सम्पादकीय

सहमा हुआ कानून का शासन, लखबीर के परिवार को न्याय दिलाने की मांग कर नहीं कर पा रहे बड़े नेता

Gulabi
20 Oct 2021 6:29 AM GMT
सहमा हुआ कानून का शासन, लखबीर के परिवार को न्याय दिलाने की मांग कर नहीं कर पा रहे बड़े नेता
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सहमा हुआ कानून का शासन

राजीव सचान। दिल्ली-हरियाणा सीमा पर दस माह से जारी कृषि कानून विरोधी आंदोलन के ठिकाने पर लखबीर सिंह को तालिबानी तरीके से तड़पा-तड़पा कर मारने वाले यह अपुष्ट और अस्वाभाविक सा आरोप लेकर सामने आए थे कि उसने गुरुग्रंथ साहब का निरादर किया था। इस आरोप के पक्ष में कोई प्रमाण नहीं था, फिर भी लखबीर सिंह के हत्यारों का महिमामंडन करने वालों पर कोई असर नहीं पड़ा। वे उन्हें फूल-मालाओं के साथ नोटों की माला पहनाते रहे। उनकी धमक-धमकी के चलते लखबीर का विधि-विधान से अंतिम संस्कार नहीं हो पाया। जब उसका अंतिम संस्कार हो रहा था तो किसी ने श्मशान घाट की लाइट बंद कर दी। बिना किसी प्रमाण धर्मग्रंथ की बेअदबी के आरोप को तूल देने और लखबीर सिंह की हत्या को जायज ठहराने वालों का ही यह असर है कि एक-दो नेताओं को छोड़कर अन्य बड़े नेता लखबीर के परिवार को न्याय दिलाने की मांग कर नहीं कर पा रहे हैं। लखबीर सिंह दलित था, लेकिन पंजाब के दलित मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी भी मौन साधे हैं। स्थिति यह है कि पंजाब के बसपा प्रमुख ने मायावती के उस ट्वीट को अपने फेसबुक से हटा दिया, जिसमें उन्होंने लखबीर के परिवार वालों को 50 लाख रुपया मुआवजा देने की मांग की थी।


कहना कठिन है कि लखबीर सिंह के हत्यारों को क्या सजा मिलेगी और कब मिलेगी, लेकिन उनका जैसा महिमामंडन हुआ, उसने पाकिस्तानी पंजाब के पूर्व गवर्नर सलमान तासीर को मारने वाले मुमताज कादरी की याद दिला दी। सलमान तासीर की सुरक्षा में तैनात रहने वाले पुलिस के सुरक्षा गार्ड कादरी ने 2011 में उनकी हत्या सिर्फ इसलिए कर दी थी, क्योंकि उन्होंने पाकिस्तान के बदनाम और अल्पसंख्यकों के लिए काल बने ईशनिंदा कानून में तब्दीली की जरूरत को लेकर एक बयान दे दिया था। इस बयान के कारण कट्टरपंथी संगठनों ने उन्हें ईशनिंदक करार दिया। सलमान तासीर को गोलियों से भूनने के बाद कादरी को जब अदालत ले जाया गया तो भीड़ ने उसे गाजी बताकर उसकी जय-जयकार की, वकीलों ने उस पर फूल फेंके।

आखिरकार 2016 में उसे फांसी की सजा हुई। उसके जनाजे में लाखों लोग शामिल हुए और उन्होंने उसे शहीद करार दिया। जिन्हें मौका मिला, उन्होंने उसके शव के साथ सेल्फी ली। बाद में उसकी कब्र को मजार में तब्दील कर दिया गया और अब वहां हर साल उसकी याद में उर्स होता है। कादरी के घर वालों के मुताबिक, उसे अपनी करतूत पर पछतावा नहीं था। उसने तासीर की हत्या को अपना मजहबी फर्ज बताया था। ऐसा ही कुछ लखबीर सिंह को मारने वाले कह रहे हैं। यह भी ध्यान रखें कि लखबीर के हत्यारों को तब गिरफ्तार किया जा सका, जब उन्होंने सरेंडर कर दिया। अभी उतने ही लोग गिरफ्तार हुए हैं, जिन्होंने खुद सरेंडर किया। क्या यह अराजकता और बर्बरता के सामने कानून के राज का समर्पण जैसा नहीं? ऐसा समर्पण पहली बार नहीं दिखा।

