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रूस और यूक्रेन द्विपक्षीय मामला है, ऐसी होनी चाहिए भारत की नीति
राजेश बादल
रूस ने जंग का ऐलान कर दिया है और यूक्रेन को या तो अब नाटो फौज़ बचा सकती है या ख़ुद रूस उसकी रक्षा कर सकता है। ठीक सौ बरस पहले सोवियत संघ अस्तित्व में आया था और तब से 1991 तक रूस तथा यूक्रेन संघीय ढांचे में दो अच्छे पड़ोसी प्रदेशों की तरह रहते रहे हैं। रूस और यूक्रेन को कभी जुड़वां देश माना जाता था। एक दूसरे का हमदम और दुख-सुख का साथी। लेकिन इन दिनों दोनों शत्रुवत व्यवहार कर रहे हैं।
सोवियत संघ बिखरा तो अलग हुए अनेक राज्य आपस में लड़ने लगे। जब कोई राज्य हारता तो वह रूस को अपनी पराजय का दोष देता। रूस की स्थिति विचित्र थी। वह दोनों पक्षों का साथ नहीं दे सकता था और लड़ने वाले दोनों देश रूस को अपनी पंचायत का सरपंच मानने को तैयार नहीं थे। भले ही रूस आकार और प्रभाव में उनसे बड़ा था ,लेकिन विघटित सोवियत संघ के वे देश यह भूलने के लिए तैयार नहीं थे कि कभी वे रूस की तरह समान अधिकारों वाले प्रदेश ही थे। इस तरह यह मामला कुछ कुछ ऐसा ही था, जो अतीत में कभी हिन्दुस्तान ,पाकिस्तान और बांग्लादेश का हुआ करता था।
यह सच है कि भारत ने कभी अपने से अलग हुए देशों पर दोबारा क़ब्ज़ा नहीं करना चाहा और जो विवाद इन देशों के साथ हैं ,वे आपस में मिल बैठकर सुलझाने पर ज़ोर दिया है। लेकिन कल्पना करिए कि भविष्य में यदि पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाला कश्मीर और बलूचिस्तान फैसला करें कि वे हिंदुस्तान में मिलना चाहते हैं या फिर स्वतंत्र रहना चाहते हैं तो भारत को उन्हें क्यों समर्थन नहीं देना चाहिए?
संभवतया इसी वजह से पुराना सोवियत संघ और आज का रूस कश्मीर विवाद को द्विपक्षीय मामला मानता है। वह हमेशा इस बात पर ज़ोर देता रहा है कि भारत और पाकिस्तान आपस में इस मामले को हल करें। यही नीति रूस और यूक्रेन के मामले में हिन्दुस्तान को भी अपनानी चाहिए?
अमेरिका की रणनीति और रूस-यूक्रेन
एक बारगी अमेरिका यूक्रेन को नाटो के साथ नहीं भी जोड़े तो उसका क्या बिगड़ता है। उसकी चौधराहट पर आंच आती है और सारी दुनिया में उसका रौब तनिक घटता है। इसके अलावा कोरोना काल में आर्थिक मंदी ,बेरोज़गारी,महँगाई और ठन्डे पड़े हथियार कारोबार को बढ़ाने के लिए उसे नए छोटे-छोटे देश चाहिए। इस कारण इन देशों का नाटो के बैनर तले आना अमेरिका ज़रूरी समझता है। रूस के यूक्रेन पर हमले के बाद वह कहता है कि हर देश को इसका विरोध करना चाहिए।
प्रश्न यह भी पूछा जा सकता है कि संसार के हर हिस्से में उसे दख़ल का हक़ किसने दिया? विश्व के किसी भी मुल्क़ में अपनी फौज भेजने से पहले वह किसी संगठन और राष्ट्र से मशविरा तक नहीं करता। यहां तक की संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी संस्था को वह अपनी जेबी संस्था समझता है।
अंतरराष्ट्रीय शक्ति संतुलन का तक़ाज़ा यह कहता है कि कोई देश इतना ताक़तवर भी नहीं होना चाहिए कि वह समूचे संसार पर अपनी दादागीरी करे। इस नज़रिए से एक समानांतर शक्ति केंद्र भी आवश्यक है। यह इसलिए भी ज़रूरी है कि शेष विश्व कठपुतली की तरह किसी मुल्क़ के इशारों पर नहीं नाचे।
भारत के लिए अपनी विदेश नीति निर्धारण में भारतीय हितों की चिंता सर्वोपरि रही है और होनी भी चाहिए। मगर हमने बीते दिनों कभी-कभी भारत की तराजू अमेरिका के पलड़े में झुकती हुई देखी है। दूसरी ओर अमेरिका को हमने सदैव एक कारोबारी नज़रिए से भारत के साथ रिश्ते रखने वाला देखा है।पचास साल तक वह पाकिस्तान को पालता -पोसता रहा।
सुरक्षा परिषद् में जब भी भारत को शामिल करने और वीटो अधिकार देने की बात उठी तो पाकिस्तान ,अमेरिका और चीन ने ही विरोध किया। जब आर्थिक उदारीकरण का दौर आया तो अमेरिका एक चतुर बनिए की तरह भारत के साथ व्यवहार करने लगा। भारत उसकी चौधराहट की चकाचौंध में ठगा सा दिखाई दिया।
भारत की स्थिति से समझना होगा हालात
अमेरिका ने भारत- पाकिस्तान की हर जंग में पाकिस्तान का साथ दिया और अपने हथियारों का बाज़ार भारत के इस पड़ोसी के लिए खोलकर रखा।आज भी उसके लिए भारत अपने व्यापारिक और कूटनीतिक हित साधने का एक ज़रिया है।
हमने देखा है कि जब हम अमेरिका के साथ रिश्तों का हनीमून मना रहे थे तो वह अफ़ग़ानिस्तान में हमें झटका दे रहा था और ईरान से संबंध तोड़ने पर ज़ोर दे रहा था। वह अपनी मंडी के माल को भारत में खपाना चाहता था और हथियार बाज़ार का बड़ा ख़रीददार बनाना चाहता था। इसीलिए जब भारत ने रूस के साथ मिसाइल सौदा किया तो उसने कड़ा विरोध किया। आज भी वह इस मुद्दे पर भारत के साथ नहीं है।
वह पाकिस्तान के साथ पींगें बढ़ा सकता है लेकिन भारत के मामले में सावधान रहता है। अमेरिका के मौजूदा राष्ट्रपति जो बाइडेन और उप राष्ट्रपति कमला हेरिस ( भले ही वे भारतीय मूल की हैं ) कश्मीर के मामले में भारत की नीति का समर्थन नहीं करते।
दूसरी तरफ रूस ने भारत की आज़ादी के बाद से ही उसके पुनर्निर्माण में कंधे से कन्धा मिलाकर साथ दिया है। आज सरपट भागती दुनिया में कोई देश या देशों का समूह वैचारिक आधार पर संबंधों का निर्धारण नहीं करता। अमेरिका लोकतांत्रिक है, पर पूंजीवादी सोच के चलते लोकतंत्र की अनेक मान्यताएं ताक में रख देता है।
चीन और रूस भी अब वामपंथी नहीं रहे। पाकिस्तान में चुनाव तो होते हैं लेकिन वहाँ सैनिक तानाशाही हमेशा हावी रही। तो जब कोई नैतिक आधार नहीं रहा तो गठबंधन भी विशुद्ध निजी हितों के आधार पर क्यों नहीं होना चाहिए।
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