सम्पादकीय

देवस्थानम बोर्ड की वापसी : जीत के लिए 2 कदम पीछे हटना क्या नए बीजेपी की पहचान है

Rani Sahu
30 Nov 2021 3:28 PM GMT
देवस्थानम बोर्ड की वापसी : जीत के लिए 2 कदम पीछे हटना क्या नए बीजेपी की पहचान है
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पिछले कुछ दिनों में दो ऐसे फैसले हैं जो बीजेपी सरकार को पलटने पड़े हैं

पंकज कुमार पिछले कुछ दिनों में दो ऐसे फैसले हैं जो बीजेपी सरकार को पलटने पड़े हैं. एक कृषि कानून जिसे केन्द्र सरकार ने पलटा, वहीं दूसरा उत्तराखंड में बीजेपी सरकार के मुखिया पुष्कर सिंह धामी ने देवस्थानम बोर्ड को पलटकर जता दिया कि बीजेपी पूरी तरह से चुनावी मोड में उतर आई है. ज़ाहिर है इन दो फैसलों को पलटकर बीजेपी यूपी सहित उत्तराखंड में चुनावी जीत की ओर देख रही है, जो उसके लिए गले की फांस बनकर रह गई थी.

बीजेपी अपने दो फैसलों पर अड़े रहने का खामियाजा पूर्व में भुगत चुकी है. हिमाचल प्रदेश में शांता कुमार के शासन में काम नहीं तो वेतन नहीं का फॉर्मुला पूरी तरह से बैक फायर कर गया था. वहीं यूपी में चीटिंग रोकने की वजह से रिजल्ट में गिरावट होने पर कल्याण सिंह के नेतृत्व की सरकार में जनता की आवाज बीजेपी विरोध में उठने लगी थी.
कड़े फैसले को पलटना बीजेपी ने कैसे सीखा है?
राजनाथ सिंह यूपी में नकल अध्यादेश के चलते मशहूर हुए थे. नकल कर रहे विद्यार्थियों को सीधा गिरफ्तार किया जाता था और जमानत कोर्ट से मिलती थी. पूरे प्रदेश में नकल का नामोनिशान मिट गया था और पास का पर्सेंट बुरी तरह नीचे गिर चुका था. बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद 1993 में यूपी में चुनाव हुए. एसपी और बीएसपी गठबंधन के सामने बीजेपी 213 के बहुमत आंकड़ों से पीछे 177 पर सिमट गई. राजनाथ सिंह खुद कड़े फैसले की वजह से सराहे गए. लेकिन लखनऊ के पास की महोना सीट से चुनाव में उनकी हार हुई. चुनाव में हार की जब समीक्षा हुई तो ये भी सुना गया कि राजनाथ सिंह तो शिक्षकों और बच्चों की हाय की भेंट चढ़ गए.
कमोबेश यही हाल शांता कुमार के सीएम रहते हिमाचल प्रदेश में हुआ था. काम नहीं तो वेतन नहीं के फॉर्मुले पर शांता कुमार ने समझौता नहीं किया. जनता इतनी नाराज हुई कि बीजेपी पार्टी ने ही प्रदेश की राजनीति से शांता कुमार को दरकिनार करना ही मुनासिब समझा. कहा जाता है कि त्रिवेन्द्र सिंह रावत भी देवस्थानम बोर्ड पर लिए गए फैसलों की वजह से हाशिए पर धकेल दिए गए. बीजेपी नेता शांता कुमार ने अपनी आत्मकथा 'निज पथ का अविचल पंथी' में अवसरवादी राजनीतिक माहौल को भांपते हुए बहुत कुछ साफ लिख दिया, जिसमें बीजेपी के लिए आने वाले समय में मार्गदर्शन की झलक थी.
शांता कुमार ने बीजेपी को राष्ट्र निर्माण में आशा की अंतिम किरण बताते हुए हिदायत दी थी कि सिद्धांतों से समझौता नेतृत्व को कभी नहीं करनी चाहिए. शांता कुमार ने अपनी किताब में शंका ज़ाहिर किया था कि अपने दर्शन से बीजेपी भटक गई तो फिर देश का भविष्य अंधकारमय होने से कोई रोक नहीं सकता है. शांता कुमार ने सत्ता के लिए की जाने वाली राजनीति के प्रति आगाह करते हुए चिंता ज़ताई थी कि राजनीति अब देश के लिए नहीं बल्कि सत्ता के लिए होने लगी है. ज़ाहिर है शांता कुमार के हाशिए पर धकेले जाने का मर्म उनकी किताबों में झलका, लेकिन तबकी बीजेपी अब नए स्वरूप में है और राजनीति में सत्ता के लिए दो कदम पीछे खिसकाना बखूबी सीख चुकी है.
देवस्थान बोर्ड को निरस्त करना बीजेपी के लिए कैसे बनी मज़बूरी
