सम्पादकीय

RIP Kamal Khan: सिर्फ नाम ही नहीं, काम भी कमाल का था

Gulabi
15 Jan 2022 6:59 AM GMT
RIP Kamal Khan: सिर्फ नाम ही नहीं, काम भी कमाल का था
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राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्र में उनका ज्ञान अद्भुत था
बहुत कम लोग होते हैं जो अपने नाम के अनुसार जीते हैं. ऐसे ही विरले लोगों में एक थे हमारे कमाल भाई. नाम भी कमाल और काम भी कमाल. कमाल खान एक साधारण सी ख़बर को भी अपने तरीके से जब टीवी के पर्दे पर लेकर आते तो वह कमाल की ख़बर बन जाती. पीटीसी करने का उनका तरीका तो पत्रकारिता के छात्रों के लिए एक पाठ है. लखनऊ के थे, तो तहज़ीब न सिर्फ ज़ुबान में थी, बल्कि उनकी ख़बरों की दुनिया में भी नज़र आती थी. उनकी ख़बरों में बेवजह की आक्रामकता नहीं होती थी. न ही चीखना और चिल्लाना. हां तेवर ज़ोरदार. कड़ी से कड़ी बात को सलीके से कहना उनसे सीखा जा सकता था.
कमाल भाई ने प्रिंट से पत्रकारिता शुरू की थी. 90 के दशक में वे नवभारत टाइम्स की ओर से लखनऊ विश्वविद्यालय कवर करने आते थे. तब हम लोग छात्र ते और कभी-कभी उन्हें खबरों पर काम करते देखा करते थे. बाद में जब मैं भी पत्रकारिता में आया तो उनसे लगातार संपर्क बना रहा. काम के दौरान फील्ड में उनके साथ मिलना होता रहता. कमाल भाई की पत्नी रुचि कुमार भी सीनियर टीवी जर्नलिस्ट हैं. काम के दौरान दोनों का अपनी-अपनी खबर को लेकर जुनून देखकर कई बार हम लोग मज़ाक भी करते कि कमाल भाई आज तो रुचि जी की खबर ज्यादा अच्छी रही.
राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्र में उनका ज्ञान अद्भुत था. उत्तर प्रदेश की राजनीति का एनसाइक्लोपीडिया कह सकते हैं. चूंकि वे टीवी पत्रकारिता से शुरुआती दौर से ही जुड़ गए थे. इसलिए सभी बड़े नेताओं से उनका संबंध बेहद अच्छा था. कभी-कभी किसी नेता से जब बाइट लेना मुश्किल होता था, तो हम लोग कमाल भाई को आगे कर देते थे. एनडीटीवी के लिए वे एक धरोहर से कम नहीं थे. उन्होंने कभी बिना तथ्य या पूरी जानकारी के खबर नहीं दी, भले ही ब्रेकिंग न्यूज के इस दौर में वे थोड़ा पीछे ही क्यों न रह जाएं. इसका एक कारण उनका प्रिंट में काम करना भी था.
पत्रकारिता के साथ-साथ पढ़ने-लिखने का शौक उन्हें हमेशा रहा. उनके घर में आपको एक लाइब्रेरी मिल जाएगी. हजरतगंज में यूनिवर्सल बुक डिपो पर कोई किताब ढूंढ़ते या खरीदते मिल जाते थे. लखनऊ बुक फेयर में किताबों के बीच कमाल खान को अकसर देखा जा सकता था.
यूं तो वे बेहद सरल और सहज इंसान थे, लेकिन लखनऊ के एक सेलिब्रिटी भी थे. शहर की सांस्कृतिक और सामाजिक गतिविधियों में उनकी उपस्थिति अनिवार्य थी. लखनऊ विश्वविद्यालय के शिक्षकों, स्थानीय लेखकों, कलाकारों, सीनियर आईएएस अधिकारियों, बड़े व्यापारियों और नेताओं के बीच उनको अकसर देखा जा सकता था. वे पत्रकारों में सेलेब्रिटी पत्रकार थे. कई बार हम देखते कि कहीं फील्ड में रिपोर्टिग करते वक्त लोग उन्हें घेर लेते और उनके साथ सेल्फी लेते. मैंने लखनऊ में किसी पत्रकार के लिए आम लोगों में ये क्रेज़ नहीं देखा.
