सम्पादकीय

राजनीति में उलझे नदी विवाद

Subhi
1 Sep 2022 4:54 AM GMT
राजनीति में उलझे नदी विवाद
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भारत में नदियों के जल बंटवारे, बांधों के निर्माण और राज्यों के बीच उनकी हिस्सेदारी एक गंभीर समस्या बनी हुई है। राज्यों के बीच नदी जल बंटवारे को लेकर दशकों से चले आ रहे विवादों का अगर समाधान नहीं निकल पा रहा है

प्रमोद भार्गव; भारत में नदियों के जल बंटवारे, बांधों के निर्माण और राज्यों के बीच उनकी हिस्सेदारी एक गंभीर समस्या बनी हुई है। राज्यों के बीच नदी जल बंटवारे को लेकर दशकों से चले आ रहे विवादों का अगर समाधान नहीं निकल पा रहा है तो इसका मुख्य कारण नदी जैसे प्राकृतिक संसाधन के समुचित व तर्कसंगत उपयोग की जगह राजनीतिक सोच से प्रेरित होकर नदियों के जल का दोहन करना रहा है।

देश में उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बीच केन और बेतवा नदियों को जोड़ने की स्वीकृति एक अच्छी शुरुआत मानी जा रही है। लेकिन अन्य नदियों को परस्पर जोड़ने वाली परियोजनाओं पर राज्यों में सहमति बनना मुश्किल हो रहा है। जल शक्ति मंत्रालय ने कहा है कि गोदावरी-कृष्णा और कृष्णा-पेन्नार-कावेरी नदी जोड़ परियोजना के जल के उपयोग को लेकर व्यावहारिक सहमति राज्यों के बीच नहीं बन पा रही है।

राज्य अधिशेष पानी के हस्तांतरण और आबंटन से जुड़े जटिल मुद्दों पर सहमत नहीं हैं। इसी तरह पार-ताप्ती-नर्मदा परियोयना पर महाराष्ट्र और गुजरात ने आगे काम करने से इनकार कर दिया है। राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में इस योजना के तहत राष्ट्रीय जल विकास एजंसी (एनडब्ल्यूडीए) ने व्यावहार्यता रिपोर्ट तैयार करने के लिए तीस अंतरराज्यीय नदियों की पहचान की है। इनमें प्रायद्वीपीय घटक के रूप में सोलह और हिमालयी घटक के रूप में चौदह नदी जोड़ परियोजनाओं के प्रस्ताव शामिल हैं। इनमें से आठ परियोजनाओं की विस्तृत परियोजना रिपोर्ट (डीपीआर) तैयार हो चुकी है, जबकि अन्य पर काम चल रहा है।

भारत में नदियों के जल बंटवारे, बांधों के निर्माण और राज्यों के बीच उनकी हिस्सेदारी एक गंभीर समस्या बनी हुई है। राज्यों के बीच नदी जल बंटवारे को लेकर दशकों से चले आ रहे विवादों का अगर समाधान नहीं निकल पा रहा है तो इसका मुख्य कारण नदी जैसे प्राकृतिक संसाधन के समुचित व तर्कसंगत उपयोग की जगह राजनीतिक सोच से प्रेरित होकर नदियों के जल का दोहन करना रहा है।

कर्नाटक और तमिलनाडु की जीवनरेखा मानी जाने वाली कावेरी नदी के जल को लेकर देश के दो बड़े राज्यों में हिंसा और आगजनी की घटनाएं देखने को मिलती ही रही हैं। जबकि कावेरी दोनों राज्यों के करोड़ों लोगों के लिए वरदान है, लेकिन राजनीतिक स्वार्थों के चलते कर्नाटक और तमिलनाडु की जनता के बीच केवल आगजनी और हिंसा के ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक टकराव के हालात भी पैदा होते रहे हैं।

कहना न होगा कि कर्नाटक में जल विवाद के सामने आते ही पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा ने क्षेत्रीय मानसिकता से काम लेते हुए इस मुद्दे को भड़काने का काम किया। उन्होंने कहा था कि इस मुद्दे पर लड़ाई जीतने के लिए राजनीतिक पार्टियों व जनता को एकजुट होना होगा। यही नहीं, सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भी नाराजगी जताते हुए देवगौड़ा ने कहा था कि तमिलनाडु के किसान एक साल में तीन फसल उगा रहे हैं, जबकि कर्नाटक के पास एक फसल के लिए भी पानी नहीं है। ऐसे में उन्हें पानी देना कैसे संभव है।

इसके विरोध में हमें तमिलनाडु के लोगों की तरह एकजुट होना होगा। जाहिर है, अगर हमारे राजनेता ही किसी विवाद को सुलझाने की बजाय क्षेत्रीयता के आधार पर लोगों को उकसाने की बात करते रहेंगे, तो समाधान कैसे निकलेगा! ऐसी ही एक पक्षीय धारणाओं की वजह से कर्नाटक-तमिलनाडु के बीच कावेरी जल विवाद सवा सौ साल से बना हुआ है।

दक्षिण भारत की गंगा मानी जाने वाली कावेरी नदी कर्नाटक और उत्तरी तमिलनाडु में बहने वाली जीवनदायी सदानीरा नदी है। यह पश्चिमी घाट के ब्रह्मगिरि पर्वत से निकली है। यह आठ सौ किलोमीटर लंबी है। इसके आसपास के दोनों राज्यों के हिस्सों में खेती होती है। तमिल भाषा में कावेरी को 'पोन्नी' कहते हैं। पोन्नी का अर्थ सोना उगाना है। दोनों राज्यों की स्थानीय आबादी में ऐसी लोकमान्यता है कि कावेरी के जल में धूल के कण मिले हुए हैं। इस लोकमान्यता को हम इस अर्थ में ले सकते हैं कि कावेरी के पानी से जिन खेतों में सिंचाई होती है, उन खेतों से फसल के रूप में सोना पैदा होता है। इसीलिए यह नदी कर्नाटक और तमिलनाडु की कृषि आधारित ग्रामीण अर्थव्यवस्था का मूलाधार है।

