सम्पादकीय

अलकायदा की वापसी

Subhi
26 July 2021 4:00 AM GMT
अलकायदा की वापसी
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अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी और उसके बाद वहां तालिबान का बढ़ता वर्चस्व कितना खतरनाक हो सकता है, यह धीरे-धीरे साफ होता जा रहा है। जिन इलाकों में तालिबान काबिज हो रहे हैं |

अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी और उसके बाद वहां तालिबान का बढ़ता वर्चस्व कितना खतरनाक हो सकता है, यह धीरे-धीरे साफ होता जा रहा है। जिन इलाकों में तालिबान काबिज हो रहे हैं, वहां तो कट्टर इस्लामी शासन के तौर-तरीकों की वापसी हो ही रही है, इसके साथ-साथ अलकायदा के पुराने भूत के दोबारा जी उठने की ठोस आशंका भी पैदा हो गई है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की 1267 समिति की ताजा रिपोर्ट बताती है कि अफगानिस्तान के 15 प्रांतों में आतंकी संगठन अलकायदा ऑपरेशनल है। इसी समिति की फरवरी की रिपोर्ट में 11 प्रांतों में अलकायदा की मौजूदगी बताई गई थी। इससे साफ है कि यह आतंकी संगठन गुपचुप अपने प्रभाव का विस्तार करने में लगा हुआ है। आम तौर पर भले यह माना और कहा जाता रहा हो कि अलकायदा को खत्म कर दिया गया है और अब उसका कोई वजूद नहीं रहा, लेकिन जानकारों के मुताबिक अफगानिस्तान के दूर-दराज के हिस्सों में इस संगठन से जुड़े लोगों का ढीला-ढाला नेटवर्क लगातार बना रहा। भले इस नेटवर्क ने अपनी गतिविधियों को तात्कालिक विराम दे दिया हो, लेकिन वह इस स्थिति में तो है ही कि अनुकूल परिस्थितियां देखकर फिर सिर उठाने की कोशिश करे। जिस तेजी से अमेरिकी सेना को वापस बुलाया गया है, उससे आतंकी हलकों में यह संदेश गया है कि अब अमेरिका अफगानिस्तान में इस लड़ाई को जारी नहीं रख पा रहा।

जहां इस संदेश ने आतंकी तत्वों के मनोबल को बढ़ाया है, वहीं तालिबान लड़ाकों का अफगानिस्तान के अधिक से अधिक हिस्से पर काबिज होना वह अनुकूल माहौल मुहैया करा सकता है, जिसका वे इंतजार कर रहे थे। हालांकि कुछ एक्सपर्ट्स मानते हैं कि बदले हालात में तालिबान अतीत की अपनी गलतियों को दोहराना नहीं चाहेंगे। अमेरिका के साथ शांति वार्ता के बाद हुए समझौते के मुताबिक भी वे अफगानिस्तान में अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद से जुड़े तत्वों को किसी भी रूप में बढ़ावा न देने के लिए वचनबद्ध हैं। लेकिन असल सवाल यह है कि अगर तालिबान ऐसा चाह भी लें तो क्या अलकायदा से खुद को पूरी तरह अलग कर सकते हैं और क्या वे अलकायदा पर रोक लगा पाएंगे? पहली बात तो यह कि दोनों संगठनों का जितना लंबा तालमेल रहा है उसमें औपचारिक घोषणाओं को छोड़ दें तो जमीनी स्तर पर उनके कैडर को पूरी तरह अलग नहीं किया जा सकता। दूसरी बात यह कि चाहे बात तालिबान की हो या अलकायदा की या आईएस-केपी (इस्लामिक स्टेट-खुरासन प्रॉविंस) की ऐसे तमाम संगठनों को फलने-फूलने के लिए धार्मिक कट्टरता का माहौल और राजनीतिक अनिश्चितता व अराजकता की स्थिति चाहिए होती है। जाहिर है, जिस तरह के हालात की ओर अफगानिस्तान जाता हुआ दिख रहा है, उसमें इन तत्वों के बढ़त बनाने के खतरे से इनकार नहीं किया जा सकता।



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