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बुनियादी अधिकारों से वंचित खुदरा कर्मचारी
क्या दूसरे राज्य भी केरल और तमिलनाडु का उदाहरण पेश करते हुए खुदरा क्षेत्र में काम करने वाले कर्मचारियों को बैठकर काम करने का अधिकार प्रदान कर सकते हैं? भारत में व्यावसायिक खुदरा क्षेत्र (परचून की दुकानों से लेकर बड़े शॉपिंग मॉल तक में) में महिलाओं का वर्चस्व है, लेकिन ज्यादातर राज्यों में कार्य की अवधि के दौरान उन्हें बैठकर काम करने का अधिकार नहीं है। उनसे उम्मीद की जाती है कि वे पूरी कार्य अवधि के दौरान वे खड़ी होकर ही काम करें और उन्हें शौचालय जाने की अनुमति भी अनिच्छा से दी जाती है।
केरल इस मामले में रास्ता दिखाने वाला पहला राज्य था। वर्षों के संघर्ष के बाद वर्ष 2018 में राज्य के खुदरा क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं ने कार्यस्थल पर कुछ बुनियादी सुविधाओं का अधिकार हासिल किया। लेकिन यह जीत उन्हें आसानी से नहीं मिली। कामकाजी महिलाओं को एकजुट करने और राज्य तथा दुकानों/ प्रतिष्ठानों मालिकों को उनके बैठने के अधिकार पर सहमत करने के लिए वर्षों प्रदर्शन करने पड़े। इसका प्रेरक नेतृत्व एक स्थानीय महिला संघ ने किया, जिसे असंगठित मेखला तोझिलाली यूनियन (एएमटीयू) कहा जाता है।
उसने प्रदर्शन का नेतृत्व किया और आंदोलन के एक हिस्से के रूप में इरिप्पु समरम (मलयालम के इस पदबंध का अर्थ होता है-बैठने का अधिकार) के पक्ष में तगड़ी पैरवी की। इसमें करीब आठ वर्ष लग गए। महिला नेतृत्व वाले संघ एएमटीयू की नेता ने एक राष्ट्रीय समाचार पत्र को बताया कि 'केरल मर्चेंट यूनियन सहित दुकानों के मालिकों ने कहा कि अगर लोग बैठना या शौचालय का उपयोग करना चाहते हैं, तो उन्हें घर बैठ जाना चाहिए।'
वर्ष 2014 में, केरल के त्रिशूर में कल्याण साड़ी की महिला कर्मचारियों द्वारा बैठने के अधिकार की मांग करते हुए हड़ताल पर जाने की अखबारों में काफी चर्चा हुई। उन्होंने शौचालय का उपयोग न करने के साथ घंटों खड़े रहने से होने वाली सभी स्वास्थ्य समस्याओं की ओर इशारा किया- पीठ दर्द, जोड़ों में दर्द, पैरों में सूजन, गुर्दे से संबंधित बीमारियां और नसों में सूजन। ये केवल कुछ उदाहरण हैं कि कैसे श्रमिकों को काम के दौरान कभी-कभार आराम करने जैसी छोटी और बुनियादी चीजों के लिए संगठित होना पड़ा। आखिरकार नीति-निर्माताओं (विधायकों) ने उनकी बातें सुनीं। केरल सरकार ने केरल दुकान और वाणिज्यिक प्रतिष्ठान अधिनियम में संशोधन को मंजूरी दी, जिसमें प्रावधान किया गया कि नियोक्ता विक्रय कर्मचारियों को बैठने की सुविधा प्रदान करें, कार्यस्थल पर उनके यौन उत्पीड़न को रोकें तथा रातपाली में काम करने वाली महिला कर्मचारियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए परिवहन एवं अन्य सुरक्षा सुविधाएं प्रदान करें।
