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सम्पादकीय
Russia Ukraine War : यूक्रेन संकट को अब शायद एस जयशंकर और वांग यी का कॉम्बो पैक ही खत्म कर सकता है
Gulabi Jagat
8 April 2022 6:53 AM GMT
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यूक्रेन युद्ध पर भारत शुरू से ही तटस्थता की नीति अपनाए हुए है
के वी रमेश।
पिछले 3 हफ्तों में अमेरिका (America) सहित तमाम यूरोपीय देशों ने नई दिल्ली की यात्रा कर ली है. इन यात्राओं के दौरान यह तमाम देश भारत को रूस (Russia) के साथ सख्त रुख अपनाने के लिए मनाने की कोशिश कर रहे हैं. इसमें जापानी प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा से लेकर दुनिया के तमाम बड़े नेताओं के नाम शामिल हैं. यह सब दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाले देश और दुनिया की छठवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश को मनाने की कोशिश कर रहे हैं कि वह रूस द्वारा यूक्रेन (Ukraine) पर किए गए आक्रमण का विरोध करे और इसके लिए खुले मंच पर रूस की निंदा करे. इसके साथ ही यह लोग इस बात की भी कोशिश कर रहे हैं कि रूस ने जो भारत को कम दरों पर तेल देने की बात की है उस पर भी भारत कोई विचार न करे.
यूक्रेन युद्ध पर भारत शुरू से ही तटस्थता की नीति अपनाए हुए है, उसने अमेरिका समेत तमाम यूरोपीय देशों के दबाव में कोई फैसला नहीं किया है. भारत का रुख इस मसले पर बिल्कुल साफ है कि इस युद्ध की समस्या का समाधान सिर्फ मिलिट्री डिसएंगेजमेंट और कूटनीति के तहत ही हो सकता है. क्योंकि यूक्रेन युद्ध के प्रति भारत का दृष्टिकोण हमेशा से समाधान करने का रहा है, न कि विवाद को और बढ़ाने का, जैसा कि अमेरिका सहित तमाम पश्चिमी देश करते दिखाई दे रहे हैं. आज यूक्रेन की जो स्थिति है उसके जिम्मेदार कहीं न कहीं पश्चिमी देश भी हैं, जिन्होंने नाटो की मेंबरशिप को लेकर ऐसा बीज बोया जिसने पुतिन को आज यूक्रेन से युद्ध करने की स्थिति में ला कर खड़ा कर दिया है.
हालांकि, जब हम इस विवाद के समाधान की ओर देखते हैं तो हमें भारत और चीन का दृष्टिकोण काफी हद तक एक जैसा दिखाई देता है. एलएसी पर हुए सीमा विवाद के बाद भले ही कई मामलों में चीन और भारत एक साथ नहीं दिखाई देते हों, लेकिन यूक्रेन रूस विवाद एक ऐसा मुद्दा है जिस पर दोनों देश एक डोर पर सहमत दिखाई देते हैं. इन दोनों देशों ने इस पूरे विवाद की जड़ पश्चिमी देशों को बताया है. एक तरफ जहां भारत इस बात को खामोशी से कहता नजर आता है, तो वहीं चीन इसे खुले तौर पर अब कहने से गुरेज नहीं कर रहा है कि रूस यूक्रेन विवाद को पश्चिमी देशों ने ही बढ़ा रखा है.
रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध विराम चाहता है भारत और चीन
रूस और यूक्रेन के बीच संघर्ष की ही देन है कि आज नाटो के सदस्य देश अपने रक्षा बजट में तेजी से वृद्धि कर रहे हैं. जर्मनी और जापान जैसे देश अपने रक्षा खर्च को और बढ़ा रहे हैं, इनके बढ़ते रक्षा बजट को देखकर द्वितीय विश्वयुद्ध के इतिहासकार चिंतित हैं. दरअसल इन बढ़ते रक्षा बजटों की वजह से आम आदमी का जीवन प्रभावित हो रहा है, क्योंकि इसके चलते उनके सामाजिक खर्चों में कटौती की जा रही है. वहीं वैश्विक ईंधन की कीमतों में बढ़ोतरी हो रही है और ग्लोबल वार्मिंग पर भी असर पड़ रहा है. चीन और भारत इस वक्त दो ऐसे देश हैं जो यह चाहते हैं कि रूस और यूक्रेन के बीच स्थितियां फिर से सामान्य हो जाएं और इसके लिए कूटनीतिक माध्यम से प्रयास किए जाएं. फिलहाल तुर्की इन दोनों पक्षों की वार्ता की मेजबानी कर रहा है, हालांकि यह तब तक सफल नहीं होगा जब तक इसमें एक तीसरे मजबूत सक्रिय पक्ष की मेजबान के रूप में एंट्री न हो जाए, जो इन दोनों युद्धरत देशों को बातचीत की टेबल पर बिठा सके.
