सम्पादकीय

RIP Shivkumar Sharma: जब पंडित शिवकुमार शर्मा ने कहा- कोई दैवीय शक्ति मंच पर मेरा सहारा बन जाती है...

Gulabi Jagat
12 May 2022 4:26 AM GMT
RIP Shivkumar Sharma: जब पंडित शिवकुमार शर्मा ने कहा- कोई दैवीय शक्ति मंच पर मेरा सहारा बन जाती है...
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पंडित शिवकुमार शर्मा
"जिस शख़्स का नाम शिवकुमार शर्मा है, संतूर का यह प्रवाह उसकी तरफ़ से नहीं आ रहा है, दैवीय शक्ति ने मुझे इसके लिए चुना है. देखिए, एक वाद्य जिसकी वजह से मुझे लोगों ने, बड़े-बड़े कलाकारों ने सन् 1950 में कह दिया कि बेटा, तुम्हारे पास संगीत की बहुत अच्छी तालीम है. पर तुमने ग़लत साज़ चुन लिया है, अभी भी वक्त है. बदल लो रास्ते. सितार या सरोद बजाना शुरू कर दो, बहुत जल्द तुम्हारा नाम हो जायेगा."
यह स्थिति थी संतूर की. वो साज़ आज अपनी अहम् जगह बना ले तो ये शिवकुमार शर्मा के रियाज़ से नहीं है, ये दैवीय शक्ति की कोई अहम् धारणा से हुआ है. इसको कौन बदल सकता है! क्योंकि जो साज़ गर्दिश में था, हाशिये पर था, उसके नाम से आज संतूर सोप बन गया, उसके नाम से रेस्टॉरेन्ट खुल गये हैं.
'वाह ताज़!' एक एड आया करता था, तबला वादक ज़ाकिर हुसैन उसको किया करते थे. वह कई सालों तक चला. अभी वो एड राहुल शर्मा कर रहे हैं. एक ऐसा वाद्य उसकी ये जगह बन जाये. ये किसी शख़्स के काम की, ये किसी इन्सान के रियाज़, मेहनत या पब्लिसिटी या बातचीत से नहीं होता है. गुरु कृपा सबसे पहली बात है. मेरे पिता को विचार ही क्यों आया? उनका ट्रांसफर ही क्यों हुआ जम्मू से? ये सब दैवीय शक्ति से आता है, वो कुछ काम करवा देती है. हमको कभी नहीं सोचना चाहिए कि 'मैं' कर रहा हूँ.
मैं कुछ भी कहूँ कि मेरा शिष्य कमाल है या नाकमाल है, उससे कुछ नहीं होता. हर एक को साबित करना पड़ता है. मैं यह कह दूँ कि मैं दुनिया का सबसे बड़ा कलाकार हूँ, महामूर्खता होगी. कह दूँ कि संतूर मेरे साथ ख़त्म हो गया, उसके बाद नहीं है, बहुत ही मूर्खतापूर्ण वक्तव्य होगा.
संगीत ऐसी विधा है कि कोई एक शख़्स या एक घराना या एक फैमिली उसका फ़ैसला नहीं कर सकते. आपको कई लोगों को साबित करना पड़ता है. जो संगीतकार हैं, पहले वो आपको मानें. दुर्योग से इतने म्यूजि़क क्रिटिक भी नहीं रहे, जो संगीत को समझे हुए हैं वो आपको मानें, आम जनता आपको मानें, हर तरह का व्यक्ति आपके संगीत को मानें, तब प्रमाणित होता है. हर शिष्य को अपने आपको साबित करना पड़ता है. जब मैं अपने शिष्यों को सिखाता हूँ, उस समय भी मैं कुछ सीखता हूँ. सिखाने की सीमा है, सीखने की कोई सीमा नहीं है. मैंने कई वर्षों तक राग भूप स्टेज पर नहीं बजाया, मारवा नहीं बजाया. मुझे यक़ीन नहीं था कि मैं इन रागों के साथ न्याय कर पाऊँगा.
