सम्पादकीय

जीने-मरने का हक

Rani Sahu
25 April 2023 2:30 PM GMT
जीने-मरने का हक
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By: divyahimachal
खुद को संबोधित करने का एक बेहतर तरीका यह भी है कि सामने उपस्थित आशंका को निरस्त कर दो। हिमाचल के मुख्यमंत्री जल उपकर के संबंध में कुछ इसी तरह के अभिप्राय से पंजाब के बाद हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर से भी मुलाकात कर चुके हैं। पानी की क्षमता में कम से कम हिमाचल पड़ोसी राज्यों पर पहली बार भारी पड़ता हुआ, केंद्र सरकार के कानों में रेंगती हुई जूं को देख सकता है। जल उपकर से जुड़ा आत्मसम्मान, आत्मनिर्भरता और भविष्य की आर्थिकी का एक मौलिक गठबंधन पैदा हुआ, जो हद और हैसियत का प्रदर्शन कर रहा है। दरअसल जैसे ही हिमाचल ने पानी की हैसियत बनानी शुरू की है, पड़ोसी राज्यों से लेकर केंद्र तक ने पर्वतीय राज्य को उसकी हद में रहने की एकतरफा प्रतिक्रिया दी है। पहली बार केंद्र सरकार ने ऐसी शर्तें ईजाद की हैं, जिनके तहत राष्ट्रीय विद्युत आबंटन के नए फार्मूले के तहत हिमाचल को दबाव बताया जा रहा है। यानी जो राज्य विद्युत उत्पादन में किसी तरह का उपकर लगाएगा, उसके खाते में राष्ट्रीय स्तर पर बिजली आपूर्ति में प्राथमिकता नहीं आएगी। इसका सीधा सा अर्थ यह कि आइंदा हिमाचल की विद्युत मांग पर पड़ोसी राज्यों के बनिस्पत निचली पायदान पर विचार होगा। यह एक ऐसी चुनौती है, जो प्रदेश को और हाथ पांव मारने को मजबूर करेगी। हिमाचल का विद्युत उत्पादन सर्दियों में अपनी जरूरतों से कहीं कम हो जाता है और लागत से कहीं महंगी दरों पर इसकी आपूर्ति होती है। हालांकि प्रदेश कई स्तरों पर आपसी समझौते के तहत बिजली का लेनदेन करता है, लेकिन राष्ट्रीय हिस्सेदारी में तयशुदा आपूर्ति पर एक तरह से कट लगने की अप्रत्यक्ष धमकी आ रही है।
यह उस प्रदेश को बताया जा रहा है जो राष्ट्रीय हित में पर्यावरण सुरक्षा के हर उपाय में देश के लिए एक उदाहरण है। कल अगर हिमाचल भी कोयले से बिजली बनाना शुरू करके अपनी आपूर्ति सुनिश्चित कर ले, तो इसे क्या कहेंगे। दरअसल केंद्र का यह माप तोल सही नहीं है और न ही अब तक केंद्रीय सरकारों ने पर्वतीय राज्यों के लिए ऐसी आर्थिक भरपाई की है, जिसके तहत पर्यावरणीय बंदिशें हमारे हाथ-पांव फिजूल में बांध कर न रख पाएं। सत्तर फीसदी जमीन जंगल के नाम करने का यह अर्थ नाजायज है कि अपने अतिरिक्त संसाधन जुटाने के प्रयास भी न किए जाएं। अगर जल उपकर को केंद्र सरकार सही नहीं मानती तो इसकी क्षमता में वित्तीय भरपाई करे तथा प्रदेश की विद्युत उत्पादन क्षमता के पूर्ण दोहन के लिए विशेष आर्थिक पैकेज दे। हिमाचल को उसी के हालात पर इस तरह नंगा करना सही नहीं है और अगर शर्तें थोंपने का मतलब पर्वतीय ऊर्जा को निहत्था करना है, तो यह नाइंसाफी है। हिमाचल की आत्मनिर्भरता के सामने खड़ी नाइंसाफी की दीवारें, किसी न किसी तरह ढहानी होंगी और इसके लिए वित्तीय और प्रशासनिक व्यवस्था के साथ नागरिक सहयोग भी आवश्यक है। कभी केंद्र हर योजना-परियोजना की फंडिंग का नब्बे फीसदी खर्चा वाहन करके कुछ हद तक न्याय करता था, लेकिन स्मार्ट सिटी जैसे संकल्पों में उसने यह सीमा 50:50 प्रतिशत कर दी है। इसी तरह की राष्ट्रीय प्राथमिकताओं में भी पर्वतीय राज्यों की गिनती कमजोर पड़ जाती है।
आश्चर्य यह कि एक तरफ श्रीरेणुका जी बांध परियोजना से हिमाचल पुन: विस्थापन के दंश झेल कर राष्ट्र की प्यास बुझाएगा, जबकि दूसरी ओर नसीहत यह कि इस पानी को यूं ही अपने अस्तित्व के ऊपर से गुजर जाने पर भी हाथ-पांव मारने की गुंजाइश न देखे। हिमाचल को अब एक हाथ दे, दूसरे हाथ ले की नीति पर चलते हुए अपने आर्थिक, भौगोलिक, परंपरागत तथा भविष्यगामी अधिकार पुख्ता करने होंगे। पानी के बाद जंगल और जंगल की जमीन ही हिमाचल को जीने और कमाने का हक दिला सकती है। अगर सामान्य श्रेणी के जंगलों की जमीन को हिमाचल के हित में परखा जाए, तो एक बड़े भाग पर चाय, कॉफी, केनेफ व जट्रोफा के वन उगाकर आर्थिक संबल मिलेगा। हिमाचल के आर्थिक विकास का हर पांव अगर जंगल रोक रहा है, तो हमारा हमेशा ‘किस खेत की मूली बनकर’ उपहास ही उड़ता रहेगा। केंद्र एक तरह से जल उपकर के विरोध या नाराजगी में हिमाचल की विवशता पर नमक छिडक़ रहा है, जबकि पूछा जाना चाहिए कि जिन पंजाब व हरियाणा की कुल जमीन का चार फीसदी हिस्सा ही वनों के अधीन है, उन्हें केंद्र आज तक यह क्यों नहीं बता पाया कि कम से कम 50 प्रतिशत भाग पर वन उगा कर वे राष्ट्र के संसाधनों का इस्तेमाल कर सकते हैं। क्या वन राज्य बना रह कर हिमाचल कभी आत्मनिर्भर हो पाएगा या अन्य राज्यों की बराबरी करने के लिए हमें भी कुछ वन क्षेत्र वापस मांगने होंगे।
Rani Sahu

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