दरअसल, अगर रूस और यूक्रेन का युद्ध लंबा खिंच गया तो भारत और चीन दोनों देशों के लिए मुसीबत का सबब बन जाएगा. दोनों ही देश ईंधन के प्रमुख आयातक हैं और इनकी बढ़ती कीमतें दोनों ही देशों के लिए नुकसानदायक हैं. इस युद्ध ने विश्व की आपूर्ति श्रृंखलाओं को बुरी तरह से नुकसान पहुंचाया है. खासतौर से धातुओं और खनिजों के आयात को, जिसकी जरूरत चीन और भारत दोनों ही देशों की बढ़ती अर्थव्यवस्था को सबसे ज्यादा है. चीन के रूस का समर्थन करने की एक वजह यह भी है कि चीन की गैस और तेल की आपूर्ति मुख्य रूप से रूस से ही होती है. भारत इस मामले में चीन से थोड़ा अलग है, क्योंकि भारत रूसी तेल का इतना बड़ा खरीदार नहीं रहा है. हालांकि उसे कुछ रियायती मूल्यों पर जरूर रूस से तेल उपलब्ध होता है.
इस युद्ध की वजह से रूस पर जिस तरह से प्रतिबंध लगाए गए हैं, उससे अंतरराष्ट्रीय बाजार में रूस के तेल की बिक्री नहीं होगी और इसका फायदा उठाकर खाड़ी देश तेल की कीमतों को बढ़ाएंगे और जमकर मुनाफा कमाएंगे. पश्चिमी देश यही चाहते हैं. इससे सबसे ज्यादा नुकसान भारत को होगा, क्योंकि चीन ने पहले ही रूस के साथ 30 साल के लिए गैस और तेल का 400 अरब डॉलर का सौदा कर लिया है. वहीं अगर अब किसी भी तरह से यूक्रेन संकट समाप्त हो जाता है, और किसी के लिए भी जीत की स्थिति नहीं बनती है और शर्तों के आधार पर दोनों देश संघर्ष विराम पर सहमत हो जाते हैं, तो इसका श्रेय लेने के लिए भारत और चीन की जगह तुर्की, जर्मनी और फ्रांस दावा करने से पीछे नहीं हटेंगे.
पुतिन की जीत हुई तो क्या होगा?
जबकि अगर इस युद्ध में पुतिन की जीत होती है, तो वह अपनी घरेलू राजनीति में और ज्यादा लोकप्रिय हो जाएंगे और वैश्विक तौर पर अमेरिका समेत अपने तमाम दुश्मनों के मुकाबले और मजबूती से ऊपर उठेंगे. पूरी दुनिया को पता चल जाएगा कि यह रूसी शासक कितना मजबूत है, जो कभी भी पासा पलटने और अपने दुश्मन देश को तोड़ने में सबसे आगे रहता है. हो सकता है इस जीत के बाद व्लादिमीर पुतिन और भी ज्यादा महत्वाकांक्षी हो जाएं. यहां तक कि चीन को भी इस बात का डर सताने लगेगा कि इस जीत के बाद भी क्या व्लादिमीर पुतिन उसके जूनियर पार्टनर बने रहेंगे, जैसा कि दलीप सिंह ने भारत को डराने के लिए दिल्ली में बयान दिया था. इस जीत के बाद महत्वाकांक्षी पुतिन के पास अपने पुराने विशाल रूसी साम्राज्य को फिर से स्थापित करने का भव्य सपना होगा. जिसे व्लादिमीर लेनिन ने सोवियत संघ के हर हिस्से को अलग होने का अधिकार देकर नष्ट कर दिया था.