केरल जैसे प्रगतिशील राज्य में भी महिलाओं को इतनी दयनीय स्थिति में काम करना पड़ा, यह महिला-प्रधान खुदरा क्षेत्र में अमानवीय काम करने की स्थिति का सूचक है। केरल के बाद इस महीने तमिलनाडु खुदरा क्षेत्र में काम करने वाले कर्मचारियों को बैठने का अधिकार देने वाला दूसरा राज्य बन गया। तमिलनाडु सरकार ने विधानसभा में एक नया विधेयक पेश किया, जिसमें प्रतिष्ठानों के लिए कर्मचारियों को बैठने की सुविधा प्रदान करना अनिवार्य कर दिया गया। विधेयक में कहा गया है, 'कार्यावधि के दौरान कर्मचारियों की दुर्दशा को ध्यान में रखते हुए, दुकानों और प्रतिष्ठानों के सभी कर्मचारियों को बैठने की सुविधा प्रदान करना आवश्यक समझा गया है।' तमिलनाडु में कई बड़े बहु-विभागीय शोरूम वर्तमान में सेल्सपर्सन को काम के घंटों के दौरान बैठने के लिए कुर्सी या स्टूल उपलब्ध नहीं कराते हैं।
तमिलनाडु में भी कामकाजी महिलाओं को बुनियादी अधिकार पाने के लिए सामूहिक रूप से विरोध करना पड़ा। इसको लेकर प्रदेश भर में कपड़ा और ज्वैलरी शोरूम में कार्यरत श्रमिकों द्वारा कई बार विरोध प्रदर्शन किया जा चुका है। दो भारतीय राज्य इस तथ्य से जाग अवगत हो गए हैं कि बिक्री कर्मचारियों, ज्यादातर महिलाओं से घंटों तक खड़े रहने की उम्मीद करना अमानवीय है। इस संदर्भ में केरल और तमिलनाडु में किए गए कानूनी संशोधन सही दिशा में उठाए गए कदम हैं। लेकिन दूसरे राज्यों का क्या? उत्तर प्रदेश जैसे उत्तर भारत के राज्यों में क्या ऐसा होगा?
जैसे-जैसे महामारी से पस्त अर्थव्यवस्था सामान्य होने की ओर कदम बढ़ा रही है और देश का मध्यवर्ग खरीदारी के लिए बाजार में लौट आया है, दुकानों में काम करने वाले श्रमिकों की परेशानी को दूर करने की तत्काल आवश्यकता है। श्रमिकों को 'बैठने का अधिकार' और अन्य बुनियादी मानवाधिकारों वाला एक राष्ट्रीय कानून बनाने की आवश्यकता है। कई दुकानों में शौचालयों की कमी से भी महिलाओं को भारी समस्या होती है और इस पर भी तत्काल ध्यान दिया जाना चाहिए।
बैठने के अधिकार जैसे बुनियादी अधिकारों की कमी को व्यावसायिक स्वास्थ्य और सुरक्षा के व्यापक संदर्भ में देखा जाना चाहिए। आर्थिक उदारीकरण से भारत के खुदरा क्षेत्र में तेजी आई, लेकिन हर जगह दुकानों और प्रतिष्ठानों के कर्मचारियों के स्वास्थ्य और हितों की रक्षा करने वाली सेवा की बेहतर कामकाजी परिस्थितियों और रोजगार की शर्तों का पालन नहीं किया गया।
दुनिया में सबसे कम महिला श्रमशक्ति की भागीदारी दर हमारे देश में है। एक तिहाई से भी कम महिलाएं काम कर रही हैं या सक्रिय रूप से नौकरी की तलाश में हैं। भारत की श्रम शक्ति में महिलाओं की स्पष्ट अनुपस्थिति उस व्यापक मुद्दे का हिस्सा है, जिसका देश सामना करता है, जब रोजगार वृद्धि की बात आती है। पर तथ्य यह कि यह पुरुषों की तुलना में महिलाओं को अधिक प्रभावित कर रहा है, जो भारत के लिए विशेष रूप से परेशान करने वाली बात है। संयुक्त राष्ट्र के लैंगिक विकास सूचकांक (जेंडर डेवलपमेंट इंडेक्स) में हमारी रैंकिंग बहुत खराब है। अधिकांश राज्यों में बैठने के अधिकार जैसे बुनियादी अधिकारों के बिना, बड़ी संख्या में महिलाओं को श्रमशक्ति में शामिल करना मुश्किल लगता है। इसे बदलने की जरूरत है।
अमर उजाला
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