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अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति फे्रंकलिन डी रूजवेल्ट ने एक बार कहा था
लालजी जायसवाल।
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति फे्रंकलिन डी रूजवेल्ट ने एक बार कहा था, 'जो प्रजातंत्र अल्पसंख्यकों के अधिकार को अपना आधार नहीं बनाता, वह सफल नहीं हो सकता।Ó शायद यही वजह है कि हमारे राजनीतिज्ञों ने समय-समय पर अल्पसंख्यकों के अधिकारों की वकालत की है। अल्पसंख्यकों को अधिसूचित करने से संबंधित याचिका हमारे देश में सबसे पहले वर्ष 2017 में दायर की गई थी। लेकिन कई कारणों से इस पर सुनवाई अटकती रही।
पिछले दिनों उच्चतम न्यायालय में अल्पसंख्यकों को अधिसूचित करने की केंद्र की शक्ति को चुनौती देने वाली याचिका पर विचार मंथन प्रारंभ हुआ। दायर याचिका में कहा गया था कि जहां हिंदुओं की संख्या कम है, वहां केंद्र सरकार द्वारा हिंदुओं को अल्पसंख्यक समुदायों के रूप में अधिसूचित करना चाहिए। शीर्ष अदालत में दायर याचिका में यह भी कहा गया कि देश के नौ राज्यों में हिंदू अल्पसंख्यक हैं, लेकिन वहां हिंदुओं की जगह स्थानीय बहुसंख्यक समुदायों को ही अल्पसंख्यक हितैषी योजनाओं का लाभ दिया जा रहा है। यहां तक कि याचिकाकर्ता ने अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों के लिए राष्ट्रीय आयोग अधिनियम 2004 की धारा 2 (एफ) की वैधता को यह कहते हुए चुनौती दी थी कि यह केंद्र को अकूत शक्ति देती है जो साफ तौर पर मनमाना और अतार्किक है।
केंद्र सरकार ने इसके जवाब के तौर पर कहा कि संबंधित राज्य सरकारें अपने राज्य में अल्पसंख्यकों की पहचान के लिए दिशानिर्देश निर्धारित करने पर विचार कर सकती हंै।
साथ में अल्पसंख्यक घोषित समुदाय शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और उसके प्रशासन का कार्य भी कर सकते हैं। केंद्र ने यह भी कहा है कि अल्पसंख्यकों के मामले में कानून बनाने की शक्ति केवल राज्यों को ही नहीं दी जा सकती, क्योंकि कानून बनाने का अधिकार केवल राज्य को देना एक संवैधानिक योजना और शीर्ष अदालत के कई फैसलों के खिलाफ होगा।
उल्लेखनीय है कि समाज के हर वर्ग की आवश्यकताओं के अनुरूप देश के संसाधनों के बंटवारे की बात और उसके सदुपयोग के बारे में सोचना सरकार का ही काम है। समाज में जो भी किसी स्तर पर वंचित है अब देश के संसाधनों को उसके लिए उपलब्ध कराने के बारे में विचार करना चाहिए जिससे समाज के उत्थान के लिए चलाई जाने वाली योजनाएं विभाजनकारी न साबित होने लगें। ध्यातव्य है कि किसी भी देश के लिए धर्म के आधार पर अल्पसंख्यक का दर्जा देना सरकार की योजनाओं के लिए पात्रता की गारंटी कभी नहीं देता। योजनाएं अल्पसंख्यकों के बीच केवल आर्थिक और सामाजिक रूप से कमजोर और वंचितों के लाभ के लिए होती हैं। इसलिए सबसे पहले अल्पसंख्यक को स्पष्ट करना होगा कि वास्तविक रूप में अल्पसंख्यक कौन है
संविधान में अल्पसंख्यकों के लिए प्रविधान : संविधान में अल्पसंख्यकों की परिभाषा अधूरी है, जिसका दुरुपयोग समय समय पर किया जाता रहा है। एक बुनियादी प्रश्न आरंभ से ही उपेक्षित है कि बहुसंख्यक कौन है? ऐसे में अल्पसंख्यक की धारणा ही असंभव हो जाती है, क्योंकि ये दोनों ही तुलनात्मक अवधारणाएं हैं। एक के बिना दूसरा नहीं हो सकता। दरअसल वर्ष 1978 में केंद्रीय गृह मंत्रालय के एक प्रस्ताव में अल्पसंख्यकों के लिए एक आयोग की बात की गई थी। उस प्रस्ताव में कहा गया था कि संविधान में दिए गए संरक्षण और कई कानूनों के होने के बावजूद, देश के अल्पसंख्यकों में एक असुरक्षा और भेदभाव की भावना है। इसी भावना को मिटाने के लिए अल्पसंख्यक आयोग का जन्म हुआ। बहरहाल, 'अल्पसंख्यकÓ शब्द संविधान के कुछ अनुच्छेदों में ही दिखाई देता है, लेकिन इसे कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया है। अनुच्छेद 29 के तहत अल्पसंख्यक तथा बहुसंख्यक दोनों को अधिकार प्राप्त हैं। