सम्पादकीय

रूबी खान के 'गणपति बप्पा'

Subhi
4 Sep 2022 1:40 AM GMT
रूबी खान के गणपति बप्पा
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अलीगढ़ में एक मुस्लिम महिला रूबी खान द्वारा गणेश पूजा किये जाने पर जिस तरह मुस्लिम मुल्ला ब्रिगेड बौखला रही है उससे जाहिर होता है कि इन लोगों के लिए भारत का महत्व मजहब के सामने कोई मायने नहीं रखता। यही वह नजरिया है जिसे मुहम्मद अली जिन्ना ने 1940 से लेकर 1947 तक पूरे हिन्दोस्तान में फैलाया था

आदित्य चोपड़ा: अलीगढ़ में एक मुस्लिम महिला रूबी खान द्वारा गणेश पूजा किये जाने पर जिस तरह मुस्लिम मुल्ला ब्रिगेड बौखला रही है उससे जाहिर होता है कि इन लोगों के लिए भारत का महत्व मजहब के सामने कोई मायने नहीं रखता। यही वह नजरिया है जिसे मुहम्मद अली जिन्ना ने 1940 से लेकर 1947 तक पूरे हिन्दोस्तान में फैलाया था और मुसलमानों के लिए अलग से पाकिस्तान का निर्माण कराने में सफलता हासिल की थी। भारत के मध्यकालीन इतिहास पर अगर नजर डाली जाये तो इस देश में इस्लाम धर्म के पदार्पण के साथ ही मुस्लिम मुल्ला-मौलवियों और उलेमाओं ने द्विराष्ट्रवाद के बीज बोने शुरू कर दिये थे और हिन्दू से मुस्लिम धर्म में परिवर्तित नागरिकों की निष्ठाएं भारत से बदल कर अरब देशों की मिट्टी की तरफ मोड़नी शुरू कर दी थीं। परन्तु भारतीय मूल के मुसलमानों के लिए यह आसान काम नहीं था क्योंकि भारत उनके पूर्वजों की धरती थी और इसकी संस्कृति से उनके तार बन्धे हुए थे। अतः इस्लाम धर्म अपनाने के बावजूद भारतीय मुसलमान भारतीय संस्कृति के उन मूल्यों से बन्धे रहे जो उन्हें अपने देश से जोड़े रखती थी। परन्तु मुगलकाल में काजियों और उलेमाओं ने शासन के माध्यम से भारतीय मुसलमानों को भारत की धरती से काटने के लिए ऐसे नियम चलाये जिससे भारत के मुसलमानों में भारत की स्थापित परंपराओं के प्रति नफरत पैदा हो और उनमें अरबी संस्कृति के प्रति सम्मोहन पैदा हो सके। इसका एकमात्र प्रतिकार करने वाला मुगल बादशाह अकबर था जिसने हिन्दू व मुसलमानों के बीच सामाजिक सौहार्द स्थापित करने के लिए शासकीय स्तर पर ही कुछ प्रभावकारी कदम उठाये और पृथक धर्म दीने-इलाही भी चलाया। मगर इसका जबर्दस्त विरोध मुस्लिम उलेमाओं व काजियों द्वारा किया गया और कालान्तर में जहांगीर का शासन आते ही इस तरह किया गया कि मुस्लिम मजहब के मानने वालों का हिन्दुओं के साथ दीन के मामले में सीधे द्वेष सामाजिक स्तर पर ही प्रखर बना रहे। शासन के काम में मुस्लिम काजियों व उलेमाओं का हस्तक्षेप जहांगीर के बाद शाहजहां के शासनकाल में जबर्दस्त तरीके से बढ़ चुका था। इस दौरान मुस्लिम काजियों ने हिन्दू – मुस्लिम सौहार्द के सभी निशानों को मिटाने का अभियान चलाया और दोनों समुदायों के बीच बढती भाईचारगी को खत्म करने के लिए वे सभी कदम उठाये जो मुसलमानों को भारत से घरती काटने के ​िलए जरूरी समझे गये। मसलन 1633 में शाहजहां ने फरमान जारी किया कि अकबर व जहांगीर काल के दौरान बनाये गये सभी हिन्दू मन्दिरों को तोड़ दिया जाये जिनमें कांशी के ही 76 मन्दिर शामिल थे। इसके साथ ही शाहजहां ने शाही हुक्म जारी किया कि हिन्दू व मुस्लिमों के बीच होने वाली शादियों पर रोक लगे। इससे यह साबित होता है कि अकबर व