बीजेपी उत्तराखंड में वर्तमान राजनीति को धरातल पर उतरकर देखने का प्रयास कर रही है. इस कड़ी में बीजेपी ने तीन सीएम के सिर पर ताज पहना कर अलग अलग प्रयोग किए है. त्रिवेन्द्र सिंह रावत श्राइन बोर्ड की तर्ज पर चार धामों और 53 मंदिरों पर सरकारी नकेल कसना चाहते थे, जिससे वहां श्रद्धालुओं द्वारा अर्जित किए गए धन से राज्य का भी कल्याण किया जा सके. त्रिवेन्द्र सिंह ने सितंबर 2019 में जो फैसले लिए थे उसको वहां के पुरोहितों और पंडितों ने अपने हक के विरोध में समझते हुए पुरजोर विरोध करना ही मुनासिब समझा. आलम यह हुआ कि पीएम के चंद दिनों पहले हुए दौरे में त्रिवेन्द्र सिंह रावत का पुरजोर विरोध हुआ और उन्हें मंदिर परिसर से बाहर निकालने की मांग होने लगी. इतना ही नहीं चारों धाम सहित 53 मंदिरों के पुजारियों ने आने वाले विधानसभा चुनाव में बीजेपी के विरोध का पूरी तरह से एलान कर दिया.
ऐसे में पार्टी बैकफुट पर दिखी और सरकार के नए मुखिया पुष्कर सिंह धामी ने मौके की नज़ाकत को समझते हुए रोल बैक करना ही मुनासिब समझा. ज़ाहिर है अपनी ही सरकार की पॉलिसी को पलट कर नाराज लोगों को साथ करना सरकार की मज़बूरी बन गई है. वैसे कांग्रेस और आम आदमी पार्टी बीजेपी को देवस्थानम बोर्ड के मुद्दे पर बैकफुट पर धकेल रही थी. इसलिए बीजेपी देवस्थानम मुद्दे को निरस्त कर चुनाव में बड़ा मुद्दा बनने से इसे हर हाल में रोकना ही कारगर उपाय समझी और बोर्ड को निरस्त कर विपक्ष के हाथ लग रहे नए मुद्दों को वापस झपटने का प्रयास किया है.
आम आदमी पार्टी और कांग्रेस की काट के लिए बीजेपी ने पलटा अपना दांव
बीजेपी ने सीएम के तौर पर तीन चेहरों का प्रयोग किया है. पुष्कर सिंह धामी इन चेहरों में नए नाम हैं, जिनके पास महज तीन महीने भी शेष नहीं रह गए हैं. ऐसे में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी द्वारा देवस्थानम बोर्ड को निरस्त करने को लेकर मुद्दा बनाना बीजेपी को बैकफुट पर धकेलने के लिए पर्याप्त बन चुका था. कांग्रेस जानती है कि उत्तराखंड में एक बार बीजेपी तो दूसरी बार कांग्रेस का आना तय है. इसलिए कांग्रेस के प्रमुख नेता हरीश रावत उत्तराखंड में दलित सीएम बनाने को लेकर मुखर दिखाई पड़ रहे हैं. गौरतलब है कि हरीश रावत ऐसा कर पाने में पंजाब में सफल हुए हैं, जहां के वो कांग्रेस के प्रभारी हैं.
इसलिए बीजेपी कांग्रेस के पास कोई नया मुद्दा हथियार के तौर पर प्रयोग करने के लिए छोड़ना नहीं चाहती है. इस सबके बीच उत्तराखंड में आम आदमी पार्टी भी पूरी तरह ताकत झोंके बैठी है जो सत्ता में बैठी बीजेपी के लिए नई चुनौती के रूप में पेश आ रही है. अरविन्द केजरीवाल अपने चिर परिचित अंदाज में लोकलुभावन नारों से जनता को आकर्षित करने में जुटे हैं वहीं बीजेपी इस मिथ को तोड़ना चाहती है कि किसी पार्टी की सरकार दोबारा शासन सत्ता में वापस लौट नहीं सकती है.
विकास के कामों के बखान से सत्ता में वापसी की गुंजाइश कहां तक?
बीजेपी हर घर नल और 12 हजार करोड़ की लागत से बन रहे सड़कों की बात उछाल उत्तराखंड में विकास के प्रयासों को गिनाने से पीछे नहीं हट रही है. लेकिन बीजेपी जानती है चुनाव जीतने के लिए भावनात्मक मुद्दे कारगर हाथियार होते हैं. इसलिए बीजेपी अपने खिलाफ ऐसे हथियार विरोधियों के हाथों सौपना नहीं चाहती है. पिछले चुनाव में यशपाल आर्य समेत कई नेता कांग्रेस से बीजेपी में आए, जिनमें पांच नेताओं को बीजेपी सरकार में मंत्री बनाया गया. आम आदमी पार्टी इसे कांग्रेस के मंत्री और बीजेपी की सरकार कह कांग्रेस समेत बीजेपी को बुरी तरह घेरने का प्रयास कर रही है.
यशपाल आर्य चुनाव से पहले मंत्री पद छोड़कर अपने बेटे के साथ कांग्रेस वापस चले गए हैं. वहीं कई लोग टिकट नहीं मिलने पर दल बदल की भावना से अपने दल को नुकसान पहुंचा सकते हैं. इसलिए एंटी इनकमबेंसी समेत अनेक मुद्दों को ध्यान में रखकर बीजेपी ने इस दांव को चलने का फैसला किया है, जो पार्टी को नुकसान से बचा सकता है. ज़ाहिर है इसे नए दौर की बीजेपी कह सकते हैं जो विरोधियों के पैंतरे को भांपकर दो कदम पीछे मुड़ना सीख चुकी है जिससे लंबे समय तक सत्ता पर काबिज रहा जा सके.
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