सम्पादकीय

हादसों की सड़क

Subhi
28 Sep 2022 5:40 AM GMT
हादसों की सड़क
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ड्राइवरों की लापरवाही से, सड़कों पर एकाएक जानवरों के आ जाने से और सड़कें खस्ताहाल होने की वजह से ऐसे हादसे होते रहते हैं, जिनमें हर वर्ष हजारों लोग मारे जाते हैं और हजारों लोग घायल हो जाते हैं।

Written by जनसत्ता: ड्राइवरों की लापरवाही से, सड़कों पर एकाएक जानवरों के आ जाने से और सड़कें खस्ताहाल होने की वजह से ऐसे हादसे होते रहते हैं, जिनमें हर वर्ष हजारों लोग मारे जाते हैं और हजारों लोग घायल हो जाते हैं। हाल ही में दिल्ली के सीमापुरी इलाके में रात को फुटपाथ पर सो रहे लोगों को एक तेज रफ्तार ट्रक ने कुचल दिया, जिसमें चार लोग मारे गए और कुछ घायल हुए। अब सोचने वाली बात यह है तो ऐसी कौन-सी मजबूरी है जो लोगों को फुटपाथ पर सोने को मजबूर करती है?

यों तो हमारी सरकारें सबको घर मुहैया कराने का दावा करती हैं, फिर ये लोग कौन हैं जो सड़कों पर रात गुजारते हैं, वह भी देश की राजधानी में! दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार एक वर्ष में करोड़ों रुपए खर्च करती हैं अपने प्रचार में, छोटी-छोटी उपलब्धियों पर भी सड़कों पर और अखबारों में दिल्ली के मुख्यमंत्री और देश के प्रधानमंत्री की तस्वीरें आसानी से देखी जा सकती हैं। अगर यही पैसा लोगों की मूल जरूरतों को पूरा करने पर खर्च किया जाए तो शायद किसी को भी सड़कों पर सोने को विवश नहीं होना पड़ेगा।

यह हमारे लोकतंत्र की नाकामी है कि आजादी के पचहत्तर वर्ष बीत जाने के बाद भी हमारी सरकारें सभी लोगों को रोटी कपड़ा और मकान जैसी जरूरी सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं करवा सकी हैं। प्रशासन के साथ-साथ देश की जनता भी ऐसे हादसों के लिए बराबर की दोषी है। फुटपाथ पर सो जाना रेल की पटरियों पर सो जाना, लापरवाही से या शराब पीकर गाड़ी चलाना- देश में यह सब आम बात है।

सरकारें जाम खत्म करने के लिए या हादसे कम हों, इसके लिए उपरिगामी पथ का निर्माण करवाती हैं, लेकिन हम उन पर गाड़ियां रोककर सेल्फियां लेते हैं, शराब पीते हैं। ऐसा भी नहीं है कि इन हादसों का शिकार आम आदमी ही होता है। हमारे देश ने कई नेताओं को भी सड़क हादसों में खोया है। अब जरूरत इस बात की है कि इन दुर्घटनाओं को गंभीरता से लिया जाए और प्रयास हों कि ऐसे दर्दनाक हादसों की पुनरावृत्ति न हो।

वैदिक समाज के प्रारंभिक चरण में वर्ण व्यवस्था नहीं थी। उत्तर वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था दिखाई पड़ती है। इसी समय उपनिषद के ऋषियों ने तमाम सामाजिक रूढ़ियों पर हमला किया। बाद में जातियां बनीं। कुछ प्राचीन ग्रंथों में जातिभेद के उल्लेख हैं। इसका विरोध हुआ। भक्ति आंदोलन की प्रेरणा यही प्रथाएं थीं। बुद्ध, शंकराचार्य आदि ने नया दर्शन दिया। स्वामी दयानंद ने धार्मिक रूढ़ियों को चुनौती दी।

राजा राममोहन राय ने सती प्रथा के विरुद्ध अभियान चलाया। गांधी, आंबेडकर और हेडगेवार आदि ने अपने-अपने ढंग से भारत की सामाजिक चेतना को गतिशील बनाने का काम किया। बेशक हिंदू जीवन में भी आस्था के तमाम विषय हैं, लेकिन यहां आस्था पर भी बहस की परंपरा है। तर्क और विमर्श में जो काल संगत है, वही सर्वस्वीकार्य है।

आस्था बुरी नहीं होती, किंतु उसका आचरण और व्यवहार देशकाल के अनुरूप ही होना चाहिए। भारत में आस्था पर भी सतत संवाद की परंपरा है। संवाद से समाज स्वस्थ रहता है और गतिशील भी। यूरोपीय समाज ने आस्था और विश्वास के साथ वैज्ञानिक दृष्टिकोण को महत्ता दी है। यही स्थिति अन्य विकसित देशों की है। निस्संदेह सभी पंथिक ग्रंथों में तमाम उपयोगी ज्ञान भी हैं। परिस्थिति के अनुसार उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए, लेकिन आज के परिवेश में हम डेढ़-दो हजार वर्ष प्राचीन सामाजिक प्रथाओं में नहीं जी सकते।


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