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चुनाव के चौबारे और चुनाव के चौगान निरंकुश हैं या कांग्रेस के इम्तिहान ने अपने दरवाजे बंद कर रखे हैं। यह इसलिए कि हिमाचल में भाजपा अगर लय में है, तो सरकार अपने रंग में दिखाई दे रही है। ऐसे में प्रेदश कांग्रेस की अध्यक्ष एवं सांसद प्रतिभा सिंह द्वारा शीघ्र अति शीघ्र आचार संहिता लगाने की मांग का मंच अगर सीधे-सीधे कह पाता है, तो इसका उत्तर मिल सकता है, वरना नैतिकता का न कोई आधार बचा है और न ही समर्थन। पिछले कुछ चुनावों से हिमाचल की राजनीतिक ख्वाहिशें, प्रदर्शन, लक्ष्य और दर्शन बदले हैं। राजनीतिक गणित ने प्रदेश की आत्मनिर्भरता के सारे सवाल कहीं बहुत पीछे छोड़ दिए हैं और हर चुनाव अपने भीतर के सत्ता सुख से मुखातिब रहता है। सत्ता सरेआम अपनों के बीच का बंटवारा है, यही वजह है कि सभी सरकारें अपने अंतिम चरण तक इसी प्रयास में रही हैं ताकि महसूस होता रहे कि उदारता की विशालता क्या है। यही उदारता वर्तमान चुनाव को किसी गणितज्ञ के मानिंद नफे-नुकसान में आंक रही है। इस लिहाज से भाजपा और भाजपा सरकार का अपना एक ऐसा गठबंधन बना है और सारे घटनाक्रम के चयनित शिलालेख लिखे जा रहे हैं।
जाहिर है इसके मुकाबले कांग्रेस अपनी ही पड़ताल में मशरूफ है। यह दीगर है कि वर्तमान में चुनावी कसरतों की परछाईं लंबी और गहरी होती जा रही है, जिसके एक फलक पर सरकार के आचरण की नेमतें भरी रहती हैं तो दूसरी ओर विपक्ष की सर्कस में नए करतब दिखाने की उम्मीदें भरी रहती हैं। बहरहाल सरकारी पक्ष का महिमामंडन विपक्षी आलोचना का आटा गीला कर रहा है, लेकिन नई घोषणाओं के आलोक में हिमाचल का मूड और चुनाव का मौसम कितना बदलेगा, कोई नहीं जानता। देरी से ही सही कांग्रेस की अध्यक्ष ने आचार संहिता लागू करने की मांग उठाकर एक संवैधानिक प्रश्र उठाया है। यह प्रश्र स्वाभाविक होते हुए भी सत्ता की आंखों से सुरमा नहीं चुरा पा रहा है, तो इस महफिल में हिमाचल की परंपराएं और जनापेक्षाओं की नित नई सौदेबाजी दिखाई देती है। विशुद्ध रूप से प्रदेश हर बार चुनाव की बैसाखी पहनकर जितना दौडऩा चाहता है, उतनी ही तीव्रता से राजनीतिक आचरण गिर रहा है। चुनाव के हर शपथपत्र में नत्थी जीत का आलम दरअसल एक ऐसा भ्रम बन चुका है, जहां जनता भी सरकारों की निरंतरता भूल कर चुनाव से ही भीख मांग रही है।
चाहे कर्मचारी मसले हों या विकास की पैमाइश, अंतिम सफर पर पहुंची कमोबेश हर सरकार ने ज्यादा से ज्यादा मीठी गोलियां सदैव बांटी हैं। उसूलन सत्ता के अंतिम पड़ाव में यह छूट नहीं होनी चाहिए कि सरकारी खजाने की कोई जवाबदेही ही न रहे, लेकिन यह मसला राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में चुनाव सुधार का एक बड़ा संकल्प हो सकता है। हिमाचल के अपने कई मसले हैं जिनके ऊपर नीतिगत फैसले कभी नहीं होते, अलबत्ता हर सरकार ऐसे फैसलों से किनारा करती है जो जनता को अनुशासित कर सकें। मसलन आज तक किसी सरकार ने आदर्श ट्रांसफर पालिसी बनाने का कोई जोखिम नहीं उठाया और न ही अतिक्रमण के मामलों में कानूनों का सख्त पालन किया। आश्चर्य यह कि हर बार चुनाव के दौरान टीसीपी कानून के दायरे समेट कर कई ग्रामीण क्षेत्रों को इससे बाहर निकाल दिया जाता है। अब तो हर चुनाव एक तरह से सरकारी बांट का प्रदर्शन है और राज्य की लागत में मिशन रिपीट का सबसे बड़ा दांव भी यही है कि सरकार नजराना भेंट करे। इसलिए चुनाव के आखेट में सत्ता की हाजिरी अब अंतिम दौर की रेवडिय़ां हैं और इस प्रदर्शन के समर्थन में भीड़ की तालियां और चुनाव के तलवे चाटती फरमाइशे हैं, तो आचार संहिता के पक्ष में कौन आएगा।
By: divyahimachal
Rani Sahu
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