जल बंटवारे को लेकर सन 1892 और 1924 में मैसूर राज्य व मद्रास प्रेसीडेंसी (वर्तमान तमिलनाडु) के बीच समझौते हुए थे। आजादी के बाद मैसूर का कर्नाटक में विलय हो गया। इसके बाद से कर्नाटक को लगने लगा कि मद्रास प्रेसीडेंसी पर अंग्रेजों का प्रभाव अधिक था, इसलिए समझौता मद्रास के पक्ष में किया गया है। लिहाजा वह इस समझौते को नहीं मानता है। जबकि तमिलनाडु का तर्क है कि पूर्व समझौते के मुताबिक उसने ऐसी कृषि योग्य भूमि विकसित कर ली है, जिसकी खेती कावेरी से मिलने वाले सिंचाई जल के बिना संभव ही नहीं है।

इस बावत 1986 में तमिलनाडु ने विवाद के निपटारे के लिए केंद्र सरकार से एक पंचाट बनाने की मांग की। नदी विवाद जल अधिनियम के तहत 1990 में पंचाट बनाया गया। इस पंचाट ने कर्नाटक को आदेश दिया कि तमिलनाडु को चार सौ उन्नीस अरब क्यूसेक फीट पानी, केरल को तीस अरब और पांडिचेरी को दो अरब क्यूसेक पानी दिया जाए। किंतु कर्नाटक ने इस आदेश को मानने से इनकार करते हुए कहा कि कावेरी पर हमारा पूरा हक है, इसलिए हम पानी नहीं देंगे।

उधर, कर्नाटक का तर्क है कि अंग्रेजों के शासनकाल में कुर्ग मैसूर रियासत का हिस्सा था और तमिलनाडु मद्रास प्रेसीडेंसी के रूप में फिरंगी हुकूमत का गुलाम था। ऐसे में 1924 के फैसले को सही नहीं ठहराया जा सकता। हालांकि अभी भी पंचाट के इसी फैसले और अदालत के दबाव में कर्नाटक मजबूरीवश तमिलनाडु को पानी दे रहा है, लेकिन उसकी पानी देने की मंशा कतई नहीं है।

यह पानी कर्नाटक में कावेरी नदी पर बने कृष्ण-राजा सागर बांध से दिया जाता है। जबकि तमिलनाडु कावेरी के पानी पर ज्यादा हक की मांग इसलिए करता है, क्योंकि कावेरी का चौवन प्रतिशत बेसिन इलाका उसके क्षेत्र में है। कर्नाटक में बेसिन क्षेत्र बयालीस प्रतिशत है। इसी आधार पर प्राधिकरण ने तमिलनाडु को कावेरी के अट्ठावन प्रतिशत पानी का हकदार बताया था। लेकिन कर्नाटक केवल एक हजार टीएमसी पानी देने को तैयार है।

नतीजतन विवाद कायम है। इसी तरह तमिलनाडु व केरल के बीच मुल्ला पेरियार बांध की ऊंचाई को लेकर भी विवाद गहराया हुआ है। तमिलनाडु इस बांध की ऊंचाई एक सौ बत्तीस फीट से बढ़ा कर एक सौ बयालीस फीट करना चाहता है, वहीं केरल इसकी ऊंचाई कम रखना चाहता है। इस परिप्रेक्ष्य में केरल का दावा है कि यह बांध खतरनाक है, इसीलिए इसकी जगह नया बांध बनना चाहिए। जबकि तमिलनाडु ऐसे किसी खतरे की आशंका को सिरे से खारिज करता है।

इसी तरह पांच नदियों वाले प्रदेश पंजाब में रावी और ब्यास नदी के जल बंटवारे पर पंजाब और हरियाणा पिछले कई दशकों से अदालती लड़ाई लड़ रहे हैं। इनके बीच दूसरा जल विवाद सतलुज और यमुना जोड़ का भी है। प्रस्तावित योजना के तहत सतलुज और यमुना नदियों को जोड़ कर नहर बनाने से पूर्वी व पश्चिमी भारत के बीच अस्तित्व में आने वाले जलमार्ग से परिवहन की उम्मीद बढ़ जाएगी। इस मार्ग से जहाजों के आवागमन से माल ढुलाई शुरू हो जाएगी। मसलन सड़क के समानांतर जलमार्ग का विकल्प खुल जाएगा। हरियाणा ने तो अपने हिस्से का निर्माण कार्य पूरा कर लिया है, लेकिन पंजाब को इसमें कुछ नुकसान नजर आया तो उसने विधानसभा में प्रस्ताव लाकर इस समझौते को ही रद्द कर दिया। लिहाजा अब यह मामला भी अदालत में है।

कर्नाटक, महाराष्ट्र और गोवा के बीच भी महादयी नदी के जल बंटवारे को लेकर दशकों से विवाद गहराया हुआ है। गौरतलब है कि न्यायाधीश जेएम पांचाल व महादयी नदी जल पंचाट ने तीनों राज्यों को सलाह दी थी कि जल बंटवारे का हल परस्पर बातचीत और किसी तीसरे पक्ष के बिना हस्तक्षेप के निकालने की कोशिश की जाए। लेकिन विवाद हैं कि सुलझ ही नहीं पा रहे! बहरहाल, अंतरराज्यीय जल विवादों का राजनीतिकरण इसी तरह होता रहा तो देश की जीवनदायी नदियों को जोड़ने की परियोजनाएं अधर में लटकी रहेंगी।


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