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दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक बार फिर यह याद दिलाया है कि जनतंत्र में असहमति और विरोध जताना मौलिक अधिकार है
दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक बार फिर यह याद दिलाया है कि जनतंत्र में असहमति और विरोध जताना मौलिक अधिकार है और अगर नागरिक किसी मुद्दे पर अपनी राय जाहिर करने के लिए इसका सहारा लेते हैं तो इससे देश की नींव को कोई खतरा नहीं है। दरअसल, पिछले कुछ समय के दौरान असहमति और विरोध के मसले पर अदालतों ने जैसा रुख दिखाया है, वह जनतंत्र को लेकर उम्मीद जगाता है।
अब दिल्ली हाई कोर्ट ने तीन विद्यार्थियों को जमानत देते हुए साफ शब्दों में कहा है कि विरोध का अधिकार संवैधानिक रूप से मौलिक अधिकार है और इसे 'आतंकी गतिविधि' करार नहीं दिया जा सकता है। विडंबना है कि अदालत ने जिस तरह किसी कानून की व्याख्या करके आसान शब्दों में यह बताने की कोशिश की है, वह सरकारों को कई बार समझ में नहीं आता है। अगर देश का कोई नागरिक किसी मुद्दे पर सरकार के रुख से असहमत होता है, इस पर विरोध प्रदर्शन में हिस्सा लेता है तो उसे 'आतंकी गतिविधि' के तौर पर कैसे देखा जा सकता है?
हमारे देश में समूची शासन पद्धति जनतंत्र की बुनियाद पर कायम है। लेकिन यह अक्सर देखा गया है कि किसी राजनीतिक या सामाजिक मु्द्दे पर विरोध जताने वाले व्यक्ति को पुलिस गिरफ्तार कर लेती है और उस पर कभी आतंकवाद या कभी देशद्रोह से निपटने वाली सख्त कानूनी धाराएं लगा दी जाती हैं। इसके चलते आरोपी को जमानत तक मिल पाना मुश्किल हो जाता है।
संभव है कि सरकार ने संशोधित नागरिकता कानून यानी सीएए सोच-समझ कर लागू किया हो। लेकिन यह जरूरी नहीं है कि देश के सभी नागरिक बिना सवाल किए उससे सहमति रखें। दिल्ली में इस मसले पर पिछले साल व्यापक विरोध प्रदर्शन हुए थे, जिसमें बहुत सारे लोगों सहित जेएनयू और जामिया मिल्लिया के बहुत सारे विद्यार्थियों ने भी हिस्सा लिया था। इसी दौरान दिल्ली में हुए दंगों के बाद कुछ विद्यार्थियों को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था और उन पर यूएपीए जैसे सख्त कानून की धाराएं लगा दी थीं, जिसका उपयोग आमतौर पर आतंकी गतिविधियों में शामिल आरोपियों पर किया जाता है।
यह एक तरह से बेहद अपरिपक्व तरीका था, जिसके बारे में अदालत ने ठीक टिप्पणी की है कि गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) कानून में उपयोग किए गए निश्चित शब्दों और वाक्यांशों को लागू करने के दौरान बेहद सावधानी बरतनी होगी। साथ ही अदालत की यह राय बेहद अहम है कि असंतोष को दबाने और मामले के हाथ से निकलने के डर से राज्य ने संवैधानिक गारंटी वाले विरोध के अधिकार और आतंकी गतिविधि के बीच की रेखा को धुंधला किया है। क्या इस तरह की अपरिपक्व कार्रवाइयों से लोकतंत्र को बचाया जा सकता है? क्या यह इस तरह के कानूनों के मकसद को बेमानी नहीं बना देगा? गौरतलब है कि संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (बी) के तहत विरोध प्रदर्शन करना मौलिक अधिकार है।
किसी भी देश में जनतंत्र और जनतांत्रिक शासन पद्धति का जीवन तभी कायम रह सकता है, जब तक वहां असहमति और विरोध जताने को अधिकार के तौर पर जगह मिलती हो। इस अधिकार के हनन से आखिरकार वहां जनतंत्र की बुनियाद कमजोर होगी। सवाल है कि संविधान में दर्ज जनतांत्रिक अधिकारों की रक्षा का दायित्व संभालती सरकारों को यह ध्यान रखना जरूरी क्यों नहीं लगता है कि उसकी किसी गतिविधि या कार्रवाई से जनतंत्र पर सैद्धांतिक सवाल खड़े हो सकते हैं और उसकी रक्षा नहीं कर पाने के लिए खुद उसे कठघरे में खड़ा किया जा सकता है!
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