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने बताया कि इस अनुच्छेद का दायरा केवल अल्पसंख्यकों तक ही सीमित नहीं है, क्योंकि अनुच्छेद में 'नागरिकों के वर्गÓ शब्द के उपयोग में अल्पसंख्यकों के साथ-साथ बहुसंख्यक भी शामिल हो जाते हैं।
फिर तो हिंदू भी हैं अल्पसंख्यक : सुप्रीम कोर्ट में दायर एक याचिका में कहा गया था कि सर्वोच्च अदालत केंद्र-राज्य स्तर पर अल्पसंख्यकों की पहचान करने के लिए निर्देश जारी करे, क्योंकि दस राज्यों, केंद्र शासित प्रदेशों में हिंदू अल्पसंख्यक हैं, परंतु उन्हें अल्पसंख्यकों के लिए दी जानी वाली सुविधाएं नहीं मिल रही हैं। मालूम हो कि वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार लक्षद्वीप में 2.5 प्रतिशत तो मिजोरम में 2.75 प्रतिशत, नगालैंड में 8.75 प्रतिशत के साथ मेघालय में 11.53 प्रतिशत, जम्मू-कश्मीर में 28.44 प्रतिशत, अरुणाचल प्रदेश में 29 प्रतिशत, मणिपुर में 31.39 प्रतिशत और पंजाब में 38.4 प्रतिशत के साथ हिंदू भी अल्पसंख्यक बन गए हैं। बहरहाल, केंद्र सरकार ने कहा है कि ऐसा होने की स्थिति में हिंदू भी इन राज्यों में अपने अल्पसंख्यक संस्थान स्थापित और संचालित कर सकते हैं। ऐसे में प्रमुख सवाल यह है कि आखिर अल्पसंख्यक आयोग अथवा मंत्रालय जैसी संस्थाओं की देश में आवश्यकता ही क्या है? वैसे भी संविधान में राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग का जिक्र है जो सबके लिए है, तो सवाल है कि अगर एक आयोग है जो सबके लिए है तो फिर अलग से किसी आयोग की क्या आवश्यकता है, वह भी धार्मिक बिंदु पर। हमारे पास सामाजिक न्याय मंत्रालय है तो फिर अलग से धर्म के आधार पर मंत्रालय की क्या जरूरत है?
अब इस पर विचार करने की आवश्यकता है कि क्या हम 'एक भारत श्रेष्ठ भारतÓ चाहते हैं या फिर छोटे-छोटे भागों में बंटा हुआ भारत देखना चाहते हैं, क्योंकि भाषा, धर्म और क्षेत्र के आधार पर बंटवारा सदैव से होता आया है। लेकिन हम सब अब स्वाधीनता के 75 वर्ष में प्रवेश कर चुके हैं। ऐसी स्थिति में हमें विभाजनकारी मानसिकता से बाहर निकलना होगा और सभी के लिए समानता की बात करनी होगी, जिसमें धर्म, जाति, पंथ, अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के आधार पर बंटवारा नहीं होगा।
राज्य भी दे सकते हैं अल्पसंख्यक का दर्जा : केंद्र सरकार की ओर से अदालत में दाखिल हलफनामे में बताया गया है कि राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थान अधिनियम, 2004 के मुताबिक राज्य सरकारें अपने राज्य में हिंदुओं समेत धार्मिक और भाषाई समुदायों को अल्पसंख्यक घोषित कर सकती हैं। यह विषय समवर्ती सूची में आता है, इसलिए इस पर केंद्र और राज्य दोनों को कानून बनाने का अधिकार है। बदलते परिदृश्य में अब समय आ गया है कि राष्ट्रीय स्तर पर नहीं, बल्कि प्रादेशिक स्तर पर अल्पसंख्यकों को परिभाषित किया जाए, जिन राज्यों में जिस समुदाय के लोग सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से तथा जनसंख्या के आधार पर अल्पसंख्यक हैं, उन्हें अल्पसंख्यक का दर्जा दिया जाए, जिससे अल्पसंख्यक कल्याण योजनाओं का लाभ उचित लोगों तक पहुंच सके।