हां उनके व्यक्तित्व का एक पहलू पत्रकारिता और अपने सम्मान के लिए लड़ जाना भी था. कई बार प्रेस कॉन्फ्रेंस में किसी नेता के आपत्तिजनक व्यवहार पर कमाल भाई पूरे तेवर के साथ उसका प्रतिकार करते. पत्रकारों की समस्याओं पर हमेशा साथ खड़े रहते. इतने सीनियर होने के बावजूद नए पत्रकारों को सम्मान देते और गाइड करते.
सामाजिक और मानवीय ख़बरों को प्रस्तुत करने में उनका कोई मुकाबला न था. प्रदेश के दूर-दराज के गांवों में जाकर उन्होंने मानवीय खबरें की. गरीबों के शोषण और ताकतवर लोगों के अत्याचार की खबरें करने वे अकसर पिछड़ों इलाकों में दिख जाते थे. उनकी इन खबरों ने कई बार हलचल पैदा की. अपनी उत्कृष्ट पत्रकारिता के लिए उन्हें रामनाथ गोयनका अवार्ड और भारत के राष्ट्रपति द्वारा गणेश शंकर विद्यार्थी सम्मान से नवाज़ा गया था.
करीब 35 साल से पत्रकारिता कर रहे कमाल खान इस पेशे जुड़े कई दूसरे पक्षों से दूर रहे. पार्टियों में उन्हें सादगी से अलग बैठे देखा जा सकता था. अपने निजी जीवन में भी हमेशा सादगी से रहे. वो अकसर साथी पत्रकारों को नियमित वॉक करने, शाकाहारी खाना खाने और पत्रकारिता से जुड़े तनावों से निपटने के टिप्स देते थे. विडंबना देखिए अपने तन और मन का इतना ध्यान रखने वाले कमाल भाई को दिल का दौरा पड़ा और वो भी इतना तेज कि उन्हें अस्पताल ले जाने का भी मौका परिजनों को नहीं मिला. कमाल खान और रुचि कुमार की जोड़ी एक आदर्श जोड़ी के रूप में देखी जाती रही है. लखनऊ की इस प्यारी और सेलिब्रिटी जोड़ी को जाने किसकी नज़र लग गई? मेरा दिल रुचि जी के लिए भर भर जा रहा है. ईश्वर उन्हें इस महान दुख को सहन करने की शक्ति प्रदान करें. कमाल भाई अपनी पीटीसी का अंत किसी न किसी शेर से करते थे. कमाल भाई के जाने पर शायर मंज़र लखनवी का ये शेर याद आ रहा है-
जाने वाले जा ख़ुदा हाफ़िज़ मगर ये सोच ले,
कुछ से कुछ हो जाएगी दीवानगी तेरे बग़ैर.
अलविदा कमाल भाई.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
राजकुमार सिंह पत्रकार और लेखक
तकरीबन ढाई दशक से पत्रकारिता में सक्रिय राजकुमार सिंह ने टीवी और अखबार दोनो में काम किया है. सहारा समय और न्यूज 24 चैनलों के अलावा नवभारत टाइम्स लखनऊ के राजनीतिक संपादक रह चुके हैं. वे दैनिक हिंदुस्तान में भी स्थानीय संपादक के तौर पर काम कर चुके हैं. राजनीतिक और सामाजिक विषयों पर गहरी पकड़ के साथ राजकुमार सिंह लेखक भी हैं. उनके गजल संग्रह 'हर किस्सा अधूरा है' का प्रकाशन राजकमल समूह ने किया है. इस संग्रह को उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का दुष्यंत सम्मान भी मिला है.
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