कृषि कानून विरोधी आंदोलनकारी बीते दस माह से दिल्ली के सीमांत इलाकों की सड़कों को घेरकर बैठे हैं, लेकिन कोई भी-न सरकार और न ही सुप्रीम कोर्ट उन्हें खाली कराने का साहस नहीं जुटा पा रहा है। लाखों लोग हर दिन परेशान हो रहे हैं, लेकिन उनकी कहीं कोई सुनवाई नहीं। शायद यही कारण है कि कृषि कानून विरोधी आंदोलन चलाने वाले कभी रेल रोकने के लिए सामने आ जाते हैं और कभी चक्का जाम करने। वे कुछ भी करें, उसके लिए उनके अलावा और सब और खासकर सरकार जिम्मेदार होती है। भारत की जनता ने न जाने कितनी बार खुद को असहाय पाया है, लेकिन यह शायद पहली बार है जब वह सरकार और सुप्रीम कोर्ट को भी निरुपाय देख रही है।

यह स्थिति केवल कानून के शासन की साख को मिट्टी में मिलाने वाली ही नहीं, लोकतंत्र पर जनता के भरोसे को डिगाने वाली और उसे निराश-हताश करने वाली भी है। कृषि कानून विरोधी आंदोलन लालकिले पर चढ़ाई के साथ हत्या, हिंसा, दुष्कर्म आदि की घटनाएं दिखा चुका है, लेकिन इस आंदोलन के नेताओं और विपक्षी दलों की मानें तो यह शांतिपूर्ण आंदोलन है। इस आंदोलन को गांधी, आंबेडकर के रास्ते पर चलते हुए भी बताया जाता है और न्याय, कानून और संविधान का पालन करने वाला भी। जो इससे सहमत न हो, वह या तो 'अन्नदाताओं' का अपमान करने वाला है या फिर सरकार अथवा पूंजीपतियों का एजेंट।

किसान नेताओं ने जिस तरह लखीमपुर खीरी की घटना को सरकार की साजिश करार दिया था, उसी तरह वे लखबीर सिंह के साथ हुई दरिंदगी को भी सरकारी साजिश बता रहे हैं। उन्होंने लखबीर की हत्या और उसके हत्यारों से उसी तरह पल्ला झाड़ लिया, जैसे लालकिले की घटना से, अपने आंदोलन में शामिल होने आई युवती से दुष्कर्म करने वालों से और एक युवक को जिंदा जलाने वालों से झाड़ा था। किसान नेताओं के पास ऐसे सवालों का न तो कोई जवाब है और न ही कोई उनसे पूछने वाला कि दिल्ली-हरियाणा सीमा पर हैवानियत वाली रात जब लखबीर को तड़पा-तड़पा कर मारा जा रहा और उसकी चीखें चारों तरफ गूंज रही थीं, तब ठीक उसी जगह मौजूद उनके आंदोलन के कथित न्यायप्रिय लोगों ने उसकी मदद क्यों नहीं की-पुलिस क्यों नहीं बुलाई? ऐसा कैसे हो सकता है कि उन्होंने न कुछ सुना, न देखा और न ही जाना? नि:संदेह सभी यह नहीं समझते कि नैतिक जिम्मेदारी क्या चीज होती है, लेकिन कोई तो किसान नेता ऐसा होता, जो लखबीर सिंह के परिवार को 50 लाख न सही, पांच लाख रुपया मुआवजा देने की मांग करता।


(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)
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