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भगवान श्रीकृष्ण को यूं ही योगी नहीं कहा जाता
भगवान श्रीकृष्ण को यूं ही योगी नहीं कहा जाता। भले ही उन्हें भगवान का अवतार माना जाता है, लेकिन ब्रह्मा द्वारा सृष्टि रचे जाने के बाद मानव योनि में वही पहले आदमी थे, जिन्होंने लोगों को शास्त्रसम्मत तरी़के से नवनीत (मक्खन) मलना या लगाना सिखाया था। इसका अर्थ हुआ कि नवनीत मलने या लगाने की कला सीखने के लिए आदमी को द्वापर तक इंतज़ार करना पड़ा। पहले दो युगों में आदमी क्या करता होगा? सोचने वाली बात है। रही बात श्रीकृष्ण की तो शायद उन्हें स्थितप्रज्ञ या समदृष्टा इसीलिए कहा जाता है कि उन्होंने बिना किसी भेदभाव के गोपियों का नवनीत खाया भी और मला भी, किंतु अपने मुंह पर। द्वापर में मक्खन मलना मात्र खेलने तक सीमित था। अब तो घोर कलियुग है। हर नौनिहाल अभिमन्यु की तरह पेट में ही मक्खन मलने या लगाने की कला सीख कर सिद्धहस्त पैदा होता है। कारण स्पष्ट है कि आधुनिक युग के चक्रव्यूह बेधने के लिए आम आदमी को अर्जुन होना पड़ता है। ऐसे में अगर कोई बाप अपने बेटे को नवनीत मलने या लगाने की कला नहीं सिखाता है तो भी वह अपने आप ही इस कला में निपुण हो जाता है।
जो नहीं सीखता, उसे समाज घृणा सहित नवनीत से बाल की तरह निकाल कर दूर फैंक देता है। लेकिन द्वापर के श्रीकृष्ण और आज के आम आदमी में एक बड़ा अंतर है। अक्सर मक्खन से काम निकालने वाले श्रीकृष्ण आवश्यकता पडऩे पर सुदर्शन भी उठा लेते थे। बेचारा आम आदमी तो सुदर्शनरहित है। इसीलिए उसे हर व़क्त हाथों में मक्खन लिए तैयार रहना पड़ता है। क्योंकि बतोले बाबा की सरकार स्वचालित हथियार रखने के लिए आवश्यक लाइसेंस की ़फीस हर साल बढ़ाती जा रही है। लेकिन हां, श्रीकृष्ण का समदृष्टि या स्थितप्रज्ञता का ़फार्मूला उसके बड़े काम आ रहा है। वह कहीं भी छोटे-बड़े आदमी या काम में भेद नहीं करता। अर्जुन की आंख की तरह उसकी आंख भी अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए मले जाने वाले नवनीत पर टिकी रहती है। मौ़का मिलते ही सामने वाले को इतनी स़फाई से मक्खन मलता है कि आसपास वालों को पता ही नहीं चलता। हां, जिसे मक्खन मला जाता है, उसे पता होता है कि उसे कितना मक्खन मला गया है और कितना बा़की है। अगर लगाने वाला फंसा हो तो लगवाने वाला अपनी इच्छानुसार या मज़े के लिए ज़्यादा मक्खन लगवा लेता है।
स्थितप्रज्ञता के पहले भाग की तरह दूसरा भाग भी महत्वपूर्ण है, जिसमें छोटे-बड़े आदमी या काम के अलावा यह भी ज्ञान होना चाहिए कि कितना मक्खन मला जाना है। रत्ती, तोला, माशा, पाऊंड, सेर, किलो या पसेरी। कई बार ज़रूरत से ज़्यादा मक्खन मलने पर चिकनाई घनी होने से, जिसे नवनीत मला जाता है, हाथ से निकल जाता है। क्या पता लगवाने वाले का मूड कैसा हो? हो सकता है वह लगने वाले मक्खन को दुनिया से छिपाना चाहता हो। इसीलिए सफल स्थितप्रज्ञ या समदृष्टा मक्खनमार वही है जो भेदभाव रहित हो, लेकिन जिसे सही मात्रा का पूर्ण ज्ञान हो। ज़रूरी नहीं कि जिसे मक्खन लगाना है, वह बड़ी तोप ही हो। कई बार ज़ंग लगी तलवारों को भी चिकना करना पड़ता है। ज़माना इतना ़फास्ट है कि एक बार चूकने पर आदमी मीलों पीछे छूट जाता है। अब बेचारा मक्खन तो मक्खन है, जहां भी लगेगा, स्निग्धता उत्पन्न करेगा। लेकिन स्थितप्रज्ञ केवल कुरसी पर नज़र रखता है, बैठने वाले पर नहीं। इसीलिए कुरसी पर बैठने वाले अक्सर शिकायत करते पाए जाते हैं कि जब तक पॉवर में थे, बड़ी तूती बोलती थी। कुरसी खिसकते ही लोगों ने नज़रें फेर लीं। अब बेचारे करें भी क्या? जब तक सत्ता थी, लोग अपने बाप से ज़्यादा सेवा उनके कुत्ते की करते थे। लेकिन नवनीत का शाश्वत सत्य यही है कि लगाने वाला केवल अपने उद्देश्य प्राप्ति पर आंख रखता है। सत्ताएं आती-जाती रहती हैं, लेकिन मक्खन सदैव बना रहता है।
पी. ए. सिद्धार्थ
लेखक ऋषिकेश से हैं
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