मैं समझता हूँ कि हमारे देश के जो कलाकारों पर एक बहुत बड़ी जि़म्मेदारी है कि हम पहले श्रोताओं को शिक्षित करें संगीत सुनने के बारे में. श्रोताओं को जैसा हम बनायेंगे वैसे वो बन जायेंगे. संगीत की रूह को, उसकी जो आत्मा है, पहले ख़ुद संगीतकार महसूस करें.
देखने की बात यह है कि आपको किस तरीक़े की तालीम मिली है, किस तरीक़े की गाइडेन्स मिली है, और फिर आपका अपना सोच-विचार क्या है? आप महसूस कर रहे हैं, वहाँ ले जाना है. यह तो जाहिर है कि जो आप महसूस कर रहे हैं अक्सर वही आप बजाते हैं. अगर आप अपने संगीत को मनोरंजन के तरीके से देखते हैं तो आप उसी तरीके से उसको पेश करेंगे. लेकिन एक शब्द मैं इस्तेमाल कर रहा हूँ कुछ सालों से- 'म्यूजि़क बियॉण्ड इन्टरटेनमेन्ट'. श्रोताओं से बातचीत करके उनको यह बात बताता हूँ. चाहे वो कॉलेज के स्टूडेण्ट्स हों, चाहे वो विदेश के लोग हों. मक़सद यह है कि हमको पहले खुद कन्विन्स होना चाहिए. कई मर्तबा मैं देखता हूँ कि कई कलाकारों के मन में डर है, कि अगर हम प्रभावित करने वाली चीजें गायेंगे-बजायेंगे नहीं तो शायद हमारा गाना-बजाना जमेगा नहीं. इसके लिए कुछ साहस, धैर्य और अपनी निष्ठा होनी चाहिए कि नहीं ये हो सकता है.
हम सब कलाकारों का ये फ़र्ज़ बनता है कि हम जो भी करें, पहले उसको सोचें कि हम क्या मैसेज दे रहे हैं और उसका नतीजा क्या होगा! कोई शॉर्टकट पॉपुलरटी में ढूँढने की कोशिश अगर आप करेंगे तो वो शॉर्ट-लिव्ड भी हो सकता है. जिसमें थोड़ा धैर्य होगा, वो कर पायेगा. कई दफ़ा मुझे लोग पूछते हैं कि आप अगर पूना में बजा रहे हैं तो आप क्या बजाते हैं और अगर आप पेंसिलवेनिया में बजा रहे हैं तो क्या बजाते हैं? मैंने अपनी इस पूरी यात्रा में कोशिश यह की कि जो मैं कन्विस्ड हूँ कि हमारा संगीत ये है. ये आपको अन्तर्मुखी कर सकता है. मैंने पूरी दुनिया में यह कोशिश नहीं की कि आज यहाँ बजा रहा हूँ तो श्रोता जो चाहते हैं वो कर दूँ और कल वहाँ बजा रहा हूँ तो वहाँ सीरियस सुनने वाले हैं तो अपना संगीत बदल दूँ.
फि़ल्मों में हमारे गाने बहुत हिट हो गये. स्टेज पर चिट्ठियाँ आ जाती थीं 'देखा एक ख्वाब तो ये सिलसिले हुए' बजाइये. मैंने कहा, भैया ये सुनना है तो विविध भारती में फरमाइश भेजो. बोले- नहीं, ये तो आप ही की कम्पोजि़शन है. मैंने कहा, वो फि़ल्म के लिए की गई है स्टेज पर बजाने के लिए नहीं. फैसला मुझे करना था, हमने वही किया. लोगों ने फरमाइश करना बन्द कर दी.
कलाकार के ऊपर बहुत बड़ी रिस्पोन्सिबिलिटी है और ये हमको समझना है. लेकिन इसमें कोई क़ायदा-कानून नहीं बनाया जा सकता है कि ऐसा ही आप करिये. सबकी अपनी-अपनी इच्छा है, जिसका जो सोच है वो वही करेंगे और उनको आजादी है करने की.
