सम्पादकीय

खुदरा-थोक महंगाई का फर्क

Gulabi
21 Dec 2021 4:30 AM GMT
खुदरा-थोक महंगाई का फर्क
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खुदरा-थोक महंगाई का फर्क
सीपीआई- डब्लूपीआई के बीच के असंतुलन से अर्थशास्त्री भी पसोपेश में हैं। आम तौर पर ऐसा नहीं होना चाहिए। लेकिन ऐसा हुआ है, तो उसका मतलब है कि उत्पादन की लागत बढ़ी है, जबकि उपभोक्ता उतनी महंगी चीजें खरीदने में सक्षम नहीं हैँ। यानी आम इनसान की बदहाली कहीं अधिक तेजी से बढ़ी है।
भारत में थोक महंगाई दर (डब्लूपीआई) 2011-12 सीरीज के अपने अधिकतम स्तर पर पहुंच चुकी है। नवंबर 2021 में यह दर 14.23 प्रतिशत रही। महंगाई दर में हुई इस वृद्धि की सबसे बड़ी वजह खाद्य पदार्थों खास तौर पर सब्जियों के दाम में हुआ इजाफा है। इसके अलावा खनिज संसाधन और पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में हुई वृद्धि भी इसके मुख्य कारणों में हैं। थोक मूल्य सूचकांक थोक बाजार में सामान की औसत कीमतों में हुए बदलाव को मापता है। इस सूचकांक का मकसद बाजार में उत्पादों की गति पर नजर रखना है, ताकि मांग और आपूर्ति की स्थिति का पता चल सके। इससे कंस्ट्रक्शन इंडस्ट्री और उत्पादन से जुड़ी स्थितियां भी मालूम चलती हैं। इस सूचकांक में सर्विस सेक्टर की कीमतें शामिल नहीं होतीं, ना ही यह बाजार के उपभोक्ता मूल्य की स्थिति ही दिखाता है।
डब्ल्यूपीआई में सामग्रियों की तीन श्रेणियां होती हैं- प्राथमिक सामग्रियां, ईंधन, और उत्पादित सामग्रियां। प्राइमरी आर्टिकल्स की भी दो उप-श्रेणियां हैं। पहली खाद्य उत्पाद। गैर खाद्य उत्पाद। इसके अलावा महंगाई दर मापने का एक दूसरा पैमाना उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) है। घर-परिवार विभिन्न पदार्थों और सेवाओं के लिए जो औसत मूल्य चुकाते है, सीपीआई उसको मापता है। बीते हफ्ते भारत सरकार ने डब्लूपीआई के साथ ही सीपीआई के ताजा आंकड़े भी जारी किए हैं। इसके मुताबिक, सीपीआई दर नवंबर 2021 में 4.91 प्रतिशत रही। यह दर तीन महीने में अधिकतम स्तर है।
दुनिया के कई देश महंगाई मापने के लिए डब्लूपीआई को मुख्य मानक मानते हैं। मगर भारत ऐसा नहीं करता। भारतीय रिजर्व बैंक मौद्रिक और क्रेडिट से जुड़ी नीतियां तय करने के लिए थोक मूल्यों को नहीं, बल्कि खुदरा महंगाई दर को मुख्य मानक मानता है। लेकिन अर्थव्यवस्था के स्वभाव में डब्लूपीआई और सीपीआई एक-दूसरे पर असर डालते हैं। माना जाता है कि डब्लूपीआई बढ़ेगा, तो सीपीआई भी बढ़ेगा। फिलहाल सीपीआई रिजर्व बैंक की नियंत्रण रेखा के भीतर है। लेकिन डब्लूपीआई नियंत्रण से बाहर है। सीपीआई और डब्लूपीआई के बीच के इस असंतुलन से अर्थशास्त्री भी पसोपेश में हैं। आम तौर पर ऐसा नहीं होना चाहिए। लेकिन ऐसा हुआ है, तो उसका मतलब है कि उत्पादन की लागत बढ़ी है, जबकि उपभोक्ता उतनी महंगी चीजें खरीदने में सक्षम नहीं हैँ। इसका मतलब है कि आम इनसान की बदहाली कहीं अधिक तेजी से बढ़ी है।
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