सम्पादकीय

Russia-Ukraine War: क्या यूक्रेन संकट पर रूस को नैतिक समर्थन देकर गलती कर रहा है भारत

Gulabi
1 March 2022 5:21 AM GMT
Russia-Ukraine War: क्या यूक्रेन संकट पर रूस को नैतिक समर्थन देकर गलती कर रहा है भारत
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गुट निरपेक्ष नीति में आज भी फंसा हुआ है भारत
संयम श्रीवास्तव।
यूक्रेन संकट (Ukraine Crisis) में भारत को किसका साथ देना चाहिए. सोशल मीडिया और पब्लिक प्लेस में यूपी में सरकार किसकी बन रही है से ज्यादा चर्चा इस बात की है कि भारत को किसका साथ देना चाहिये. रूस (Russia) की दोस्ती के किस्से भारतीयों को इमोशनल कर देते हैं. इसके पीछे कौन से कारण है इसके तह में जाने की जरूरत नहीं है. दोस्ती और प्यार का आधार तर्क नहीं सेंटीमेंट होता है. रूस के लिए भारतीयों का प्यार कुछ इसी तरह का ही है. जहां दोस्ती के पक्ष में अकल्पनीय तर्क गढ़ लिए जाते हैं. पर अगर फायदे और नुकसान की तुलना करें तो भारत के लिए रूस की दोस्ती से कुछ खास हासिल नहीं हुआ है. रूस ने भारत के समर्थन में अनेक बार सुरक्षा परिषद में साथ दिया है. पर जब बात चीन की आई है उसकी दोस्ती संदिग्ध हो जाती है. इसलिए रूस से दोस्ती को तराजू पर तौलने पर भारत की ओर नुकसान का पलड़ा ज्यादा भारी दिखेगा. आजादी के बाद भारतीय भूभाग का कुछ हिस्सा चीन हड़पे हुए है और कुछ हिस्सा आज भी पाकिस्तान(Pakistan) के साथ है.
पाकिस्तान आज तक युद्ध छेड़े हुए है. पुराने युद्धों को छोड़ दीजिए करगिल युद्ध, मुंबई अटैक और पार्लियामेंट अटैक, पुलुवामा आदि के जरिए उसका छद्म युद्ध भी भारत को लहुलूहान करता रहा है. शीतयुद्ध के दौर में जिन देशों ने रूस को छोड़ अमेरिका के साथ रहने की ठानी उनकी हालत कम से कम इतनी निर्बल तो कभी नहीं रही जैसी हालत भारत की पिछले 6 दशकों में रही है. अब ऐसे समय में जब रूस के साथ चीन और पाकिस्तान की दोस्ती और गाढ़ी होती जा रही है, भविष्य में रूस भारत के कितना काम आएगा यह समय ही बताएगा.
जब चीन से युद्ध के लिए रूस भारत को कसूरवार बता रहा था
18 नवंबर 1962 को जब चीनी सेना ने भारतीय भूभाग पर आक्रमण कर दिया था उस समय भारत का सबसे खास दोस्त रूस ( तत्कालीन सोवियत संघ) के सरकारी अखबार प्रावडा ने फ्रंट पेज पर एक आर्टिकल लिखकर यह साबित करने की कोशिश की कि युद्ध के लिए कसूरवार चीन नहीं भारत है. छपे लेख में यह आरोप लगाया गया कि मैकमोहन रेखा सही नहीं है. यह ब्रिटिश उपनिवेशवाद का किया धरा है. हालांकि उस समय के अमेरिकी नेतृत्व ने भारत की समस्या को काफी उदारतापूर्ण ढंग से अपने सर-माथे पर रखा. भारत -चीन युद्ध के दौरान अमेरिकन एयरक्राफ्ट हर रोज ,सैन्य मदद लेकर भारत आने लगे और उनपर इंडो-तिब्बत सीमा के फोटो भी होते थे. अमेरिकी विदेश मंत्रालय के तत्कालीन सहायक सचिव रोजर हिल्समैन खुद सैन्य साजो-सामान लेकर भारत पहुंचाते रहे. तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति कैनेडी भारत में अमेरिकी वायु सेना के हेलिकॉप्टरों को भेजकर भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को आश्वस्त किया कि घबड़ाने की कोई बात नहीं है. इस संकट के समय में अमेरिका भारत के साथ है .
