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- अबॉर्शन का अधिकार
नवभारत टाइम्स; सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसले में गुरुवार को कहा कि अविवाहित लड़कियों को भी गर्भपात का अधिकार है। शीर्ष अदालत ने साफ किया कि किसी को सिर्फ इस आधार पर गर्भपात के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता कि वह शादीशुदा नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने जिस याचिका पर सुनवाई करते हुए यह फैसला सुनाया, वह इस बात का सबूत है कि आज भी समाज के अलग-अलग हिस्सों में विवाह पूर्व सेक्स संबंध बनाए जाने को लेकर कितने पूर्वाग्रह हैं। 24वें हफ्ते के गर्भ से गुजर रही इस लड़की के माता-पिता खेती से जुड़े हैं। उसका पार्टनर शादी करने से इनकार कर चुका है।
पांच भाई बहनों में एक, यह लड़की सिंगल मदर के रूप में बच्चे का पालन-पोषण करने में खुद को असमर्थ पा रही है। ऐसे में वह बच्चे को जन्म नहीं देना चाहती। बावजूद इसके हाईकोर्ट में उसकी याचिका इस आधार पर खारिज हो गई कि वह शादीशुदा नहीं है और एमटीपी (मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी) रूल्स 2003 के मुताबिक 20 हफ्ते से ज्यादा हो जाने के बाद जिन खास मामलों में गर्भपात की इजाजत दी जा सकती है उनमें अविवाहित लड़कियों के केस शामिल नहीं हैं। मगर सुप्रीम कोर्ट ने आधुनिक और प्रोग्रेसिव रुख अपनाते हुए कानून की उदार व्याख्या करने की जरूरत समझी।
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शीर्ष अदालत ने ध्यान दिलाया कि इसी कानून के 2021 में संशोधित प्रावधानों में पति के बजाय पार्टनर शब्द का इस्तेमाल किया गया है, जिसका मतलब यह है कि कानून निर्माता इसके प्रावधानों को शादीशुदा रिश्तों तक सीमित रखने के हक में नहीं थे। वैसे भी स्त्री-पुरुष संबंधों को लेकर समाज की सोच तेजी से बदल रही है। यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि खुद सुप्रीम कोर्ट लिव इन रिलेशन को मान्यता दे चुका है। ऐसे में कोई कारण नहीं कि कानून की संकीर्ण व्याख्या करते हुए किसी महिला के निजी स्पेस में दखल दिया जाए।
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हर महिला का उसके शरीर पर पूरा अधिकार होता है। गर्भ रखने या बच्चे को जन्म देने से संबंधित फैसले संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत उसे मिले पर्सनल लिबर्टी के अधिकार का अभिन्न हिस्सा हैं। जाहिर है, किसी महिला को सिर्फ इसलिए गर्भ रखने या बच्चे को जन्म देने के लिए विवश करना कि वह शादीशुदा नहीं है, उसके साथ ज्यादती है। सुप्रीम कोर्ट ने ठीक ही आदेश दिया कि अगर विशेषज्ञों की समिति कह देती है कि अबॉर्शन से उस महिला के जीवन को खतरा नहीं है तो उसे इस विकल्प को चुनने से नहीं रोका जा सकता। उम्मीद करें कि शीर्ष अदालत का यह फैसला हमारी अदालतों को ऐसे तमाम मामलों में उदार और प्रगतिशील रुख अपनाने को प्रेरित करेगा।