सम्पादकीय

सुख से दुख की ओर जाती सड़कें

Subhi
8 Sep 2022 5:32 AM GMT
सुख से दुख की ओर जाती सड़कें
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विज्ञान की अध्यापिका ने प्रोजेक्टर स्क्रीन यानी पर्दे की ओर संकेत करते हुए बच्चों से पूछा- ‘यह पीले, लाल, काले धब्बे वाले चित्र क्या हैं?’ प्रश्न सुन बच्चे सिर खुजलाने लगे।

सुरेश कुमारमिश्रा : विज्ञान की अध्यापिका ने प्रोजेक्टर स्क्रीन यानी पर्दे की ओर संकेत करते हुए बच्चों से पूछा- 'यह पीले, लाल, काले धब्बे वाले चित्र क्या हैं?' प्रश्न सुन बच्चे सिर खुजलाने लगे। सामने क्रम में बैठे बच्चों में से एक ने उठकर कहा कि ये तो अलग-अलग ग्रहों के चित्र हैं। चूंकि वह बुद्धिमान छात्र था और अमूमन हर बार सही उत्तर देता था, इसलिए कक्षा के शेष छात्रों ने तालियां बजाने में देरी नहीं की। यह देख अध्यापिका ने अपनी आंखें बड़ी कीं। बच्चे समझ गए थे कि यह उत्तर गलत है। इसलिए छात्र ने डांट-फटकार से बचने के लिए आंखें नीची कर लीं।

अध्यापिका ने कहा- 'इतने भी किताबी कीड़े मत बनो कि बाहर की दुनिया दिखाई न दे। ये चित्र किसी ग्रह के नहीं हमारे आसपास की सड़कों के हैं। इसमें इतने सारे गड्ढे हैं कि बारिश, सर्दी, गर्मी के दिनों में इस तरह दिखती है।' यह सुन बच्चों का मुंह खुला का खुला रह गया। अध्यापिका ने कहा कि मैं परिवहन अंश से जुड़ा पाठ पढ़ा रही हूं और तुम्हारा ध्यान अभी भी पिछले पाठ पर अटका है। तुम सबसे मुझे यह उम्मीद न थी। कल तुम इन सड़कों के बारे में एक निबंध लिखकर लाओगे। यही तुम्हारी सजा है।

उस प्रसंग को बख्शते हैं तब भी कुछ हमारे सामने तैरते हैं। हमारे देश के गड्ढे हमारे देश की सड़कों के दर्पण हैं। जीवन का हिस्सा हैं। राष्ट्रीय त्रासदी, दुख और कोहराम के प्राण हैं। दुर्घटनाग्रस्त विभिन्नता की इंद्रधनुषी चोटों में बहुरूपता और बहुक्रंदन के प्रतीक हैं। जीवन के पीड़ा-उत्सव हैं। सड़कों के गड्ढे गहन सांस्कृतिक चिंतन, लोकक्रंदनात्मक वैज्ञानिक दृष्टिकोण, राजनीतिक पुनर्जागरण, आर्थिक संवर्धन और अश्रुपूर्ण सामाजिक जीवन के अभिराम अभिव्यंजक हैं। गड्ढे वाली सड़कें सुख से दुख की ओर ले जाने वाले दर्शनशास्त्र की प्रतीक हैं। ये अमंगल माधुर्य से ओत-प्रोत हैं। इसलिए यहां प्रत्येक दिन दुर्घटना पर्व है, हाथ-पैर तुड़वाने का प्रसंग है।

हमारे देश में 'गड्ढे वाली सड़कों' का जुमला आम रहा है। अगर आप किसी भी जगह की सड़कें देखेंगे, तो आपको हर दिन कोई न कोई दुर्घटना या मौतें नजर आएंगी। ऐसी सड़कें तीन प्रकार की होती हैं। पहली प्राकृतिक विपदा वाली सड़कें, दूसरी सरकारी खुदाई वाली सड़कें और तीसरी 'जो खोदे सो गिरे' वाली सड़कें। प्राकृतिक विपदा वाली सड़कें 'अलौकिक शक्तियों' के प्रकोप का शिकार होती हैं।

