सम्पादकीय

पुस्तक वितरण की रेवड़ी संस्कृति, मगर इस दुनिया में कुछ भी नि:स्वार्थ नहीं होता

Rani Sahu
20 Aug 2022 6:53 PM GMT
पुस्तक वितरण की रेवड़ी संस्कृति, मगर इस दुनिया में कुछ भी नि:स्वार्थ नहीं होता
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शहर के एक स्वनामधन्य कवि मुझसे मिलने आए। पूरे तीन घंटे तक मेरे बैठकखाने को अपना ड्राइंग रूम समझकर सोफे में धंसे रहे

सोर्स - जागरण

सूर्यकुमार पांडेय : शहर के एक स्वनामधन्य कवि मुझसे मिलने आए। पूरे तीन घंटे तक मेरे बैठकखाने को अपना ड्राइंग रूम समझकर सोफे में धंसे रहे। इतनी देर तक तो वह अपने घर के ड्राइंग रूम में भी नहीं बैठते होंगे। कवि महोदय आते ही कहने लगे, 'बहुत दिनों से आपके दर्शन नहीं हुए थे। सोचा, आज आपसे मिल ही लूं!' मैंने सकुचाते हुए कहा, 'मेरे धन्य भाग, लेकिन दर्शन तो भगवान के किए जाते हैं।' वह बोले, 'आपका घर भी तो हम सबके लिए एक मंदिर जैसा ही है।' वैसे उनका मेरे यहां आना मात्र एक बहाना था। दरअसल उन्हें मुझको अपना हाल ही में छपा हुआ प्रतिनिधि गीत संकलन भेंट करना था।
उन्होंने बताया कि यह पुस्तक इसी वर्ष प्रकाशित हुई है। मैंने कहा, 'आप प्रकाशित ही कह देते, तब भी चलता। मैं समझ जाता कि जो प्रकाशित हुई है, वह शर्तिया पुस्तक ही होगी।' वह बोले, 'जी आप सही कह रहे हैं। अब पुस्तकें छपती कहां हैं, प्रकाशित ही होती हैं।' सच बात है। जब से त्वरित मुद्रण की आधुनिक तकनीक आई है, पुस्तकें रातोंरात प्रकाश में आने लग गई हैं। वह अलग बात है कि उनमें से अधिकांश अंधकार फैलाने का काम करती हैं।
मैंने उस गीत संकलन को सरसरी निगाहों से उलट-पलट कर देखा। वह बोले, 'ये कविताएं कैसी लग रही हैं?' मैंने कहा, 'इनमें से कुछ गीत तो आपके पिछले वाले संकलन में भी पढ़े थे।' वह हंसते हुए बोले, 'इसीलिए तो मैंने इस बार अपनी पुस्तक का नाम प्रतिनिधि गीत संकलन रखा है।' मैंने भी हंसते हुए कहा, 'आपकी पुस्तक-प्रकाशन की कार्यशैली भी ठीक उस मुख्यमंत्री जैसी ही है, जो जब चाहते हैं तब नया गठबंधन बना लिया करते हैं और फिर अपनी नई सरकार गठित कर लेते हैं। आपके पुराने गीतों की तरह ही उनके वही पुराने लोग दोबारा मंत्री बन जाते हैं। मुझे तो आपके पुस्तक-प्रकाशन और उनके सुशासन के दावे में कोई विशेष अंतर नजर नहीं आता।' वह खीझते हुए बोले, 'आप बड़े हैं, इस नाते आपकी आलोचना भी मेरे लिए पूजा के प्रसाद जैसी है। आपने अभी क्या देखा है? अगले साल मेरी योजना एक महाग्रंथ प्रकाशित करने की भी है। वह मेरी आखिरी पुस्तक होगी। फिलहाल उसी के मंसूबे पालने-पोसने में लगा हुआ हूं।'
मेरे एक और जानने वाले हैं। वह पहले सरकारी सेवा में थे। सेवानिवृत्ति के बाद कोई काम नहीं बचा तो कवि बन गए। साल बीतते-बीतते वह भी अपनी दो किताबें तो छपवा ही लिया करते हैं। मैं उन्हें आत्मनिर्भर साहित्यकार कहता हूं। वह प्रकाशकों की जी-हुजूरी नहीं करते। दो महीने की पेंशन खर्च कर देते हैं। इतने में उनकी दो किताबें भी छप जाती हैं और जो धनराशि बच जाती है, उससे उन पुस्तकों के विमोचन समारोह का खर्चा निकल आता है। उनका मानना है कि साहित्य-साधना मां सरस्वती की पूजा है, इसलिए जो भाव-पुष्प और शब्द-सुमन एक बार मां वीणावादिनी के चरणों में चढ़ चुके हैं, उनकी कीमत नहीं लगाई जा सकती है। इसके चलते वह अपनी पुस्तकों को बेचना एक गर्हित कार्य समझते हैं। वह जिससे भी मिलते हैं, उसे बिना कहे अपनी पुस्तकें नि:शुल्क और सप्रेम भेंट लिख कर अवश्य देते हैं। वह यह भूल जाते हैं कि उनकी यह आत्मनिर्भरता सामने वाले की शर्मिंदगी का कारण बन जाया करती है।
उनके नि:शुल्क पुस्तक-वितरण की यह रेवड़ी संस्कृति कम से कम मेरे गले तो नहीं उतरती। वह भी कुछ दिनों पहले मुझे अपनी पुस्तकें भेंट कर गए हैं। इस दुनिया में कुछ भी नि:स्वार्थ नहीं होता है। जो वर्तमान में हमें मुफ्त में मिलता है, भविष्य में उसके लिए हमें भारी कीमत चुकानी पड़ती है। आज हमें मुफ्त की रेवड़ी का स्वाद भले ही अच्छा लगे, लेकिन हम इस पर चिपके हुए अपेक्षा के सफेद तिलों की भाषा और भाव से सर्वथा अनभिज्ञ रहते हैं। कोई लेखक जब हमें मुफ्त की पुस्तकें भेंट करता है तो वह चाहता है कि हम उसकी प्रशंसा में चंद शब्द जरूर लिखेंगे। उसी तरह कोई नेता भी जब मुफ्त की योजनाओं का वादा करता है तो उसका सीधा और साफ मतलब यह ही हुआ करता है कि हम अगली बार उसकी पार्टी के पक्ष में ही मतदान करेंगे। कविवर प्लेट की नमकीन और मेरी खोपड़ी, दोनों एक साथ चाटकर विदा हुए। मैंने उन्हें धन्यवाद कहकर रवाना किया।
Rani Sahu

Rani Sahu

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