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तो आम जनता को राहत के साथ देश की जीडीपी भी बढ़ सकती है।
गरीबी, भूख, असमानता और अर्थव्यवस्था में कमजोरी के लिए परंपरागत तौर पर नेताओं और अधिकारियों को कोसने का रिवाज है। पर प्रधानमंत्री, कानूनमंत्री, सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और अन्य न्यायाधीशों के बयानों के निहितार्थ को संजीदगी से समझा जाए, तो इसके लिए न्यायपालिका भी जिम्मेदार है। व्हाट्सऐप से फटाफट मैसेज, ऑनलाइन डिलीवरी और बैंकिंग के चुस्त सिस्टम के दौर में भी भारत की अदालतों में दामिनी फिल्म के तारीख पे तारीख का डायलॉग गूंज रहा है। देश की अदालतों में लगभग पांच करोड़ मुकदमे लंबित हैं, जिनमें से एक लाख मुकदमे 30 साल से ज्यादा पुराने हैं। सभी उच्च न्यायालयों में कुल मिलाकर 59 लाख मामले लंबित हैं, जिनमें से 13 लाख मुकदमे दस साल से ज्यादा पुराने हैं।
वर्ष 2016 की एक रिपोर्ट के अनुसार, निचली अदालतों में मुकदमेबाजी से प्रति व्यक्ति औसतन 1,300 रुपये प्रतिदिन का नुकसान होता है। समस्या का सरलीकरण करते हुए कानूनमंत्री किरण रिजिजू ने इसे जागरूक समाज की निशानी बताते हुए कहा है कि जज 50 मामले निपटाते हैं, तो 100 और मुकदमे आ जाते हैं। लेकिन नए मुकदमों पर ताबड़तोड़ सुनवाई और पुराने मामलों पर तारीख बढ़ना जागरूक समाज के बजाय न्यायिक व्यवस्था के पराभव की निशानी है। इसीलिए 139 देशों की रूल ऑफ लॉ के वैश्विक इंडेक्स में दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से भारत 79वें पायदान पर है। अमेरिका की सुप्रीम कोर्ट में सिर्फ 2.5 फीसदी मुकदमे लिए जाते हैं। लेकिन पीआईएल, मुकदमों और अपीलों में जजों द्वारा रूटीन नोटिस जारी करने के फैशन से समाज में मुकदमेबाजों का बड़ा वर्ग तैयार हो गया है। सर्वोच्च न्यायालय के जज संजय किशन कौल के अनुसार, हर मुकदमे में अपील के उदार सिस्टम से मुकदमेबाजी को इसी तरीके से बढ़ावा देना जारी रहा, तो लंबित मामलों का अगले 500 वर्षों में भी निपटारा मुश्किल है। करोड़ों परिवारों, समाज और अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाले इस नासूर के सही इलाज के लिए जजों की संख्या बढ़ाने के सरल नुस्खे के बजाय मर्ज की तह तक जाना जरूरी है।
पहली बात यह कि संपन्न लोगों के मामलों के जल्द निपटारे के लिए कॉमर्शियल, इनसॉल्वेंसी और मध्यस्थता कानून के तहत विशेष कानून बन गए हैं। लेकिन आम जनता से जुड़े दीवानी, राजस्व और फौजदारी मामलों में मुकदमों के निपटारे के बजाय फाइलों की मोटाई बढ़ाने और तारीख देने पर ज्यादा जोर रहता है। संविधान के तहत जल्द और सुलभ न्याय मिलने के हक को सुनिश्चित करने के लिए कोरे आश्वासन के बजाय संसद से नए कानून बनाए जाने की आवश्यकता है। दूसरा यह कि विधि आयोग ने वर्ष 1987 में 120वीं रिपोर्ट में कहा था कि देश में प्रति 10 लाख लोगों पर 50 जज होने चाहिए। उसके बाद से न्यायिक व्यवस्था के हर मर्ज के लिए जजों की कमी की दुहाई दी जाती है। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय में वर्ष 1950 के कुल सात जजों की तुलना में अब 34 जज हो गए। इसके बावजूद फैसलों की दर का 43 फीसदी से घटकर 25 प्रतिशत होना चिंताजनक है। कॉलेजियम सिस्टम के तहत उच्च न्यायालय में सैकड़ों जजों की भर्ती पिछले एक साल में हो गई, लेकिन निचली अदालतों में जजों के 5,343 पद खाली हैं। इसलिए उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में जजों की सुविधाएं बढ़ाने के साथ-साथ जिला अदालतों में जजों के रिक्त पदों पर भर्ती करने और बुनियादी व्यवस्था ठीक करने के लिए भी ठोस कदम उठाने होंगे।
