सम्पादकीय

समाज की उलटी दिशा

Gulabi
9 Sep 2021 5:05 PM GMT
समाज की उलटी दिशा
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सदियों तक गुलामी की जंजीर में रहने के बाद भारत के पुनरुत्थान की कहानी समाज सुधार के आंदोलनों के साथ शुरू हुई थी

By NI एडिटोरियल.

अब अगर समाज उसके पहले जहां था, उसी दिशा में जाने के लिए मुड़ चुका है, तो सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि इसका क्या परिणाम होगा। इस दिशा के संकेत अनेक हैं। उनमें ही एक ताजा मामला मध्य प्रदेश के दमोह जिले के एक आदिवासी बहुल गांव में सामने आया। (girls romed nude village)


सदियों तक गुलामी की जंजीर में रहने के बाद भारत के पुनरुत्थान की कहानी समाज सुधार के आंदोलनों के साथ शुरू हुई थी। राजा राममोहन राय, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, ज्योति बा और सावित्री बाई फुले, महर्षि दयानंद, स्वामी विवेकानंद से लेकर महात्मा गांधी तक को जोड़ने वाले तार उनके समाज सुधार के लिए किए गए प्रयत्न ही थे। अब अगर समाज उसके पहले जहां था, उसी दिशा में जाने के लिए मुड़ चुका है, तो सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि इसका क्या परिणाम होगा। इस दिशा के संकेत अनेक हैं। उनमें ही एक ताजा मामला मध्य प्रदेश के दमोह जिले के एक आदिवासी बहुल गांव में सामने आया। यह देखने की बात है कि आज के दौर में भी कैसे-कैसे विश्वास इस देश में प्रचलित हैं। उससे भी ज्यादा ध्यान देने की बात यह है कि उन अंधविश्वासों को लेकर समाज में कोई बेचैनी नहीं फैलती है। ऐसी घटनाएं महज एक छोटी खबर बन कर रह जाती हैँ। बहरहाल, मध्य प्रदेश का वो इलाका फिलहाल बारिश काफी कम होने की वजह से सूखे से जूझ रहा है।

अब ये चलन तो लगातार जारी है कि ग्रामीण इलाकों में अक्सर ऐसा होने पर स्थानीय मान्यताओं के अनुसार कई टोटके किए जाते हैं। माना जाता है कि इन टोटकों से बारिश होगी। तो दमोह जिले के उस गांव भी ऐसा किया गया। लेकिन वहां के लोगों का ये अंधविश्वास छोटी बच्चों के शोषण की कहानी है। बारिश करवाने के लिए कम से कम छह नाबालिग लड़कियों को निर्वस्त्र कर गांव में वहां घुमाया गया। मीडिया रिपोर्टों से साफ है कि इस रिवाज को गांव के सभी लोगों की सामूहिक स्वीकृति थी। इनमें इन लड़कियों के माता-पिता भी शामिल थे। तो जाहिर है कि प्रशासन को इस मामले में किसी भी गांव वाले से कोई शिकायत भी नहीं मिली। अब प्रशासन कहना है कि चूंकि किसी ने शिकायत नहीं की, इसलिए वह कोई कार्रवाई नहीं कर सकता। यानी वह लाचार है। जिला कलेक्टर की ये टिप्पणी गौरतलब है- "ऐसे मामलों में प्रशासन सिर्फ गांव वालों को बता सकता है कि ऐसा अंधविश्वास बेकार है। वह उन्हें समझा सकता है कि इससे लाभ नहीं मिलता है।" मुमकिन है प्रशासन के सामने कानूनी सीमाएं हों। लेकिन समाज के नेतृत्व का दावा करने वाले राजनीतिक दल और सामाजिक संगठनों की आखिर क्या मजबूरी है कि उन्होंने समाज सुधार का एजेंडा छोड़ दिया है?
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