जहांगीर के शासनकाल में हिन्दू व मुस्लिमों के बीच अन्तरधार्मिक विवाहों का प्रचलन था जिससे मुस्लिम उलेमाओं व काजियों में दहशत हो रही थी और उन्हें इस्लाम खतरे में नजर आ रहा था। क्योंकि अन्तरधार्मिक विवाहों की वजह से मुस्लिम समाज में मुल्ला-मौलवियों और काजियों व उलेमाओं की हैसियत हांशिये पर खिसक रही थी। मौलवी और मुल्ला बहुत अच्छी तरह से जानते थे कि यदि भारत के मुसलमानों में धार्मिक उदारता घर कर जाती है तो उनकी सामाजिक व शासकीय हैसियत रसातल में जाने के साथ ही भारतीय मुसलमानों की रवायतें हिन्दोस्तानी रंग में रंग जायेगी। हालांकि इसे मुल्ला-मौलवी रोक नहीं पाये क्योंकि आज भी पंजाबी मुसलमानों की रवायते पंजाबी संस्कृति की हैं और बंगाली मुसलमानों की रवायते बांग्ला संस्कृति की है परन्तु दिल्ली के व अवध के आसपास के भारतीय मुसलमानों को कट्टर बनाने में सफलता प्राप्त की जिसकी वजह से पाकिस्तान निर्माण में सबसे अधिक वैचारिक योगदान इन्ही इलाके के मुसलमानों का रहा।मुल्ला मौलवियों का मध्यकाल से लेकर अभी तक यह इस्लामी जेहादी रवैया बदस्तूर जारी है वरना हिन्दोस्तान तो वह मुल्क है कि यहां के हिन्दुओं के कोटि देवताओं के साथ ही पैगम्बर हजरत मोहम्मद साहब को भी ऊंचे से ऊंचा स्थान दिया जाने लगता क्योंकि जिस देश में आज भी मुसलमान सांई बाबा की पूजा होती हो वहां के लोगों की संस्कृति की विशालता और उदारता को भली-भांति समझा जा सकता है। हिन्दू मतावलम्बी मानव सेवा और इंसानियत की खिदमत करने वाली हर पुण्यात्मा को देवत्व से कम नहीं नवाजती है। परन्तु मुस्लिम कट्टरपंथियों ने शुरू से ही अपनी धार्मिक श्रेष्ठता स्थापित करने के चक्कर में भारतीय मान्यताओं को इस्लाम के विरुद्ध बता कर उन्हें अल्लाह के ही खिलाफ बता दिया और आज तक यह नहीं बताया कि इस्लाम के अनुसार ही धरती पर आये सवा लाख पैगम्बर कौन-कौन से हैं। इसलिए अलीगढ़ की रूबी खान ने केवल अपने हिन्दोस्तानी मुसलमान होने का सबूत दिया है और इस भारत की मिट्टी को अपने माथे से लगाया है। भारत के 98 प्रतिशत मुसलमान हिन्दुओं की ही औलादे हैं मगर बहुत ही करीने से मुस्लिम कट्टरपंथियों ने इनके नायक उन मुस्लिम हमलावरों को बनाया जिन्होंने इन्ही के पूर्वजों पर जुल्म ढहाये और इन्हें हिन्दू से मुसलमान बना। किसी भी भारतीय मुसलमान का नायक महमूद गजनवी या तैमूरलंग अथवा खिलजी या औरंगजेब कैसे हो सकता है जबकि उसके पूर्वजों ने इन्ही के खिलाफ युद्ध लड़ा हो। मगर सिर्फ मजहब का वास्ता देकर इन्ही लोगों को भारत की संस्कृति से तोड़ने की साजिशें बदस्तूर जारी हैं। आजाद हिन्दोस्तान में कोई भी मजहबी फतवा ऐसा कागज का टुकड़ा है जिसके कोई मायने नहीं हैं क्योंकि मजहब किसी भी शहरी का अपना निजी मामला है। इसलिए भारतीय संस्कृति के हर उत्सव में हर हिन्दू-मुसलमान को शरीक होने का हक बशर्ते इसके पीछे कोई धार्मिक दुर्भावना जैसे लव जेहाद या धर्मान्तरण का उद्देश्य न हो। संपादकीय :बेटियों पर बढ़ते अत्याचार...इसका हलविकास रथ पर सवार भारतआईएमएफ श्रीलंका और भारतविपक्षी एकता की 'कुर्सी दौड़'तेज रफ्तार अर्थव्यवस्थापंजाब में धर्म परिवर्तन का शोर

न्यूज़ क्रेडिट; punjabkesari

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