तीसरी बात यह कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लंबित मामलों के जल्द निपटारे के साथ 3.5 लाख विचाराधीन कैदियों की रिहाई की बात कही है। लंबित मुकदमों में 70 फीसदी से ज्यादा मामले फौजदारी से जुड़े हैं। थानों में गलत एफआईआर दर्ज करने पर दोषी पुलिस अधिकारियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई नहीं होती। संविधान और सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों के अनुसार, बेल (जमानत) नियम है और जेल अपवाद। ट्रायल कोर्ट और जिला अदालतों के मजिस्ट्रेट रसूखदारों को बेल और गरीबों को जेल भेजने का रूटीन आदेश दे देते हैं। ऐसे मामलों में मजिस्ट्रेट के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की अवमानना का मामला चले, तो फिर अदालतों को मुकदमों के बोझ के साथ-साथ जेलों को कैदियों की भीड़ से भी राहत मिलेगी।
चौथी बात यह कि संविधान के अनुच्छेद-14 और 39-ए के अनुसार, सभी लोग बराबर हैं और उन्हें समानता से न्याय मिलना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एम एन वेंकटचलैया ने मुकदमों को निश्चित समय सीमा पर निपटारे की बात कही थी। सर्वोच्च न्यायालय के ही पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई के अनुसार, अदालतों में बड़ी कंपनियों, बड़े लोग और वरिष्ठ वकीलों से जुड़े मामलों में जल्द सुनवाई और फैसला होता है। इसलिए पुराने मुकदमों में तारीख देकर नए मामलों में जल्द फैसले की गलत व्यवस्था को बंद करने के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और तकनीकी का इस्तेमाल होना चाहिए। पांचवां यह कि सुप्रीम कोर्ट में दाखिले के बाद मामले की लिस्टिंग और बेंच के आवंटन के लिए मास्टर ऑफ रोस्टर के नाम पर मुख्य न्यायाधीश को सर्वाधिकार हासिल है। वर्ष 2018 में चार जजों ने प्रेस-कॉन्फ्रेंस करके मुकदमों की मनमानी लिस्टिंग के खिलाफ तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्र के खिलाफ गंभीर आरोप लगाए थे। उसके बाद किसी भी मुख्य न्यायाधीश ने इन्हें सुधारने के लिए नियमों में जरूरी बदलाव नहीं करवाए।
सर्वोच्च न्यायालय के कई फैसलों से नौकरशाही और सरकारी व्यवस्था में सुधार हुआ है। पर चिराग तले अंधेरा की तर्ज पर सर्वोच्च न्यायालय में सुधारों की ठोस शुरुआत नहीं हो पा रही। नए मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति उदय उमेश ललित ने जल्द न्याय और लोगों को विधिक सहायता के लिए कई बातें कही हैं, जिनसे नई उम्मीद जगी है। उन्होंने कहा है कि स्कूल के बच्चे जल्दी स्कूल जाते हैं, तो फिर अदालतें एक घंटे पहले क्यों नहीं शुरू हो सकतीं? सर्वोच्च न्यायालय में तो सिर्फ 71 हजार मुकदमे ही लंबित हैं। पर वहां के सिस्टम में ठोस सुधार शुरू हो, तो फिर पूरी न्यायिक व्यवस्था के सुधार को राष्ट्रीय आंदोलन की शक्ल दी जा सकती है। निचली अदालतों में मजिस्ट्रेट और जज चैंबर में बैठने के बजाय अदालतों में तारीख देने के बजाय जल्द फैसला करें, तो आम जनता को राहत के साथ देश की जीडीपी भी बढ़ सकती है।
सोर्स: अमर उजाला
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