मुझे मालूम है कि मेरे बजाने में क्या-क्या कमजोरियाँ आ रही हैं. शायद श्रोताओं को नहीं पता चलता, मुझे पता चलता है. ब्रहृमचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम संगीत में होता है. मैं इसको महसूस कर रहा हूँ. जब कोई सामान्य आदमी गृहस्थ आश्रम में होता है, वही एक संगीतकार की भी स्थिति होती है, एक बड़ी तैयारी की तरफ पूरे यौवन पर गाना-बजाना है और उसकी एक भूख भी होती है कि ताली बजे, लोग प्रशंसा करें और फिर वो जो वानप्रस्थ आश्रम आता है, उसमें तालियों की भूख निकल जाती है और फिर अपने आपको ख़ुद शख़्स देखता है.
मुझे ख़ुद महसूस हो रहा है कि मेरे बजाने में क्या बदलाव आया है. कुछ तानें हैं जो आज से दस-पन्द्रह साल मेरे हाथ से निकलती थीं, अब नहीं निकलती हैं. अभी मैं अपने बेटे राहुल के हाथ से वो तानें सुनता हूँ. गुरु की कृपा है. कलाकार को श्रोता बहुत प्यार करते हैं, लेकिन वो उस प्यार की वजह से कुण्ठित भी होते हैं जब सुनकर जाते हैं- यार, वो बात अभी नहीं हो रही है, ऐसी स्थिति में कलाकार को स्टेज पर नहीं बजाना चाहिए. जब दया का पात्र बनने लगे, उसके पहले छोड़ देना चाहिए. कई दफ़े कई तरह की मजबूरी होती है, किसी के फाइनेंशियल कन्सटेन्ट्स होते हैं, कलाकारों को करना पड़ता है. लेकिन मैं यह समझता हूँ कि जिनके पास वो प्रॉब्लम्स नहीं हैं, उन्हें सोचना चाहिए. कुछेक कलाकार हुए हैं जिनमें श्रीमती केसरबाई जी थीं. उन्होंने फ़ैसला कर लिया कि अब मैं पब्लिक में नहीं गाऊँगी, मुझे ऑडियन्स का तरस नहीं चाहिए कि- अरे! ये ऐसा करती थीं, अब नहीं हो रहा. ऐसे बहुत कम कलाकार होते हैं. और उनके अपने-अपने कारण होते होंगे, लेकिन मैं इसमें पूरी तरह से विश्वास करता हूँ.
गाना-बजाना सिर्फ़ रियाज़ की बात नहीं है, ये कोई कुश्ती का काम नहीं है. ये बहुत ही सूक्ष्म काम है. मैं पूरी तरह से अनुभव की बात कर रहा हूँ. कई मर्तबा मेरे साथ ऐसा हुआ है कि मेरी तबीयत ठीक नहीं है. लेकिन मेरी कुछ दैवीय शक्ति है जो मुझे सहायता करती है. स्टेज पर आकर जब मैं बैठता हूँ, मुझे ख़ुद विश्वास नहीं होता कि बीस मिनट पहले जो मेरी कण्डीशन थी वो कहाँ चली गयी, मैं कैसे बजा पा रहा हूँ और मज़े की बात यह है कि जब सभा समाप्त होती है, मैं फिर उसी स्थिति में चला जाता हूँ, साज उठाने की भी शक्ति नहीं है. ये क्या चीज है? ये साधना है.
'गाइड' फि़ल्म जब आयी थी, मैं तबला छोड़ चुका था. 'मोसे छल किये जाए' जो गाना दिखाया गया, डायरेक्टर मेरे पीछे पड़ गये- नहीं साहब. वैसे भी तबला बड़ा होता था. इधर पंचम यानी आर.डी. बर्मन तबला सीखे हुए थे और अली अकबर ख़ाँ साहब के पास सरोद भी सीखे हुए थे. पंचम हमारे बड़े अच्छे दोस्त थे. जब्बार पटेल मेरे पीछे पड़ गये- नहीं-नहीं, ये बड़ा इन्ट्रस्टिंग रहेगा, राहुल के साथ. मैंने कहा, भैया ऐसी लय रखो जिसमें मैं ठेका दे सकूँ. तो बजा दिया थोड़ा सा.
