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- भ्रष्टाचार का मलबा
सदानंद शाही: नोएडा में जुड़वां मीनारें गिराए जाने के बाद तरह-तरह की बहसों का बाजार गर्म है। कुछ लोग इसे न्यायिक प्रक्रिया का परिणाम नहीं, बल्कि किसी खास तरह की मर्दानगी का खेल बता रहे हैं। कुछ लोग इसे भ्रष्टाचार पर वार मानते हैं, तो कुछ लोग इसे अहंकार के सर्वोच्च शिखर का ढहना। बहसें यह भी हो रही हैं कि भारत जैसे देश में जहां गरीबी अभी तक भूतपूर्व नहीं हुई है, बल्कि अभूतपूर्व बनी हुई है, वहां दो सौ करोड़ की लागत से बनी इमारत को बीस करोड़ रुपए और खर्च करके ढहा देना कहां तक उचित है।
ढहाने के बजाय इसे अस्पताल, पुस्तकालय, धर्मशाला, छात्रावास जैसी जन-सुविधाओं के रूप में विकसित कर देना चाहिए था। कुछ लोग वृद्धाश्रम से लेकर बेसहारा मरीजों और मजदूरों को सहारा देने के लिए भी सुझाव दिए जा रहे हैं। दबी जुबान से कुछ लोग यह भी कह रहे हैं कि 'लेखक घर' भी बनाया जा सकता था। दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में आवास के लिए भटकते-जूझते रहने वाले लेखकों की संख्या को देखते हुए यह विचार भी बुरा नहीं था, सिवाय इसके कि कुछ लोग समाज में लेखकों की जरूरत क्या है, जैसा बुनियादी सवाल उठा कर मुद्दे को विवादास्पद बना सकते थे।
इसलिए विवादास्पद होने की संभावना से बचना भी समझदारी का दूसरा नाम है। होशियार लोगों का मानना है, और सही मानना है कि जिस इमारत का अब वजूद ही नहीं है, उसे लेकर खयाली पुलाव पकाने से दिमाग ही पकेगा, पुलाव नहीं। इसलिए खयाली पुलाव छोड़ कर असली पुलाव यानी अस्सी हजार टन मलबे के निस्तारण की चिंता करनी चाहिए। कुछ लोग इसी चिंता में मशगूल हैं। कुछ लोग पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभाव का लेखा-जोखा करने में लगे हुए हैं। बात बाजिब है। अड़तीस सौ किलो विस्फोटक के उपयोग से पर्यावरण पर कुछ न कुछ प्रतिकूल प्रभाव तो पड़ेगा ही। इस तरह हरि अनंत हरि कथा अनंता की तर्ज पर बहुतेरी बातें चल रही हैं।
जैसे ही हम मलबे पर ध्यान केंद्रित करते हैं, पहली बात जेहन में आती है कि मलबे का मालिक कौन है? मलबे की नवैयत क्या है? और सबसे बढ़ कर मलबे का निस्तारण कैसे हो, निस्तारण में क्या-क्या समस्याएं या चुनौतियां मुकाबिल हैं। जहां तक मलबे की नवैयत का सवाल है, इसे तय करना कोई मुश्किल काम नहीं है। अगर टावर भ्रष्टाचार का था, तो मलबा भी भ्रष्टाचार का ही होगा। दिक्कत बस इतनी है कि भ्रष्टाचार भले अमूर्त अवधारणा हो, उसका मलबा मूर्त और ठोस है। सीमेंट, छड़, बालू, लोहा-लक्कड़ सब उसमें मौजूद है।
इसलिए उसके मालिकाना हक का सवाल उठना लाजमी है। हालांकि अभी तक इस पर किसी ने मालिकाना हक ठोका नहीं है। इसी उधेड़बुन में सहसा कहानी 'मलबे का मालिक' याद आ गई। गनी (कहानी का प्रमुख पात्र) के नए बने घर पर रक्खे पहलवान की नजर थी। दंगे और अफरातफरी का फायदा उठा कर रक्खे पहलवान ने गनी के बेटे चिराग और उसके पूरे परिवार की हत्या कर दी।
वह मकान पर काबिज होता तब तक किसी ने मकान में आग लगा दी। देखते-देखते नया बना मकान मलबे में बदल गया। अब रक्खे पहलवान मलबे का मालिक बन बैठा। उसके होते मलबे की ओर कोई देख भी नहीं सकता था। हालांकि इस पर जनता की राय कुछ अलग ही थी- 'बड़ा मलबे का मालिक बनता था! असल में मलबा न इसका है, न गनी का, मलबा तो सरकार की मिल्कियत है।' लेकिन सरकार के पास और भी बहुत-से काम थे।
वह मलबे पर दावा ठोंकने क्यों जाती? लेकिन रक्खे पहलवान को चुनौती दी मुहल्ले के एक कुत्ते ने। वह मलबे पर जाकर बैठ गया। वहां कुत्ते को काबिज देख कर रक्खे पहलवान आग बबूला हो गया। 'पहलवान ने एक ढेला उठा कर कुत्ते की ओर फेंका, कुत्ता थोड़ा पीछे हट गया, पर उसका भौंकना बंद नहीं हुआ। पहलवान मुंह ही मुंह में कुत्ते को गाली देकर वहां से उठ खड़ा हुआ और धीरे-धीरे जाकर कुएं की सिल पर लेट गया। पहलवान के वहां से हटने पर कुत्ता गली में उतर आया और कुएं की ओर मुंह करके भौंकने लगा। काफी देर भौंक कर जब गली में उसे कोई प्राणी चलता-फिरता दिखाई नहीं दिया, तो वह एक बार कान झटक कर मलबे पर लौट आया और वहां कोने में बैठकर गुर्राने लगा।'
अभी तक यह पता नहीं चला है कि भ्रष्टाचार के मलबे पर किसी कुत्ते ने दावा ठोंका है या नहीं, लेकिन यह बात आईने की तरह साफ है कि मलबा चाहे विकास का हो, चाहे भ्रष्टाचार का, मलबा हमारी आधुनिक सभ्यता का अनिवार्य अंग है। जिस किसी महानगर में जाएं आपको मलबे का पहाड़ दिख जाएगा। छानबीन न भी करें तो यह बात समझ में आती है कि मलबे का कुछ हिस्सा सीधे विकास के रास्ते आया है, तो कुछ भ्रष्टाचार के रास्ते होते हुए यहां तक की यात्रा पूरी की है।हम तरह-तरह की अवधारणाओं में जीते हैं, उनके लिए जान दिए रहते हैं, लेकिन यह साधारण-सी बात नहीं जानते कि अवधारणा चाहे जितनी अमूर्त हो, उसका मलबा ठोस और मूर्त होता है। मलबा विकास का हो चाहे भ्रष्टाचार का, उसका निस्तारण सभ्यतागत चुनौती है।