सम्पादकीय

जोखिम का सफर

Subhi
5 Sep 2022 4:47 AM GMT
जोखिम का सफर
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महिलाओं की सुरक्षा, सम्मान, बराबरी आदि को लेकर चाहे जितने कड़े कानून बन जाएं, चाहे जितने जागरूकता अभियान चलाए जाएं, पर जब तक हमारे समाज की सोच में बदलाव नहीं आता, तब तक सही मायने में स्त्री बेखौफ होकर नहीं जी सकेगी।

Written by जनसत्ता: महिलाओं की सुरक्षा, सम्मान, बराबरी आदि को लेकर चाहे जितने कड़े कानून बन जाएं, चाहे जितने जागरूकता अभियान चलाए जाएं, पर जब तक हमारे समाज की सोच में बदलाव नहीं आता, तब तक सही मायने में स्त्री बेखौफ होकर नहीं जी सकेगी। हरियाणा के फतेहाबाद में हुई घटना से एक फिर यही जाहिर हुआ है। एक महिला अपने नौ साल के बेटे के साथ रेल में सफर कर रही थी। फतेहाबाद के टोहाना स्टेशन पर एक व्यक्ति ने उसके साथ छेड़छाड़ करने की कोशिश की, तो महिला ने उसका विरोध किया।

इस पर उस व्यक्ति ने महिला को चलती गाड़ी से धक्का दे दिया, जिससे उसकी मौत हो गई। बताते हैं कि टोहाना स्टेशन पर ज्यादातर मुसाफिर उतर गए थे और अधिकतर डिब्बे लगभग खाली थे। हालांकि रेल में भीड़भाड़ होती, तब भी ऐसी घटना न होने का दावा नहीं किया जा सकता। ऐसी अनेक घटनाएं पहले देश के विभिन्न हिस्सों में हो चुकी हैं। हर घटना के बाद रेल डिब्बों में महिलाओं के लिए सुरक्षित जगह बनाने, सुरक्षाकर्मी तैनात करने आदि के वादे दोहराए जाते हैं, मगर हकीकत यही है कि ऐसी घटनाएं रुक नहीं पा रहीं। रेलों ही नहीं, बसों, रास्तों आदि में, कहीं भी महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं।

आए दिन महिलाओं के साथ छेड़छाड़, बलात्कार और हत्या की घटनाएं होती रहती हैं। उन्हें लेकर कुछ देर समाज और प्रशासन में हलचल दिखती है, पर फिर सब उसी पुराने रास्ते पर लौट पड़ते हैं। विचित्र है कि यह घटना उस राज्य में हुई है, जहां से 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' का नारा दिया गया था। सरकार यह नारा तमाम जगहों पर लिखवाती है। हर सार्वजनिक वाहन के पीछे लिखा होता है। मगर इस नारे का कोई असर हुआ नहीं दिखता। लोगों की महिलाओं के प्रति धारणा बिल्कुल नहीं बदली है।

दरअसल, हमारा पुरुष प्रधान समाज अभी तक स्त्री को भोग की वस्तु से अलग देखने का नजरिया विकसित नहीं कर पाया है। हालांकि स्कूली पाठ्यक्रमों में महिला सशक्तिकरण और बराबरी के पाठ पढ़ाए जाते हैं, प्रयास किया जाता है कि लड़के स्त्री और पुरुष में भेद न करना सीखें। मगर हो इसका उलट रहा है। महिलाओं के खिलाफ हिंसा, बलात्कार, हत्या जैसी घटनाएं बढ़ रही हैं। हालांकि महिला उत्पीड़न को लेकर कड़े कानून हैं और ऐसे मामलों में त्वरित सुनवाई का भी प्रबंध है, मगर उसका भय भी नहीं पैदा हो पा रहा, तो सोचने का विषय है कि इस मानसिकता को कैसे बदला जा सकता है।

हालांकि केवल समाज की मानसिकता को दोष देकर प्रशासन अपनी जिम्मेदारियों से बच नहीं सकता। महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराध के पीछे सबसे बड़ा कारण उसकी तरफ से बरती जाने वाली लापरवाहियां और जांच आदि में पक्षपातपूर्ण रवैया है। शर्म का विषय है कि महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामलों में सजा की दर काफी कम है।

इसकी वजह है पुलिस में भी पुरुष प्रधान नजरिये और तथाकथित उच्च जातीयता बोध का होना तथा अपराधियों के साथ उसका नरम रवैया। छिपी बात नहीं है कि निम्न कही जाने वाली जातियों की महिलाओं के साथ हुई ऐसी घटनाओं की रपट तक लिखने में पुलिस आनाकानी करती देखी जाती है। फिर रसूख वाले लोगों के अपराध को छिपाने का प्रयास करती है। विडंबना है कि इतने सारे मामलों के खुलासे और अदालतों की फटकार के बाद भी पुलिस का व्यवहार नहीं बदलता। महिलाओं की सुरक्षा महज वादों और नारों में नहीं, हकीकत में उतरनी चाहिए।


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