सम्पादकीय

सच दिखाने का हक

Subhi
4 Jun 2021 4:25 AM GMT
सच दिखाने का हक
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सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है कि हर पत्रकार राजद्रोह के कानून के तहत सुरक्षा का हकदार है।

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है कि हर पत्रकार राजद्रोह के कानून के तहत सुरक्षा का हकदार है। सुप्रीम कोर्ट की एक पीठ ने पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ पिछले साल शिमला में दर्ज राजद्रोह का मामला खारिज करते हुए यह बात कही। विनोद दुआ के खिलाफ यह मामला हिमाचल प्रदेश में एक भाजपा नेता की शिकायत पर दर्ज हुआ था। सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में पहले ही उनकी गिरफ्तारी पर रोक लगा रखी थी और पिछले अक्तूबर में सुनवाई पूरी करके फैसला सुरक्षित रख लिया था।

सन 1962 का केदारनाथ सिंह केस इस तरह के मामलों में नजीर माना जाता है और सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले में भी इसी को आधार बनाया है। केदारनाथ सिंह केस में सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह कानून को वैध ठहराया था, लेकिन यह कहा था कि अगर कोई पत्रकार सिर्फ सरकार की आलोचना करे, तो इस आधार पर उसके ऊपर राजद्रोह नहीं कायम किया जा सकता। अगर वह हिंसा के लिए उकसाता है, तभी राजद्रोह का मामला बन सकता है। ऐसे स्पष्ट दिशा-निर्देशों के होते हुए भी पत्रकारों के खिलाफ राजद्रोह के मामले दर्ज होते रहते हैं। राज्य सरकारों की ओर से या उनके प्रोत्साहन से ऐसे मामले बढ़ते जा रहे हैं। ऐसे ज्यादातर मामले अदालत में टिक नहीं पाते, लेकिन इनका उद्देश्य, जो कि पत्रकारों को डराना या प्रताड़ित करना है, पूरा हो जाता है। इस फैसले केदो दिन पहले सुप्रीम कोर्ट की एक और पीठ ने एक अन्य मामले में राजद्रोह कानून के दुरुपयोग पर सवाल उठाते हुए कहा था कि इस कानून के दायरे पर फिर से सोचे जाने की जरूरत है। वह मामला आंध्र प्रदेश का था, जहां एक राजनेता और एक चैनल के दो पत्रकारों पर राजनेता का भाषण दिखाने के लिए राजद्रोह का केस दर्ज किया गया है। सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने फिलहाल एफआईआर पर कार्रवाई रोकते हुए काफी तल्ख टिप्पणियां की हैं। सुप्रीम कोर्ट केन्यायाधीश ने व्यंग्य में पूछा कि क्या गंगा नदी में उतराती लाशों की खबर करने वाले चैनलों पर राजद्रोह का मुकदमा दर्ज किया गया है? जाहिर है, सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश शायद इस बात से वाकिफ हैं कि राजद्रोह के कानून का दुरुपयोग पत्रकारों को अपना नियमित काम करने से रोकने और प्रताड़ित करने के लिए किया जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट के सामने दो पत्रकारों किशोरचंद्र वांगखेम और कन्हैयालाल शुक्ल की याचिका मौजूद है, जिसमें उन्होंने ब्रिटिश राज के दौर के इस कानून को चुनौती दी है। अगर किसी को किसी पत्रकार से या किसी खबर से कोई शिकायत है, तो लोकतंत्र की परंपराओं केमुताबिक उस स्थिति में कार्रवाई करने के तरीके हैं, लेकिन इन दिनों कुछ ऐसा माहौल बन गया है कि सरकारें या सत्ताधारी पार्टी के लोग सीधे राजद्रोह का मामला कायम कर देते हैं। इस कानून का इतिहास यही बताता है कि इसका दुरुपयोग ही ज्यादा होता आया है। अक्सर पत्रकारों या सामाजिक कार्यकर्ताओं या फिर शांतिपूर्ण आंदोलनकारियों के खिलाफ मामला दर्ज करके उन्हें परेशान किया जाता है। ताजा मामले यह बता रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट इस मसले की गंभीरता को समझ रहा है। अगर आला अदालत इस कानून की समीक्षा करकेइसके दुरुपयोग को रोकने की पहल करती है, तो यह हमारे लोकतंत्र केलिए बहुत बेहतर होगा।


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