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भारत में सरकारी खजानों को भरने के लिए कई तरह के टैक्स लगाए जाते रहे हैं।
मधुरेंद्र सिन्हा । भारत में सरकारी खजानों को भरने के लिए कई तरह के टैक्स लगाए जाते रहे हैं। लेकिन एक ऐसा टैक्स भी लगाया गया, जिसका आधार ही काल्पनिक था और जिसने देश में एफडीआई के प्रवाह को कुंद कर दिया था। यह टैक्स था-रेट्रो टैक्स। इसे वर्ष 2012-13 के बजट में तत्कालीन वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने मूर्त रूप दिया था। इसके तहत भारत में 1962 के बाद जितने बड़े कॉरपोरेट सौदे हुए यानी शेयरों के ट्रांसफर हुए, उन पर कर विभाग को पीछे की तिथि से टैक्स लगाने का अधिकार दे दिया गया था। फिर कर विभाग ने जमकर अपने इस अधिकार का इस्तेमाल किया। लेकिन दो कंपनियों का मामला बहुत ज्यादा गरमा गया। एक थी बहुराष्ट्रीय दूरसंचार कंपनी वोडाफोन और दूसरी थी ऑयल कंपनी केयर्न।
वोडाफोन ने भारत में हचिसन व्हामपो कंपनी से उसके 67 फीसदी शेयर खरीदे थे और केयर्न को वेदांत समूह ने खरीद लिया था। वोडाफोन को आयकर विभाग ने पहले तो 8,000 करोड़ रुपये का नोटिस पकड़ाया और फिर 2016 आते-आते यह रकम 22,000 करोड़ रुपये हो गई। यह टैक्स दादागीरी का अद्भुत नमूना था, जिसमें कर विभाग ने कल्पना के तमाम घोड़े दौड़ा दिए थे। इसी तरह केयर्न इंडिया पर 10,247 करोड़ रुपये का टैक्स जड़ दिया गया। केयर्न ने इसके खिलाफ अदालत का दरवाजा खटखटाया, पर उसे वहां से कोई राहत नहीं मिली। नतीजतन कर विभाग ने बकाया रकम पर जुर्माना वगैरह लगा दिया, जिससे यह रकम बढ़कर 24,500 करोड़ रुपये हो गई।
यह इतनी बड़ी रकम है, जिसे देने में बड़ी से बड़ी कंपनियों के छक्के छूट जाएं। वर्ष 2015 में तो कर अधिकारियों ने केयर्न के एक अरब डॉलर के शेयर भी जब्त कर लिए। इतना ही नहीं, उसके लाभांश में से 1,140 करोड़ रुपये भी हड़प लिए। दोनों ही कंपनियों ने अंतरराष्ट्रीय अदालतों के दरवाजे खटखटाए और सबसे पहले हेग स्थित स्थायी आरबिट्रेशन में जा पहुंची, जहां फैसला उनके हक में आया। भारत सरकार को अंतरराष्ट्रीय अदालत ने केयर्न एनर्जी को उसके नुकसान की भरपाई के लिए 1.4 अरब डॉलर देने का आदेश दिया। यही नहीं, फ्रांस की एक अदालत ने तो इस मामले में भारत सरकार की पेरिस स्थित संपत्तियां, जिनकी कीमत दो करोड़ तीस लाख यूरो आंकी गई, जब्त करने और उन्हें बेचने का आदेश दिया, ताकि केयर्न के घाटे को पूरा किया जा सके।
इससे भारत की काफी जगहंसाई हुई और इसने भाजपा सरकार को फौरन फैसला लेने के लिए मजबूर किया। वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने पिछले दिनों लोक सभा में एक बिल पेश करके इस रेट्रो टैक्स के ड्रामे का पटाक्षेप कर दिया। इस बिल में कहा गया है कि ऐसे संशोधन की आवश्यकता इसलिए पड़ी कि यह टैक्स निश्चितता के सिद्धांत का हनन करता है और देश में आने वाले विदेशी निवेश की राह में रोड़े अटकाता है। यह एक आकर्षक निवेश केंद्र के तौर पर भारत की ख्याति पर धब्बा है। विधेयक में यह भी कहा गया कि इससे संभावित निवेशकों के लिए किसी तरह का व्यवधान न हो, इसलिए यह व्यवस्था जरूरी है।
भाजपा ने 2014 के चुनाव के समय ही यह वादा किया था कि अगर पार्टी सत्ता में आई, तो वह इस अतिवादी टैक्स को समाप्त कर देगी। फिर भी उसने इतना वक्त क्यों लगाया, यह हैरानी की बात है। हो सकता है, इसके पीछे वित्त मंत्रालय को भारी-भरकम रकम दिख रही हो। इस मामले में दो बातें थीं। पहली तो यह कि क्या पहले की तिथि से टैक्स वसूला जा सकता है और दूसरा कि विदेशी संस्थागत निवेशकों से ऐसे किसी टैक्स की वसूली हो सकती है? जब एक कारोबारी सौदा करता है, तो वह मौजूदा कानूनों और नियमों को देखकर करता है। उस समय के ही कानून उस पर लागू होते हैं। ऐसे में कोई नया कानून, जो अतीत में हुए सौदों पर छाया डालता हो, स्वाभाविक न्याय की भावना के विरुद्ध होता है। खैर, अब काफी कुछ हो जाने के बाद सरकार चेत गई है और उसने इसे वापस लेने की बात पक्की कर दी। यह जरूरी था, क्योंकि कोरोना वायरस की मार से त्रस्त भारतीय अर्थव्यवस्था को इस समय विदेशी निवेश की बहुत जरूरत है।
Rani Sahu
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