किसी जमाने में मैंने तबला बजाया और शायद इसलिए कि जम्मू-कश्मीर में मैं ही था. ऐसा कोई बड़ा तबला वादक मैं नहीं था. यह भी हो जाता है कि जब कोई आदमी किसी चीज़ को छोड़ देता है तो उसकी बहुत तारीफ़ होती है- अरे! आप बहुत कमाल बजाते थे. अगर मैं बजाता रहता तो कहते- अरे, ठीक-ठीक है. यह भी होता है.
संगीत कोई भी सीख सकता है. अगर गुरु को तालीम देना आता हो और गुरु तालीम देना चाहें. पहले हर बात उस्ताद बताते नहीं थे. यहाँ तक होता था कि जो ख़ास साज है उस घराने का या ख़ास तालीम है, वो अपनी फैमिली मेम्बर को ही दी जायेगी, बाकि़यों को नहीं दी जायेगी, यह भी एक सोच थी.
मेरा मानना है कि गुरू या उस्ताद में यह ख़ौफ़ नहीं होना चाहिए कि अगर मैं दे दूँगा तो मेरे पास क्या रहेगा? वह बहुत सारे शागिर्दों को तैयार कर सकता है और जो उनके पास सिखाने की एक टेक्निक है वो आपको तालीमयाफ़्ता बना सकते हैं, लेकिन एक होता है एवरेज म्यूजि़शियन, एक होता है बिलो एवरेज म्यूजि़शियन, एक होता है एबव एवरेज म्यूजि़शियन, एक होता है एक्स्ट्रा ऑर्डेनरी म्यूजि़शियन और एक होता है पाथ ब्रेकिंग एक्स्ट्रा ऑर्डेनरी जीनियस. डिफरेन्ट-डिफरेन्ट कैटेगरीज हैं म्यूजि़शियन्स की. जो लास्ट वर्ड मैंने कहा- एक्स्ट्रा ऑर्डेनरी पाथ ब्रेकिंग विजनरी गिफ्टेड म्यूजि़शियन, वो सैकड़ों नहीं हो सकते.
तकनीक ने काफी प्रभावित किया है संगीत को भी. बड़े-बड़े लोगों का संगीत, पुराने उस्तादों का संगीत, यू-ट्यूब पर आपको सुनने को मिलता है और यह एक सुविधा है. और मैं यह भी सुन रहा हूँ कि स्काइप से लोग सिखा भी रहे हैं तो एक सुविधा है. मैं समझता हूँ किसी भी टेक्निक की जो पॉजि़टिव चीज़ें हैं वो ले लेनी चाहिए, उसका इस्तेमाल करना चाहिए. मैं कभी भी इनोवेशन और न्यू टेक्नोलॉजी के अंगेस्ट नहीं रहा, लेकिन उसमें हमको क्या लेना है, क्या छोडना है? अभी इसमें कोई आदमी ये समझ ले कि यू-ट्यूब पर सुन करके मैं गुन्देचा बन्धु का गाना सीख लूँगा तो ग़लत है. उसके लिए उनके आश्रम में जाना पड़ेगा. ये फ़कऱ् मालूम होना चाहिए.
