सम्पादकीय

अदालती कांटे पर नियम

Subhi
8 Jan 2022 3:50 AM GMT
अदालती कांटे पर नियम
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आखिर कब तक हमारी व्यवस्था की आंख खोलने के लिए अदालती फरमानों का इंतजार रहेगा।

आखिर कब तक हमारी व्यवस्था की आंख खोलने के लिए अदालती फरमानों का इंतजार रहेगा। प्रदेश के प्रति कानूनी सरोकारों की कमजोरी, जब राजनीतिक ख्वाहिशों के पांव तले कुचली जाने लगे, तो अदालतों को बोलना पड़ता है। माननीय हाई कोर्ट के दो फैसलों को तवज्जो दी जाए, तो प्रदेश के प्रति ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ होने के सबूत पैदा होंगे। अपने एक फैसले में अदालत ने अवैध खनन को ढो रहे विकास की तरफ इशारा करते हुए यह पड़ताल करने के आदेश दिए हैं कि निर्माण स्थलों के मुहाने पर लगे रेत-बजरी के ढेर में तलाशा जाए कि ऐसी आपूर्ति का स्रोत क्या है। रेत-बजरी की आपूर्ति में ट्रांजिट पास की शर्त पर अमल सुनिश्चित हो तो सारी सप्लाई चेन में पारदर्शिता आएगी। भले ही अदालत के आदेश एक मामले के संदर्भ में सरकार से पूछ रहे हैं, लेकिन इसकी व्यापकता को समझते हुए कड़े कदमों की आशा की जा सकती है। प्रदेश में निर्माण सामग्री की बढ़ती मांग और विकास की बदलती शब्दावली ने अवैध खनन के कई चोर रास्ते बना दिए है। एक ओर उपभोक्ता सूची में आम आदमी की जरूरतों से रेत-बजरी की मांग बढ़ रही है, तो दूसरी ओर धंधे की् परतों के नीचे भ्रष्टाचार की सहमति से कानूनों के कई उल्लंघन हो रहे हैं, अतः खनन की जरूरतों को हल करते हुए व्यवस्था में सुधार वांछित है।

माननीय अदालत ने अपने एक अन्य महत्त्वपूर्ण फैसले में भी प्रदेश के राजनीतिक ढर्रे को कड़ा संदेश दिया है। यह निर्णय मल्टी टास्क भर्ती को लेकर है, जहां ऐसे नियम बने थे कि आठ हजार पदों की भर्ती का एक रास्ता मुख्यमंत्री के विशेषाधिकार की ताजपोशी कर रहा था। यानी स्कूलों में मल्टी टास्क भर्ती के लिए शर्तें इतनी कोमल व वफादार थीं कि कोई भी राजनीतिक पसंद से अपने लिए एक अदद पद सुनिश्चित करा सकता था। अदालत ने क्लॉज-18 के औचित्य को हटाते हुए सत्ता के तामझाम का शपथ पत्र ही बदल दिया है। सरकार अपने तौर पर मल्टी टास्क भर्ती के तहत विकलांग, अनाथ, विधवाओं, अत्यंत गरीब व परित्यक्त महिलाओं को पार्ट टाइम काम देकर न्याय देना चाहती है, लेकिन मुख्यमंत्री के विशेषाधिकार को लेकर आपत्तियां इतनी बढ़ गईं कि मामला नीति को पारदर्शी बनाने का बन गया। बहरहाल अब ये तमाम नियुक्तियां क्लॉज 7 के माध्यम यानी एक सुनिश्चित प्रक्रिया के तहत होंगी। आश्चर्य यह है कि हिमाचल में ऐसी नियुक्तियां हमेशा विसंगतियों का इतिहास बनकर सत्ता की सदाशयता को भी बदनाम करती हैं।
हिमाचल अपने आप में ऐसा कर्मचारी राज्य बन चुका है, जहां कमोबेश हर सरकार रोजगार के अवसर देते-देते ऐसी चूक करती रहीं, जो गाहे बगाहे कर्मचारी असंतोष बन जाती हैं। चाहे मिड डे मील वर्कर हो या पीस मील वर्कर, नौकरी में परिभाषित दायित्व तो दिखाई देता है, लेकिन देर सबेर कर्मचारियों के बीच समानता का अधिकार रेखांकित कर देता है। उदाहरण के लिए प्रदेश के अग्निशमन कर्मी कभी उसी हालात व पे पैकेज में थे, जहां पुलिस के जवान थे, लेकिन आज की स्थिति में यह वर्ग खुद को उपेक्षित व शोषित महसूस करता है। अभी हाल ही में जेसीसी बैठक में सरकार की उदारता का परचम भले ही राज्य की तिजोरी को भारी सेंध लगा गया, लेकिन संपूर्णता व समग्रता में कर्मचारियों के मसले हल नहीं हुए। यह पहली बार नहीं हुआ, हर सरकार करीने से अपने कर्मचारियों के हितों को सजा कर विद्रूप हो जाती है। इसका अर्थ समझते हुए सरकारी पैरवी में अधिक से अधिक कर्मचारी कॉडर बनाने के बजाय, चंद श्रेणियों में कर्मचारी हितों में समानता लाने का प्रयास करना होगा, लेकिन इसके लिए प्रत्यक्ष नियुक्ति प्रणाली व चयन पद्धति को तवज्जो देनी होगी। प्रदेश के केवल ढाई लाख सरकारी कर्मचारियों से नहीं चलता, बल्कि गैर सरकारी क्षेत्र के करीब पच्चीस लाख कर्मचारी, प्रोफेशनल, स्वरोजगार अर्जित क्षमता, व्यपारी व उद्योगपतियों से भी चलता है और इस तरह निजी क्षेत्र के रोजगार को अब अधिक प्राथमिकता देनी होगी।

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