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जलवायु बदलाव से जुड़ी इन विशेष जिम्मेदारियों को पूरा करने के साथ ही आजीविका आधार को पहले से और भी अधिक मजबूत बनाया जा सकता है और यही हमारा प्रयास भी होना चाहिए।
सार्थक, टिकाऊ व समता-आधारित विकास की राह के लिए यह जरूरी माना गया है कि निर्धन, जरूरतमंद लोगों की बेहतरी व पर्यावरण की रक्षा के कार्यों को अधिक महत्व दिया जाए। यह उद्देश्य है, सदा रहेगा, पर इसे बदलते समय की विशिष्ट आवश्यकताओं के अनुकूल विशेष धार देना भी जरूरी है। इस समय की एक बड़ी जरूरत है, जलवायु बदलाव के खतरे का सामना करने की क्षमता बढ़ाना व इस खतरे को कम करना। अतः जलवायु बदलाव के संकट की गंभीरता को देखते हुए इससे जुड़े मुद्दों पर अधिक ध्यान देना जरूरी है
इसके लिए एक अतिरिक्त प्रोत्साहन की बात यह है कि धनी देशों द्वारा जलवायु बदलाव के नियंत्रण व सामना करने से जुड़े कार्यों को विकासशील व निर्धन देशों में आगे बढ़ाने के लिए 100 अरब डॉलर वार्षिक के कोष की व्यवस्था भी होनी है। हालांकि इस समय यह कार्य अपने निर्धारित लक्ष्यों से बहुत पिछड़ा हुआ है व इसमें भटकाव भी बहुत आया है, फिर भी उम्मीद तो यही है कि यह कोष पटरी पर आएगा। यदि 100 अरब डॉलर की ही दृष्टि से देखा जाए, तो विकासशील व निर्धन देशों में भारत की जनसंख्या लगभग 20 प्रतिशत है अतः भारत को प्रति वर्ष 20 अरब डॉलर इस कोष से प्राप्त होने ही चाहिए और जब यह कोष बढ़ेगा, तो यह राशि भी स्वयं बढ़ेगी।
सवाल है कि जलवायु बदलाव के संदर्भ में कौन से कार्य सबसे महत्वपूर्ण हैं। निश्चय ही कृषि को पर्यावरण रक्षा की राह पर ले जाना सबसे महत्वपूर्ण होगा। ऐसी कृषि की जरूरत है, जो मिट्टी व जल संरक्षण के अनुकूल हो, रासायनिक खाद, कीटनाशक व डीजल का कम उपयोग करे, अधिक आत्मनिर्भर और कम खर्चीली हो। ऐसी खेती हो, जो उपजाऊ मिट्टी और उसके आर्गेनिक तत्व को बचाने में सक्षम हो।
यह बेहतर व अधिक गुणवत्ता की फसल के लिए बहुत उपयोगी है, पर साथ ही मिट्टी के आर्गेनिक तत्व में कार्बन डाईऑक्साइड सोखने की क्षमता है। रासायनिक खाद का उपयोग कम करने से नाइट्रस ऑक्साइड जैसी गैस के प्रदूषण से हम बचेंगे, जो कार्बन डाईऑक्साइड से भी कहीं ज्यादा हानिकारक है। दूसरे शब्दों में, पर्यावरण रक्षा की खेती के लिए जो पहले उपयोगी माना गया है, वह अब जलवायु बदलाव के दौर में और भी अधिक उपयोगी हो गया है।
पर्यावरण रक्षा की खेती में आत्मनिर्भरता, स्वावलंबिता, विकेंद्रिता व स्वदेशी की भावना के लिए अधिक स्थान है। अतः इसमें किसानों के परंपरागत व स्थानीय ज्ञान, उनकी कुशलता, आसपास की प्रकृति से सीख लेने की क्षमताओं के लिए भी अधिक स्थान है। बुदेलखंड के किसान-वैज्ञानिक मंगल सिंह ने जिस मंगल टरबाइन का आविष्कार किया, उसकी उपयोगिता मौजूदा दौर में कहीं अधिक बढ़ गई है।
भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा इस विषय पर नियुक्त मैथानी समिति की रिपोर्ट में स्पष्ट संस्तुति है कि मंगल टरबाइन को अधिक से अधिक अनुकूल स्थानों तक पंहुचाया जाए। फिर भी इस संस्तुति पर अमल करने में नाहक देरी हो रही है। कृषि में स्थानीय प्रजातियों के पेड़ों का बेहतर समावेश होना चाहिए और चरागाहों की रक्षा भी होनी चाहिए।
जहां भी प्राकृतिक वन बचे हैं, आग और कटाई से उनकी रक्षा को उच्च प्राथमिकता मिलनी चाहिए। वन-रक्षक के रूप में स्थानीय लोगों को आजीविकाएं प्राप्त होनी चाहिए। जहां वन नष्ट हो गए हैं, वहां नए सिरे से प्राकृतिक वनों को पनपने का अवसर मिलना चाहिए। खुले में श्रम करने वाले किसानों व मजदूरों को ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में गर्मी से किस तरह अधिक राहत मिले, इसके उपाय होने चाहिए।
शहरी क्षेत्रों में बेघर प्रवासी मजदूरों के लिए बेहतर आश्रय-घर बनाने व विभिन्न आपदाओं के प्रकोप को कम करने पर अधिक ध्यान देना चाहिए। समुद्री व टापू क्षेत्रों के लोगों की रक्षा पर पहले से अधिक ध्यान देना जरूरी है। जलवायु परिवर्तन का सामना करने की क्षमता को हर स्तर पर बढ़ाना बेहद जरूरी है। जलवायु बदलाव से जुड़ी इन विशेष जिम्मेदारियों को पूरा करने के साथ ही आजीविका आधार को पहले से और भी अधिक मजबूत बनाया जा सकता है और यही हमारा प्रयास भी होना चाहिए।
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