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नाग पंचमी के दिन पहलवानी के दांव-पेंच भी आजमाये जाते हैं. इस सिलसिले में चलिए कुछ नामी पहलवानों की चर्चा की जाए. यमुना-चंबल के बीहड़ों का रुख करें, तो यहां बहुत कुछ बदला है. ऐसे में जब जिलाजीत रहे लाल पहलवान से भेंट हुई, तो यादों के पिटारे से तमाम कहानियां कुछ यूं नुमाया होती गयीं.
जालौन, इटावा और भिंड जनपद की सीमा पर बसा है सुल्तानपुरा. गांव में दाखिल होते ही पुराने कच्चे मकान के ओसारे में एक बुजुर्ग अकेले बैठे हैं. नाम है शत्रुघ्न सिंह, उर्फ लाल पहलवान. अस्सी वर्षीय लाल पहलवान से बातचीत शुरू होते ही वे लंबी सांसें भर यादों की पोटली खोलते हैं. बचपन के दिनों को याद कर कहते हैं कि उन दिनों हर घर में पहलवान होते थे.
हम लोगों की यहीं अखाड़े में जोर-आजमाइश होती थी. आस-पास के कई साथी पहलवानों के नाम गिनाते हुए कहा कि ये अब इस दुनिया में नहीं रहे. जिनमें पान सिंह गुर्जर हमारे ही गांव के जिलाजीत पहलवान थे. फूल सिंह चौहान भी बिलौड़ के बड़े पहलवान माने जाते थे. बिलौड़ के ही रघुनाथ गुर्जर भी नामी पहलवान थे. पास ही इटावा जनपद का एक बीहड़ी गांव है सिंडौस.
यहीं के दंगल में पहली बार लाल पहलवान को बड़ा मंच मिला और उन्होंने जालौन जनपद के नामी पहलवान बड़े सिंह को चित कर दिया. देखते-देखते लाल पहलवान अपने दौर के जिलाजीत पहलवान बन गये. उनका आखिरी दंगल भिंड जनपद के गोहद में हुआ. पचास हजार से अधिक की भीड़ के सामने उन्होंने मुरैना जनपद के नामी पहलवान काशी प्रसाद को पटखनी दी. बात चली तो उन्होंने जिलाजीत दो पहलवान मित्रों का जिक्र भी किया.
पहला, औरैया के गंगदासपुर के भोला सिंह पहलवान का. भोला सिंह सुविख्यात पहलवान और राज्यमंत्री रहे, लेकिन उनका गांव गंगदासपुर सुर्खियों में रहा दस्यु सम्राट निर्भय सिंह गुर्जर के चलते. दूसरा, जालौन जनपद के चुर्खी के रहने वाले कृष्णा सिंह का. कृष्णा सिंह ने पहलवानी की बदौलत फोर्स में नौकरी भी की. बातचीत के बाद तय हुआ कि सुल्तानपुरा के बगल के आखिरी सांस गिन रहे अखाड़े को फिर से जीवित किया जाए. आजादी के हीरक वर्ष में मुकुंदीलाल गुप्ता की याद में बीती सर्दियों में 'चंबल दंगल' की योजना तो बनी, लेकिन कोविड के कारण धरातल पर न उतर सकी.
औरैया के मुकुंदीलाल को क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद ने 'भारतवीर' कहा था. मुकुंदीलाल आला दर्जे के पहलवान थे. एक दिन किसी ने उनकी भेंट गेंदालाल दीक्षित से करा दी, जो औरैया के डीएवी कॉलेज के प्रिंसिपल थे.
इसके बाद मुकुंदीलाल आजादी के आंदोलन में शरीक हो गये और गेंदालाल के खुफिया दस्ते में रामप्रसाद 'बिस्मिल' के साथ काम करने लगे. मुकुंदीलाल की मैनपुरी षडयंत्र केस में गिरफ्तारी हो गयी. जब वे जेल से रिहा हुए, तो बिस्मिल काकोरी ट्रेन डकैती का खाका बना चुके थे. अगस्त 9, 1925 की शाम सहारनपुर से आ रही आठ डाउन पैसेंजर गाड़ी की चेन खींच दस क्रांतिकारियों की टोली ने सरकारी खजाना हथिया लिया. काकोरी केस में मुकुंदीलाल को आजीवन कारावास की सजा मिली थी.
By शाह आलम राना
Gulabi Jagat
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