एक नुकसान यह हुआ है कि सीडीज़ बनना बन्द हो गई. अभी सब ऑनलाइन हो गया है. ये बड़ा नुकसान संगीत का हुआ है. पहले किसी जमाने में कैसेट बनते थे, हम लोग कैसेट रिकॉर्ड करते थे. फिर वो एलपीज आये, फिर लाँग प्लेइंग आये, उसके बाद सीडी आया. अब सीडी भी गायब हो गया. एक बहुत बड़ा आइकॉनिक स्टोर था बाम्बे में, रिदम हाउस बन्द हो गया, सीडी बनना बन्द हो गया. क्यों हुआ है? टेक्नालॉजी की वजह से ऑनलाइन हो गया है म्यूजि़क. संगीत का नुकसान कहीं हो तो रहा है. ये तो होता रहेगा, इसको हम रोक नहीं सकते, न इसके लिए हमको रोना-धोना करना चाहिए, अपना काम करते चले जाना चाहिए, अपना मैसेज देते चले जाना चाहिए. जिसको लेना है ले लो, जिसको नहीं लेना है तो शुक्रिया.
मेरे दो बेटे हैं- राहुल मेरा छोटा बेटा है, रोहित मेरा बड़ा बेटा है, वह म्यूजि़क में नहीं है, बाई द वे अब फॉक्स स्टार स्टूडियो फि़ल्में बनाते हैं, रोहित शर्मा इण्टरनेशनल डिस्ट्रीब्यूशन का हैड है. मेरी पत्नी का इसमें बहुत बड़ा योगदान है. बच्चों की देख-रेख, पढ़ाई सारा जि़म्मा उन्होंने ही बख़ूबी निभाया. उनका बहुत बड़ा सेक्रीफ़ाइज है.
मैंने बाहर जाना अब कम कर दिया है. अभी मैं ट्रेवल इतना नहीं करता. हर साल मैं अमेरिका जाता था. एक ट्रिप में बीस-पच्चीस प्रोग्राम ये 1968 से चल रहा है, अभी हम 2016 में गये हैं. मैं मई के महीने में वापस आ जाता था, मार्च-अप्रैल दो महीने बाहर रहता था. फिर पूरी फैमिली, बच्चों को लेकर हम लोग कश्मीर जाते थे और एक-डेढ़ महीना वहाँ गुजारते थे. बहुत अच्छी यादें हैं उनके साथ समय गुजारने की. अब तो बच्चे बड़े हो गये, उनके बच्चे हो गये, मैं ग्राण्ड-फादर बन गया. मैं कोई सोशलाइज नहीं करता, किसी पार्टी में नहीं जाता, कम से कम बाहर जाता हूँ और अपनी फैमिली के साथ मिलकर या अपने चन्द दोस्तों के साथ मिलकर आनन्द उठाता हूँ.
मैंने कभी यह सोचा ही नहीं कि राहुल को मैं म्यूजि़क सिखाऊँगा. ख़ासकर के मेरी पत्नी ने. उसने इतनी स्ट्रगल देखी थी मेरी लाइफ में. वो नहीं चाहती थी कि बेटा भी संगीतकार बने. लेकिन एक बार मैं जब जापान गया तो केसियो एक छोटा सा खिलौना होता है न, वो मैं लेकर आया. मैंने बेटे को दे दिया. मैंने सोचा कि ये दो-चार दिन बजाकर तोड़ देगा. एक दिन मैं बाहर खड़ा था, मैंने देखा कि उसने उस पर एक ट्यून कम्पोज कर दी. मैंने अपनी वाइफ से कहा. उन्होंने कहा, नहीं-नहीं, बिलकुल म्यूजि़क नहीं सिखायेंगे. जब वो कॉलेज जाने लगा तब सीरियसली उसने म्यूजि़क सीखना शुरू किया, बेसिक्स 'सा रे ग म' गले से, तबला का ठेका, फिर संतूर. ईश्वर को यही मंज़ूर था. राहुल की जि़ंदगी से संतूर जुड़ गया.

(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
विनय उपाध्यायकला समीक्षक, मीडियाकर्मी एवं उद्घोषक
कला समीक्षक और मीडियाकर्मी. कई अखबारों, दूरदर्शन और आकाशवाणी के लिए काम किया. संगीत, नृत्य, चित्रकला, रंगकर्म पर लेखन. राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उद्घोषक की भूमिका निभाते रहे हैं.
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