इसलिए बरसात, आंधी, तूफान, बाढ़ के लिए ऊपर बताई अलौकिक शक्ति को दोषी बताकर सरकार अपना पल्ला झाड़ लेती है। चूंकि अलौकिक शक्तियां 'मिस्टर इंडिया' की तरह दिखाई नहीं देती, इसलिए इन्हें धरती की अदालतों से छूट मिली रहती है। प्रगाढ़ धार्मिक आस्था रखने वाले लोग तो ऐसी सड़कों पर चोटिल होने या मरने पर 'सब ऊपर वाले की लीला' कहकर अपने भाग्य को कोसते हैं। इस तरह प्राकृतिक विपदा वाली सड़कें धार्मिक विश्वास का प्रतीक बनकर उभरती हैं।

सरकारी खुदाई वाली सड़कें अक्सर किसी न किसी विभाग द्वारा किसी काम के लिए खोदी जाती हैं। विशेष बात यह है कि सरकार जहां पर खुदाई सूचना वाले बोर्ड लगाती है, वहां खुदाई करे न करे, जहां नहीं लगाती, वहां अवश्य करती है। यह सरकार की कार्यशैली और प्रतिबद्धता का अमरगान है। ध्यान देने वाली बात यह है कि सरकारी गड्ढे वाली सड़कें प्राकृतिक विपदा वाली सड़कों की तुलना में अधिक चमत्कारी होती हैं! कहते हैं, एक बार के लिए बंदा प्राकृतिक विपदा वाली सड़कों से तो बच सकता है, लेकिन सरकारी सड़कों से कतई नहीं। यहां कबीर के 'बाल न बांका कर सके' जैसे शूरवीर भी धराशायी हो जाते हैं।

तीसरी प्रकार की सड़कें भगवान और सरकार की माया से बच जाती हैं, उस पर जनता अपना कमाल दिखाती है। एक जमाना था 'जब कोस-कोस पर पानी बदले, चार कोस पर बानी' वाली उक्ति बहुत सुहाती थी। अब यह उक्ति 'कोस-कोस पर शराब के अड्डे, उससे ज्यादा सड़क के गड्ढे' के रूप में अधिक सुहाने लगी है। जनता की भी अपनी मजबूरियां हैं। जन्म से लेकर मृत्यु तक के सारे उत्सव सड़क पर ही मनाने पड़ते हैं। तभी आस-पड़ोस और मोहल्ले भर के लोगों को पता चलता है। इसीलिए बंबू-तंबू गाड़ने, मैनहोल उखाड़ने, पेट पालने के लिए कुछ न कुछ तो करना पड़ता है। इसी क्रम में जो खुदाई होती है उसी में खुद को ढूंढ़ते हुए जहां-तहां गड्ढों का निर्माण करते हैं। ऐसी सड़कों में गिरकर हताहत होने वालों को 'जो खोदे सो गिरे' की संज्ञा दी जाती है।

गड्ढे सड़कों के हृदयस्थल हैं! इन हृदयस्थलों से जो अपनी जान बचाने में सफल हो पाता है, वही आगे चलकर संसद से सड़क तक की बातें कर पाता है। चूंकि संसद जाने के लिए भी सड़क की आवश्यकता पड़ती है, इसलिए संसद जाने वाला सड़कों से लोहा लेने का साहस नहीं दिखाता। जो भी हो, गड्ढे वाली सड़कें लाख बुरी हों, लेकिन इंसानों से कहीं अच्छी होती हैं। इंसानों के चरित्र बदल सकते हैं, किंतु सड़कें जहां थीं, जहां हैं, वे वहीं रहेंगी। वे अपना चरित्र इंसानों की तरह कतई नहीं बदलतीं।


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