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अमेरिकी सेना की वापसी
अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन घोषणा कर चुके हैं कि अफगानिस्तान से अमेरिकी-नाटो सैनिकों का पूरा निकास 11 सितंबर, 2021 तक पूरा हो जाएगा। उल्लेखनीय है कि इसी दिन तालिबान ने अमेरिका पर हमला किया था। इससे पहले पूर्व राष्ट्रपति ओबामा और डोनाल्ड ट्रंप ने अफगानिस्तान से इन सैनिकों की वापसी की समय सीमा दी थी, मगर उस पर अमल नहीं कर सके। दरअसल अफगानिस्तान में जारी खून-खराबा ने इसकी इजाजत ही नहीं दी। कुछ ऐसे ही हालात अब बन रहे हैं। इसलिए बाइडन प्रशासन ने अफगान सरकार को भरोसा दिलाया है कि 11 सितंबर के बाद भी अमेरिका अफगानिस्तान का पूरा ख्याल रखेगा और दहशतगर्दों के हवाले नहीं होने देगा। अमेरिका के विदेश मंत्री ने भी कहा है कि अमेरिका अफगानिस्तान से अपनी फौजें वापस बुलवा रहा है, पर वह अफगानी अवाम के साथ खड़ा है।
दूसरी तरफ इन दिनों अफगानिस्तान में कानून व्यवस्था बुरी तरह चरमरा गई है। हिंसा रुकने का नाम ही नहीं ले रही। अमेरिकी व नाटो सैनिकों की वापसी से पहले ही अफगानिस्तान में ताबड़तोड़ हिंसा ने आतंकवादियों के इरादे साफ कर दिए हैं। तालिबान अमेरिकी सैनिकों का पूरी तरह निकास चाहते हैं। ईद के अवसर पर तालिबान ने तीन दिनों के संघर्ष विराम की घोषणा की थी, जबकि इसके दूसरे दिन ही काबुल की एक मस्जिद में धमाका हुआ, जिसमें दर्जनों लोग मारे गए। अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी ने सीधे तौर पर पाकिस्तान को ही इन हालात का जिम्मेदार ठहराया है। उनका कहना है कि तालिबान की पूरी व्यवस्था वहीं से संचालित होती है। ये सब होते हुए भी अमेरिका पाकिस्तान से तालिबान व अफगान सरकार के बीच समझौता कराने की कोशिश कर रहा है। पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल बाजवा की हाल की अफगानिस्तान यात्रा भी इसकी पुष्टि करती है।
लेकिन इससे कुछ हासिल होने वाला नहीं है। यह वही पाकिस्तान है, जिसने ओसामा बिन लादेन को पाकिस्तान में छिपाए रखा था। देखा जाए, तो यह सब एक सोची-समझी साजिश के तहत हो रहा है। अफगानिस्तान को गृहयुद्ध की तरफ धकेला जा रहा है। इसके पीछे चीन भी खड़ा है। अफगानिस्तान में मौजूद प्राकृतिक संसाधनों पर चीनी कंपनियों की नजर टिकी हुई है। पाकिस्तान भी अफगानिस्तान में पहले की तरह कठपुतली सरकार बनाना चाहता है, जो उसके इशारों पर नाच सके। तस्वीर का एक रुख यह है कि अफगान शहरियों को अफगानिस्तान से अमेरिकी नाटो फौजों की वापसी का डर भी सता रहा है कि फिर उन्हें तालिबान से कौन बचाएगा। इसलिए वे अपने घरों को छोड़ने पर मजबूर हो गए हैं। अल्पसंख्यक समुदाय के सिख व हिंदू बड़ी संख्या में पहले ही अफगानिस्तान छोड़ कर दूसरे देशों में पलायन कर गए हैं। ऐसे ही अफगानिस्तान में एक बार फिर लड़कियों व महिलाओं का जीना मुश्किल हो गया है।
हाल ही में काबुल में बच्चियों के एक स्कूल पर हमला हुआ, जिसमें 40 लोगों की मौत हो गई, मरने वालों में ज्यादातर 11 से 15 वर्ष की छात्राएं थीं। यह इस बात को दर्शाता है कि इन बच्चियों की खता यह थी कि वे पढ़ना चाहती थीं और दहशतगर्द ऐसा नहीं चाहते हैं। दशहतगर्दों का मानना है कि महिलाओं का काम बच्चे पैदा करना और घर का काम संभालना ही है। अमेरिकी खुफिया एजेंसी यू.एस. नेशनल काउंसिल ने अपनी ताजा रिपोर्ट में कहा है कि अगर तालिबान ने अफगानिस्तान की सत्ता दोबारा हासिल कर ली, तो वे फिर महिलाओं के अधिकारों को कुचलने से बाज नहीं आएंगे। अफगानिस्तान में मौजूद प्राकृतिक संसाधनों का कोई लाभ ऐसे जरूरतमंद लोगों को कभी न तो मिला है और न ही इसकी उम्मीद है। इसलिए वहां गरीबी और बढ़ेगी। भारत हमेशा अफगानिस्तान की लोकतांत्रिक सरकारों के साथ रहा है। भारत का बहुत कुछ अफगानिस्तान में दांव पर लगा हुआ है। भारत को पता है कि तालिबान दोबारा वापस आ गए, तो अफगानिस्तान में उसने जो विकास का काम किया है उसको नुकसान पहुंचेगा। दुनिया जानती है कि तालिबान भारत को अफगानिस्तान में देखना नहीं चाहते। देखना यह है कि अगले चंद दिनों में अफगानिस्तान के हालात क्या करवट लेते हैं!
क्रेडिट बाय अमर उजाला
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