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- बिहार में जंगल राज की...
आदित्य चोपड़ा: बिहार में जो राजनैतिक 'खेला' पिछले दिनों यहां के मुख्यमन्त्री श्री नीतीश कुमार ने किया उसकी असलियत यही है कि उन्होंने एक बार फिर इस राज्य को 'जंगल राज' के हवाले करने का निर्णय सिर्फ खुद को पद पर बनाये रखने के लिए किया। अगर ऐसा न होता तो नीतीश बाबू उन्हीं लालू जी के साथ हाथ न मिलाते जिनकी राजनीति के विरुद्ध उन्होंने पहले समाजवादी नेता स्व. जार्ज फर्नांडीज के साथ समता पार्टी और बाद में उसका जनता दल(यू) में विलय किया और लालू की राष्ट्रीय जनता दल पार्टी के विरुद्ध बिहार में समानान्तर राजनैतिक विमर्श खड़ा किया। क्या अपने राजनैतिक जीवन के अन्तिम दौर में उनका यह समर्पण कहा जायेगा? यदि ऐसा है तो बिहार को उस जंगल राज से कैसे बचाया जा सकता है जो श्रीमान लालू व उनकी पत्नी राबड़ी देवी के राज में जंगल राज का पर्याय माना जाने लगा था। आपराधिक माफिया व राजनैतिक गठजोड़ का बिहार में इतिहास बहुत पुराना नहीं है।इस सैद्धान्तिक लड़ाई को विशुद्ध जातिगत व सम्प्रदाय गत आधार देने में लालू प्रसाद की पार्टी की प्रमुख भूमिका रही जिसका मुकाबला नीतीश बाबू ने भाजपा के साथ मिल कर बखूबी किया। परन्तु इस लड़ाई में राज्य की केन्द्रीय राजनैतिक पार्टी कांग्रेस की भूमिका हांशिये पर खिसकती चली गई जिसकी वजह से बिहार में जाति युद्ध 90 के दशक तक अपने उग्र व चरम स्वरूप में पहुंचा। वास्तव में यह बिहार की राजनीति का पतन काल कहा जायेगा क्योंकि इसमें सिद्धान्तों की जगह व्यक्तियों ने ले ली और उन्होंने अपने-अपने जातिगत कबीलों के आधार पर बिहार के लोगों को लोकतान्त्रिक दौर से बाहर लाकर कबायली दौर में पटक दिया। अपराधी माफिया व राजनीतिज्ञों के गठबन्धन का यह स्वर्णिम काल भी कहा जायेगा। पिछले 2020 के विधानसभा चुनाव में नीतीश बाबू की पार्टी जनता दल(यू) भाजपा की छोटी बहिन की तरह उभरी । इसकी असली वजह यह थी कि लगातार पिछले तीन चुनावों से मुख्यमन्त्री रहते नीतीश बाबू की शासनकाल की खामियां उजागर होने लगी थीं जिन्हें ढांपने का काम देश के प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने स्वयं इन चुनावों में प्रचार की कमान अपने हाथ में लेकर किया। श्री मोदी ने अपनी देश व्यापी शासन प्रवीण होने की छवि से नीतीश बाबू की ढलती लोकप्रियता और लचर होती छवि को संभालने का प्रयास किया जिसमें वह सफल रहे और राज्य में पुनः भाजपा व जनता दल(यू) की सरकार नीतीश बाबू के नेतृत्व में ही गठित हुई। परन्तु नीतीश बाबू बिहार के भीतर ही अपनी पार्टी के भाजपा के साये में होने को बर्दाश्त नहीं कर पाये और उन्होंने वह प्रयोग करना चाहा जिसमें उनकी छवि फिर से अलग दिखाई देने लगे। आखिरकार 2015 से 2017 तक पहले भी वह इस संगत में रह चुके थे। तब उन्होंने लालू पुत्रों पर भ्रष्टाचार के आरोपों को ही मुद्दा बना कर राष्ट्रीय जनता दल का साथ छोड़ा था और भाजपा की बांह पकड़ी थी। हालांकि 2015 का चुनाव उनकी पार्टी ने लालू जी की पार्टी के साथ ही मिल कर उसे महागठबन्धन का नाम देकर लड़ा था। परन्तु इस बार उन्होंने जो पल्टी मारी है उसकी दास्तान कुछ अलग है। यह दास्तान बिहार को उसके ही हाल पर छोड़ने की है। तेजस्वी यादव उप मुख्यमन्त्री बनाये गये हैं और सरकार में राष्ट्रीय जनता दल के नेताओं का बोलबाला इस तरह है कि तेजस्वी के भ्राता तेजप्रताप अपने विभाग की मन्त्री स्तरीय सरकारी बैठक में अपने बहनोई को अपने बगल में बैठाते हैं। यह सांकेतिक हो सकता है मगर बिहार का सही हाल बयान करने के लिए काफी है। मगर जिस तरह कल पटना की सड़कों पर शिक्षकों की भर्ती का इम्तेहान पास किये हुए अभ्यर्थियों पर पुलिस व प्रशासन ने जुल्म ढहाया उससे यही पता चलता है कि बिहार में जंगल राज की वापसी हो रही है क्योंकि 2020 के चुनाव में महागठबन्धन और सत्तारूढ़ भाजपा-जनता दल(यू) गठबन्धन की सीटों में ज्यादा अन्तर नहीं था और इन चुनावों में स्वयं तेजस्वी यादव ने युवकों से वादा किया था कि उनकी सरकार आने पर पहली कलम से ही वह सभी लम्बित पड़े पदों पर नियुक्ति करेंगे। शिक्षकों की परीक्षा तो 2019 में हुई थी। इसमें सफल उम्मीदवार तीन साल बीत जाने के बाद भी नियुक्ति पत्र का इन्तजार कर रहे हैं और तेजस्वी बाबू उपमुख्यमन्त्री बने हुए हैं तो युवा इन्तजार क्यों करें । मगर क्या कयामत है कि एक संभावित शिक्षक को पटना का ही एक अधिकारी लिटा-लिटा कर डंडा बरसा रहा है और उसके हाथ के तिरंगे का भी लिहाज नहीं कर रहा है। यही है बिहार की असली स्थिति।