यह भी सत्य है कि देश का विभाजन धर्म के आधार पर हुआ था, काफी हिंसा भी हुई थी, इसके बावजूद संविधान निर्माताओं ने यह दूरदर्शी फैसला लिया कि हिंदुस्तान एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होगा और सबको समान अधिकार दिया जाएगा। लेकिन अल्पसंख्यक कौन हैं, इसकी पहचान करना पहली शर्त होनी चाहिए। वैसे यह इतना आसान नहीं है। किसी समुदाय को राज्य स्तर पर अल्पसंख्यक घोषित करने में प्रमुख समस्या यह है कि इस शब्द की परिभाषा कहीं नहीं बताई गई है, दूसरा यह कि राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम में भी इसकी कोई परिभाषा नहीं बताई गई है। ऐसे में यह विडंबनापूर्ण स्थिति है कि कहीं पर कोई समुदाय 96 प्रतिशत तक होने के बावजूद उसे अल्पसंख्यक का दर्जा प्राप्त है और वहीं किसी राज्य में केवल दो प्रतिशत आबादी वाले लोग बहुसंख्यक हैं। शायद यही कारण है कि वे अल्पसंख्यकों को मिलने वाले लाभ से वंचित हैं। अत: इन तमाम बातों पर विचार करना अब समय की आवश्यकता बन गई है।
अल्पसंख्यक और बहुसंख्यकवाद की अवधारणा समाप्ति पर विचार । गत वर्ष नरेन्द्र मोदी सरकार ने उच्चतम न्यायालय में दावा किया था कि कोई धर्म निरपेक्ष सरकार अल्पसंख्यक विश्वविद्यालयों की स्थापना नहीं कर सकती है। वहीं अपने एक निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने भी इस बात पर जोर दिया था कि किसी ऐसे प्रजातांत्रिक समाज, जिसने समानता के अधिकार को अपना आधार माना है, उसका आदर्श बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक के साथ-साथ अगड़े और पिछड़े वर्ग जैसे भेदभाव को मिटाना है। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि भारत संविधान से चलता है और इस संविधान में कहीं भी अल्पसंख्यक मंत्रालय या अल्पसंख्यक आयोग का उल्लेख नहीं है। संविधान के मसौदे में सिख, जैन और बौद्ध संप्रदायों को हिंदू ही माना गया था। परंतु संविधान के लागू होने के साथ ही जैनियों ने इसका विरोध किया। फिर उन्हें अलग धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्जा दे दिया गया। इसी प्रकार सिखों ने भी इसका विरोध किया। उन्हें भी अलग धर्म का दर्जा दे दिया गया। यह सब पिछली सरकारों में अनेक राजनीतिक कारणों से अल्पसंख्यक का दर्जा देना एक प्रथा सी बनती चली आ रही है, जिसका अनुसरण आज की सरकारें भी कर रही हैं। मालूम हो कि वर्ष 1993 में पहला सांविधिक राष्ट्रीय आयोग स्थापित किया गया था और पांच धार्मिक समुदायों अर्थात मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध और पारसी को अल्पसंख्यक समुदायों के रूप में अधिसूचित किया गया था। वर्ष 2014 में जैनियों को अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में अधिसूचित किया गया था। परंतु इस प्रकार किया जा रहा कार्य कितना न्यायोचित है, इस पर विचार करने की जरूरत है।
ऐसे में सवाल उठता है कि अगर अल्पसंख्यक की अवधारणा समाप्त कर दी जाएगी तो फिर अल्पसंख्यक योजनाओं का क्या होगा? हमें ध्यान देना चाहिए कि जिस प्रकार आरक्षण की व्यवस्था करते हुए कहा गया था कि आरक्षण जीवन पर्यंत नहीं होगा, इसके लिए समय-समय पर समीक्षा कर आरक्षण की सीमा को धीरे-धीरे समाप्त किया जाएगा। लेकिन राजनीतिक कारणों की वजह से आरक्षण आज भी पूरे जोर-शोर से विद्यमान है। इसी प्रकार अल्पसंख्यक योजनाएं आज भी चल रही है, जबकि संविधान में समानता का अधिकार प्राप्त है। अच्छी बात है कि अल्पसंख्यक योजनाएं अल्पसंख्यक लोगों को लाभ पहुंचा रही है। लेकिन गौरतलब है कि अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की अवधारणा समाज और देश के विभाजन का कारण बनती है। इससे अलगाव की भावना पनपती है। अत: अल्पसंख्यक की अवधारणा को समाप्त कर हमें एक राष्ट्र एक धर्म के विचार पर आगे बढऩा चाहिए।
Rani Sahu
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