संघर्ष लंबा चला तो यूरोप में टकराव के नए मोर्चे खुल सकते हैं। इससे वह धारणा भी ध्वस्त हो जाएगी कि आर्थिक निर्भरता अंतरराष्ट्रीय शांति का जरिया बन सकती है। इसके अलावा यह युद्ध परमाणु नि:शस्त्रीकरण की कवायद को भी पटरी से उतारने का काम करेगा। अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं और कानूनों को लेकर जारी बहस के बीच में यह स्पष्ट है कि यूक्रेन संकट के समाधान में शक्ति एवं सिद्धांत के महीन संतुलन की परख होनी है। यह दर्शाएगा कि क्या न्याय के प्रश्न को शक्ति समीकरणों से विलग किया जा सकता है? इसी तरह क्या राज्य शक्ति के उपयोग में स्वयं को सुसभ्य बनाने की दिशा में विश्व ने ताकत से कूटनीति एवं कूटनीति से विधि की ओर प्रस्थान किया है या नहीं? फिलहाल हमें यही स्वीकार करना होगा कि वर्तमान वैश्विक व्यवस्था का टकराव की स्थिति में शक्ति पर स्वतंत्रता को महत्व देने का दावा मिथ्या प्रतीत हो रहा है।
आज यूरोप एक अंधियारे दौर से गुजर रहा है। ऐसे में एक मानवीय वैश्विक ढांचे के लिए सिद्धांतों के आलोक में कड़े विकल्पों से बचने की कीमत का आकलन जरूरी हो गया है। भारतीय कूटनीति के लिए एक बार फिर कड़ी परीक्षा का पड़ाव आ गया, जहां हमारे समक्ष सिद्धांत और व्यावहारिकता में से सवरेत्तम विकल्प चुनने की बात है। भारत ने रूसी अतिक्रमण का पक्ष न लेने के अलावा संयुक्त राष्ट्र में मतदान से अनुपस्थित रहकर संतुलित दृष्टिकोण अपनाया। संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र के पवित्र सिद्धांतों को समर्थन देने के साथ ही बहुआयामी राष्ट्रहितों की पूर्ति के उपक्रम में भारत ने रणनीतिक निष्पक्षता को ही पोषित किया। प्रधानमंत्री मोदी ने भी रूसी राष्ट्रपति पुतिन से अपनी टेलीफोन वार्ता में ¨हसा समाप्त करने और वार्ता से समाधान निकालने का सुझाव दिया।
इसमें संदेह नहीं कि सामरिक रूप से पुतिन अत्यंत शक्तिशाली है, किंतु उन्हें यह अवश्य स्मरण रहना चाहिए कि आज की दुनिया में अन्याय या क्रूरता के किसी भी कदम की अंतराष्ट्रीय स्तर पर बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है। उन्हें इतिहास से यह सबक भी सीखना होगा कि चाहे आक्रांता हो या फिर उसके आक्रमण का भुक्तभोगी, युद्ध की विभीषिका से कोई नहीं बचा रह पाता है। एक रणनीतिकार के रूप में भी पुतिन इतिहास की इस सीख को अनदेखा नहीं कर सकते कि सामरिक दुस्साहस को देर-सबेर सबक सिखाया ही जाता है। उन्हें इसका भान होना चाहिए कि यदि इराक और अफगानिस्तान युद्ध ने वैश्विक महाशक्ति एवं वैश्विक शांति के सूत्रधार के रूप में अमेरिकी दर्जे और विश्वसनीयता पर आघात करने का काम किया है तो एक आक्रांता के रूप में उन्हें लेकर बनी धारणा न केवल दुनिया भर की राजधानियों, बल्कि आमजन की चेतना में भी उनकी छवि को क्षति पहुंचाएगी। रूस को लेकर संयुक्त राष्ट्र से लेकर वैश्विक मंचों पर मुहिम आरंभ हो गई हैं। आने वाले दिनों में ऐसे अभियानों के जोर पकड़ने से मास्को को लेकर अंतररराष्ट्रीय बिरादरी के मिजाज का रुझान भी सामने आएगा।
(लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं)
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