- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- न्यायपालिका में केस...
x
कानून मंत्री और राष्ट्रपति के अनेक बयानों से जाहिर है कि अदालतों में बदलाव का शंखनाद हो चुका है
विराग गुप्ता का कॉलम:
कोरोना के पिछले दो सालों में जिला अदालतों में 3.2 से 4 करोड़, हाईकोर्ट में 47 से 56 लाख और सुप्रीम कोर्ट में लंबित मामलों की संख्या 60 से बढ़कर 70 हजार हो गई है। अदालतों की कार्रवाई पहले बंद कमरों में होती थी, लेकिन अब ऑनलाइन सुनवाई के सूक्ष्म विवरण सोशल मीडिया के माध्यम से वायरल होने लगे हैं। जजों की बातों से साफ है कि लंबित मामलों के बारूदी ढेर से न्यायपालिका में भारी बेचैनी है। कानून मंत्री और राष्ट्रपति के अनेक बयानों से जाहिर है कि अदालतों में बदलाव का शंखनाद हो चुका है-
1. आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल- साल के अंत में जस्टिस चंद्रचूड़ नए चीफ जस्टिस बनेंगे जो ई-कमेटी के चेयरमैन हैं। उनके कार्यकाल में न्यायपालिका में तकनीकी व एआई के संस्थागत इस्तेमाल से सुधारों का नया दौर शुरू होने की उम्मीद है। मुकदमों का फैसला तो जजों की इंटेलिजेंस से ही होगा। लेकिन एआई से समान मामलों के वर्गीकरण के साथ तथ्यों व कानूनी प्रावधानों की समरी बन सकेगी। इससे मुकदमे के जल्द निपटारे, प्रशासनिक प्रक्रिया में कार्यकुशलता व पारदर्शिता बढ़ाने में मदद मिलेगी।
2. इंफ्रास्ट्रक्चर न्यायिक सुधार, जजों की नियुक्ति- अदालतों में इंटरनेट, सुरक्षा व इंफ्रास्ट्रक्चर बेहतर करने के साथ जजों की नियुक्ति प्रक्रिया में सुधार और अखिल भारतीय न्यायिक सेवा पर तेजी से बात बढ़ रही है। नए साल में रिटायर हुए सुप्रीम कोर्ट के जज सुभाष रेड्डी ने कहा है कि अंग्रेज़ी जमाने के कानूनी तंत्र से 21वीं सदी की अदालतों को नहीं चलाया जा सकता।
इसके लिए संसद से कानूनी सुधार लागू करने के साथ अदालतों को भी अपनी प्रक्रिया दुरुस्त करने की जरूरत है। जज लोग अपने अपने घरों से बैठकर मामलों की सुनवाई कर रहे हैं, जिसके बारे में कोई नियम नहीं है. तो फिर जनता के हित में कानूनी प्रक्रियाओं को सरल करने की पहल भी नए साल में जजों को करनी ही होगी।
3. पुराने मामलों पर पहले फैसले का सिस्टम- रेलवे में कंप्यूटर के बाद 'पहले आओ पहले पाओ' के अनुसार जनता को पारदर्शी तरीके से रिजर्वेशन मिलने लगा। लेकिन न्यायपालिका में कंप्यूटराइजेशन के बावजूद पुराने मामलों को दरकिनार कर नए मामलों की मनमाफिक सुनवाई का कल्चर खत्म नहीं हुआ। आपराधिक मामलों में जब कई दशक लग जाएं तो पीड़ित व्यक्ति के लिए अदालती प्रक्रिया दर्दनाक बन जाती है।
अजमेर में 30 साल पुराने सामूहिक दुष्कर्म कांड में पीड़ितों को अभी भी गवाही के लिए बुलाकर, उन्हें न्यायिक यातना ही दी जा रही है। जब तक पुराने मामलों में फैसला नहीं हो जाए तब तक नए मामलों को प्राथमिकता के आधार पर वीआईपी ट्रीटमेंट देना गलत, अनैतिक, गैर कानूनी है।
4. बेवजह के नोटिस बंद होने के साथ लोक अदालत का अभियान- चीफ जस्टिस रमना ने मुकदमेबाजी कम करने के लिए मध्यस्थता का रिवाज बढ़ाने की बात कही है। पिछले कई सालों से लोक अदालतों के माध्यम से बड़े पैमाने पर मुकदमे खत्म हो रहे हैं। लेकिन भारत में मुकदमेबाजी शातिर लोगों की कुचाल का संगठित तंत्र बन गया है।
इसकी वजह से सही और पात्र लोगों को समय पर न्याय नहीं मिल पाता। कानून से देखें तो सिविल और पीआईएल के अधिकांश मामले फिजूल के होते हैं। उन मामलों में नोटिस जारी करने की बजाय शुरुआती कठोर आदेश और जुर्माने से मुकदमेबाजी के मर्ज़ को जड़ में खत्म किया जा सकता है। छोटी सजा, जुर्मानों के आपराधिक मामलों में भी लंबी तारीखों में सुनवाई टालने की बजाय, जल्द फैसला होने से लाखों लोगों को राहत मिलेगी।
5. शिकायत निवारण के लिए सोशल मीडिया में तंत्र बने- हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में पत्र याचिका के आधार पर कई बार मामले दर्ज होते हैं। लेकिन मुकदमेबाजी से पीड़ित गांव-देहात की निरीह जनता के लिए शिकायत दर्ज कराने का कारगर तंत्र अभी तक नहीं बना।
अदालतों से जुड़े मामलों में दुखी लोग व्हाट्सएप और सोशल मीडिया के माध्यम से अपनी शिकायतें दर्ज करा सकें, जिसपर समयबद्ध तरीके से कार्रवाई हो। ऐसा सिस्टम बनने पर जनता का न्यायपालिका पर भरोसा बढ़ेगा और नए साल में मुकदमों के अंबार से मुक्ति का अभियान सार्थक मुकाम तक पहुंचेगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
Next Story