अमेरिकी नेवी ने बंगाल की खाड़ी में एक लड़ाकू जहाज भी भेजा जिससे पूरी दुनिया को ये संदेश चला गया कि अमेरिका भारत के साथ है. जॉन एफ केनेडीज फॉरगेटन क्राइसिस: तिब्बत, सीआईए ऐंड सिनो-इंडिया वॉर नामक एक किताब में सीआईए के पूर्व अधिकारी ब्रूस रिडेल ने लिखा है, संकट के चरम पर पहुंचने के पहले नेहरू ने अमेरिकी सरकार से 350 लड़ाकू एयरक्राफ्ट की मांग की थी. जब भारत चीन के हाथों तेजी से अपनी जमीन और सैनिकों को गवां रहा था नेहरू ने अमेरिकी राष्ट्रपति कैनेडी को पत्र लिखकर जेट फाइटर्स की डिमांड की थी. इस पत्र के बाद एक और पत्र नेहरू ने अमेरिका में भारत के तत्कालीन राजदूत बीके नेहरू के हाथों भी कैनेडी को भेजा था. पर अमेरिका के खुलकर सामने आते ही चीन ने अपनी सेना को भारत से वापस लेना शुरू कर दिया था.
यह भी सच है कि रूस ने भारत-चीन विवाद पर कभी हमारा स्पष्ट समर्थन नहीं किया और 'शांति', 'संयम', 'वार्ता' जैसे कूटनीतिक शब्दों का प्रयोग किया.
अफगानिस्तान मामले में रूस ने भारत के साथ दोयम दर्जे वाला व्यवहार किया
पारंपरिक रूप से भारत के समर्थन में खड़ा दिखने वाले रूस पिछले साल अफगान शांति समझौते के संदर्भ में जब भी संबंधित देशों की बैठक करता भारत को दरकिनार रखता. भारत को लेकर सामने आया रूस का यह रुख इसी बात की तस्दीक करता था कि वो चीन और पाकिस्तान के दबाव में है. हालांकि रूस की अपनी बहुत अपनी सामरिक और आर्थिक मजबूरियां हैं जिसके चलते वो इससे अधिक भारत को अपने से अलग-थलग नहीं कर सकता है. इसलिए भारत के साथ दोस्ती बरकरार रखना उसकी मजबूरी है. हालांकि, अफगान शांति वार्ताओं से भारत को अलग रखने का सुझाव अमेरिका ने कभी नहीं माना और भारत को बातचीत के टेबल पर वापस लाया.
इस संबंध में अंग्रेजी अखबार द इंडियन एक्सप्रेस ने अपने सूत्रों के हवाले से खबर दी थी कि मॉस्को और बीजिंग के बीच बढ़ती नजदीकियों के कारण रूस के मध्यस्थों ने रूस, चीन, अमेरिका, पाकिस्तान और ईरान को अफगानिस्तान में शांति बहाली की प्रक्रिया तय करने वाले गुट में शामिल करने का सुझाव दिया था. स्वाभाविक है कि रूस ने भारत को अलग-थलग रखने की कोशिश चीन और पाकिस्तान के कहने पर की थी. पाकिस्तान हमेशा से भारत को अफगानिस्तान से दूर रखने की फिराक में रहता रहा है.
गुट निरपेक्ष नीति में आज भी फंसा हुआ है भारत
महाशक्तियों से निपटने की भारत की नीति गुट निरपेक्षता की रही है. देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इसे निर्गुट आंदोलन का नाम दिया था . बीजेपी जिसे तब जनसंघ के नाम से जाना जाता था इस नीति का विरोधी था. कहा जा रहा है कि यूक्रेन संकट पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की नीति को फॉलो कर रहे हैं. हांलाकि हर कूटनीति का सबसे बड़ा उद्दैश्य देशहित होता है. विदेश नीति किसी भी देश की जनता या वहां की सरकार की भावनाओं से नहीं चलती है. पर किसी भी नीति से चलने से पहले यह जरूर देखना चाहिए पूर्व में उस नीति को अपनाने से कितने फायदे हुए हैं. अगर हम मूल्यांकन करेंगे तो यही पाएंगे कि द्विध्रुवीय विश्व में गुट निरपेक्ष कोई भी देश हो ही नहीं सकता. भारत पर भी शीतयुद्ध के दौर में सोवियत संघ के साथ होने का आरोप लगता रहा. यही कारण रहा कि वह दुनिया के दोनों ध्रुवों में किसी के भी इतना नजदीक नहीं हो सका जो भारत के गाढ़े वक्त में आंख मूंदकर उसका साथ दे सके. यूक्रेन संकट के समय भी भारत ने सुरक्षा परिषद में वोटिंग के समय बाहर होकर एक तरह से रूस के कृत्य को नैतिक समर्थन दे दिया. हो सकता है कि कूटनीतिक रूप से यह फैसला भारत को तात्कालिक लाभ का लगता हो पर ऐसे मौकों पर किए गए फैसले दूरगामी परिणाम वाले हो सकते हैं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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