रूस के तेल का कोई विकल्प नहीं
आज पश्चिमी देश भले ही कह रहे हैं कि वह रूस के तेल और गैस का विकल्प तलाश लेंगे. लेकिन ऐसा होता नजर आ नहीं रहा है. क्योंकि ओपेक (OPEC) पहले ही यूक्रेन संकट के मद्देनजर और अधिक तेल पंप करने से इंकार कर चुका है. खाड़ी देश भी अमेरिका और यूरोप को तेल की कीमतों में बढ़ोतरी करने के लिए कह चुके हैं. ईरान बिना JCPOA पर हस्ताक्षर किए यूरोप की जरूरतों को पूरा करने के लिए तैयार नहीं है. वहीं वेनेजुएला का जर्जर तेल उद्योग अपने उत्पादन को और नहीं बना सकता है. आखिर में सवाल यही उठता है कि अमेरिका समेत तमाम पश्चिमी देश रूस के तेल और गैस का विकल्प कहां से तलाशेंगे?
यूएई के ऊर्जा मंत्री सुहैल अल-मज़रूई ने पिछले सोमवार को दुबई में एक एनर्जी फोरम के दौरान इस बात को दुनिया के सामने रखा था कि एनर्जी मार्केट में रूसी तेल की जरूरत है और कोई भी निर्माता उसकी जगह नहीं ले सकता है. उन्होंने कहा रूस 1 दिन में लगभग 10 मिलियन बैरल तेल का उत्पादन करता है, जो इसे ओपेक गठबंधन का एक महत्वपूर्ण सदस्य बनाता है. अल-मजरूई के मुताबिक अब इस विषय पर राजनीति छोड़ देनी चाहिए क्योंकि हमें रूसी तेल की आवश्यकता है.
एस जयशंकर और वांग यी का कॉम्बो पैक
अमेरिका यूक्रेन को हथियार भेजना चाहता है. यूएस राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जैक सुलिवन का कहना है कि यूक्रेन को अपनी रक्षा के लिए और अधिक हथियारों की जरूरत है, जो उसे दिए जाएंगे. दूसरे शब्दों में समझें तो अमेरिका इस विवाद को अभी और बढ़ाना चाहता है, इसीलिए वह यूक्रेन को और हथियार देने की पेशकश कर रहा है. पश्चिमी देश और अमेरिका शायद भूल रहे हैं कि रूस और पुतिन यहीं के हैं और यही रहेंगे. शायद इस पूरे विवाद को अभी तक पश्चिमी देश समझ नहीं पाए हैं, न ही अब उनके पास इसे संभालने का कोई विकल्प है. इसलिए अब इस विवाद को सिर्फ एशियाई देश ही संभाल सकते हैं.
इस वक्त पूरी दुनिया में दो ही सबसे बेहतर विदेश मंत्री हैं, पहले भारत के सुब्रमण्यम जयशंकर हैं और दूसरे चीन के वांग यी. वांग यी पिछले हफ्ते ही दिल्ली आए थे और उन्होंने इस मुद्दे पर भारत से बातचीत करने की कोशिश की थी, लेकिन भारत ने इससे साफ इंकार करते हुए कहा था कि जब तक सीमा पर विवाद चल रहा है, वह चीन से किसी भी मुद्दे पर बातचीत करने को राजी नहीं होगा. हालांकि इस वक्त यही दो ऐसे विदेश मंत्री हैं जो पश्चिम द्वारा फैलाई गई इस गंदगी से पूरी दुनिया को बाहर निकाल सकते हैं.
पुतिन भी शायद भारत और चीन की बात को काट नहीं सकते, क्योंकि यह दोनों दुनिया की दो उभरती हुई विश्व शक्तियां हैं. इसमें कोई शक नहीं कि अगर सुब्रमण्यम जयशंकर और वांग यी की कूटनीति से यह युद्ध रुक गया तो उन्हें भविष्य में शांति का नोबेल पुरस्कार भी मिल जाए. जाहिर सी बात है जब वियतनामी युद्ध के नायक ले डुक थो और हेनरी किसिंजर को इस पुरस्कार से सम्मानित किया जा सकता है, तो जयशंकर और वांगी यी को क्यों नहीं?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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