सम्पादकीय

जिम्मेदार नागरिक की भूमिका

Rani Sahu
29 July 2022 5:52 PM GMT
जिम्मेदार नागरिक की भूमिका
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क्या भारत की मौजूदा सरकार तानाशाही की तरफ बढ़ रही है? इस सवाल का जवाब राजनीतिक दल अपनी-अपनी सुविधा से देंगे और जनता भी अपनी-अपनी दलीय निष्ठा के हिसाब से देगी

by Lagatar News

AsitNath Tiwari
क्या भारत की मौजूदा सरकार तानाशाही की तरफ बढ़ रही है? इस सवाल का जवाब राजनीतिक दल अपनी-अपनी सुविधा से देंगे और जनता भी अपनी-अपनी दलीय निष्ठा के हिसाब से देगी. आजादी के बाद ऐसा पहली बार दिख रहा है. जब देश की आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा देश के नागरिक के तौर पर नहीं, बल्कि राजनीतिक विचारधारा के पोषक के तौर पर बात करने लगा है और ऐसे में राजनीतिक प्रश्नों के जिम्मेदार और सटीक जवाब की संभावना लगभग न के बराबर हो गई है. एक समय था, जब जनता की अभिव्यक्ति में देशकाल झलकता था. अब तो जनता की हर अभिव्यक्ति में राजनीति का छल अपनी जगह बना चुका है. फिर भी अगर आने वाली पीढ़ी को जवाब देना है तो निश्चित तौर पर हमें एक जिम्मेदार नागरिक की भूमिका को बचाए रखना होगा.
इस लेख की शुरुआत में पूछे गए प्रश्न का जवाब तलाशते समय हमें बहुत सावधानी बरतने की जरूरत है. हम न तो सिरे से सवाल को खारिज कर सकते हैं और न ही एक झटके में सरकार को तानाशाह कह सकते हैं, लेकिन हमें अपनी पीढ़ी को यह जरूर बताना होगा कि अगर ऐसी कोई कोशिश होती है तो फिर देश के जिम्मेदार नागरिक की क्या भूमिका होनी चाहिए. इस दिशा में हमें सबसे पहले लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करने वाले उन नेताओं की सूची बनानी होगी, जिन्होंने भारत के लोकतंत्र को मजबूत करने की दिशा में ठोस प्रयास किए.
भारत के तीन सर्वश्रेष्ठ राजनेताओं का चयन करना हो तो किसी के सामने ये बहुत बड़ी चुनौती होगी. फिर भी गुण-दोषों के आधार पर आप किसी नतीजे पर जरूर पहुच जाएंगे. भारत में औपचारिक तौर पर लोकतांत्रिक राजनीति की शुरुआत महात्मा गांधी ने की थी. उससे पहले बाल गंगाधर तिलक लोकतांत्रिक राजनीति की जमीन जरूर तैयार कर रहे थे, लेकिन उनकी तमाम कोशिशें नेताओं को ही तैयार कर पाई, राजनीति में बड़े पैमाने पर आम आदमी की भागीदारी सुनिश्चित नहीं कर पाई.
1916 में दक्षिण अफ्रिका के जन आंदोलन को दिशा देकर महात्मा गांधी भारत लौटे. भारत लौटते ही महात्मा गांधी ने पहला जो काम किया वह था, जनमानस को लोकतंत्र के लिए तैयार करना. इसके लिए वो बाजाप्ता अखबार निकालते थे, चिट्ठियां और लेख लिखा करते थे. जानते थे कि अंग्रेज परस्त अखबार भारत में लोकतंत्र की बात नहीं करेंगे. इसलिए महात्मा गांधी ने सबसे पहला हथियार सूचना और जन संपर्क को बनाया.
महात्मा गांधी ने जो दूसरा बड़ा काम किया, वह था बड़े पैमाने पर लोगों को अपने विचारों के साथ जोड़ना. महात्मा गांधी से पहले की कांग्रेस राजनेताओं की बड़ी टोली तो थी, लेकिन उसके पास आम लोगों की ताकत नहीं थी. 1917 में बिहार के चंपारण पहुंचे महात्मा गांधी ने पहली बार कांग्रेस और राष्ट्रीय आंदोलन के साथ आम लोगों को जोड़ा. छोटी-छोटी सभाएं, गांव-टोलों के किसानों-मजदूरों के साथ बैठकें और फिर वकीलों, डॉक्टरों, जमींदारों और पढ़े-लिखे नवजवानों के साथ उनके सीधे संपर्क ने भारत को पहली बार जन आंदोलन का तरीका सिखाया. आज भारत जो कुछ भी है, उसमें जन आंदोलनों की बड़ी भूमिका है. हम महात्मा गांधी को सिर्फ आजादी की लड़ाई तक सीमित कर के नहीं देख सकते. छुआछूत, स्वच्छता, अहिंसा, कुटीर उद्योंगों के तहत रोजगार, शिक्षा जैसे क्षेत्र में उनके काम उनके नजरिए को स्पष्ट करते हैं.
आजादी के बाद भारत के पास संघर्षों में तपे, आदर्शों में ढले राजनेताओं की बड़ी फौज थी. डॉ. राजेंद्र प्रसाद, डॉ. भीम राव अंबेडकर, जवाहर लाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल और लाल बहादुर शास्त्री, राममनोहर लोहिया जैसे बड़े कद के नेता देश में मौजूद थे. लेकिन उस वक्त देश को एक ऐसे नेता की जरूरत थी, जिसकी अंतरराष्ट्रीय राजनीति में मजबूत दखल हो. एक ऐसे नेता की जरूरत थी, जिसकी तरफ दुनिया देखती हो और जिसकी बातों को गंभीरता से लेती हो. इस मामले में तब जवाहर लाल नेहरू का कद सबसे बड़ा था. नेहरू ने फैबियन समाजवाद और आयरिश राष्ट्रवाद का अध्ययन किया था. नेहरू ने विकास कर ढांचा खड़ा किया, वही आज भी भारत के विकास का बुनियाद बने हुए हैं.
भारत के तीसरे सर्वश्रेष्ठ राजनेता के चयन में भी बहुत सारी चुनौतियां हैं. जय प्रकाश नारायण सिर्फ बड़े स्वतंत्रता सेनानी ही नहीं थे, बल्कि आजादी के बाद आम लोगों की स्वतंत्रता के बड़े रक्षक भी साबित हुए. इस सच से कोई इनकार नहीं कर सकता कि आजादी के बाद नेहरू काल से ही शासक वर्ग सुविधाभोगी होने लगा था. इतना ही नहीं, शासक वर्ग खुद को ऊंचे दर्जे का भी समझने लगा था. नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री खुद कई बार इस बात को स्वीकार कर चिंता जाहिर कर चुके थे.1974 में जय प्रकाश नारायण ने सप्तक्रांति के जरिए सीमित तौर पर वही प्रयोग दुहराए, जो प्रयोग महात्मा गांधी 1918 में बिहार के चंपारण में कर चुके थे. भारत के इन सर्वश्रेष्ठ नेताओं के विचारों, आदर्शों और बलिदानों को आप सिर्फ और सिर्फ लोकशाही में खोज सकते हैं और तानाशाही की किसी भी आशंका के वक्त इनके प्रयोगों को इस्तेमाल कर सकते हैं. आज के भारत की मजबूत लोकतंत्र की नींव इन्हीं नेताओं ने तब रखी थी. इसलिए ऐसे किसी खतरे से डरिए मत.


Rani Sahu

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