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Written by जनसत्ता; हर महीने दुनियाभर में लाखों महिलाओं को माहवारी आने पर पेट दर्द, बेचैनी, शर्म, चिंता और दयनीय चक्र का सामना करना पड़ता है। आम जनजीवन में यह हमेशा उन वर्जनाओं और मिथकों से घिरा रहा है जो महिलाओं को सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन के कई पहलुओं से बाहर करता है। भारत में आमतौर पर इस विषय पर बात करना सहज नहीं माना जाता है।
आज भी इस विषय पर ज्ञान की उन्नति के लिए सामाजिक प्रभाव एक बाधा प्रतीत होता है। भारत के कई हिस्सों में सांस्कृतिक रूप से माहवारी को गंदा और अशुद्ध माना जाता है। इस दौर से गुजरती महिलाओं और लड़कियों को कई तरह के काम, रसोईघर और मंदिरों से दूर रखा जाता है। माहवारी के असुरक्षित हालात कई बार महिलाओं को गर्भाशय के कैंसर की ओर धकेल देते हैं।
देश में आज भी कुछ ऐसे इलाके हैं, जहां पर मासिक धर्म वाली महिलाओं को नहाने की अनुमति नहीं होती। जबकि यह गलत है। यों यह मिथक बहुत पुराना है, जो हमारे यहां की कथाओं के जरिए जड़ पकड़ता रहा। जड़ धारणाओं ने इस प्राकृतिक चक्र को महिलाओं के लिए एक तकलीफदेह दौर बना दिया है। जबकि इससे संबंधित जितने भी तथ्य सामने आ चुके हैं, उसकी सामान्य जानकारी भी महिलाओं के प्रति धारणा को बदल दे सकता है। लेकिन समाज में पसरी कुंठित और स्त्री विरोधी सोच ने अमूमन हर बहाने से महिलाओं को कैद करके रखने का इंतजाम किया है। हालांकि महिलाओं की इस स्थिति का खमियाजा समाज को ही भुगतना पड़ा है, जिसमें उसका कोई विकास का चेहरा आईने में आधा-अधूरा दिखता है।
शेयर बाजार की उठापटक से आज हर कोई असमंजस में है। अल्पकाल में ही ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाने का लालच, निवेशकों को जोखिम लेने के लिए उत्साहित कर रहा है। दुनिया भर में आर्थिक मंदी के चलते स्थिति खराब है। भारतीय बाजार भी इससे अछूता नहीं रहा। सेंसेक्स व निफ्टी दोनों सूचकांक नीचे हैं। निवेशकों को समझना होगा कि अच्छे मुनाफे की लिए दीर्घकालीन निवेश ही बेहतर विकल्प है। अनेक टीवी चैनलों पर निवेश के नुस्खे दिए जा रहे हैं, जिनमें से ज्यादातर कोरी कल्पना पर आधारित होते हैं। निवेशकों को अपनी सूझबूझ पर भरोसा करना चाहिए, जिससे बड़े नुकसान से बचा जा सके।