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- मनमर्जी पर लगाम
भारत जैसे सशक्त लोकतांत्रिक परंपरा वाले देश में यह एक विचित्र स्थिति है कि जो कानून अस्तित्व में नहीं है, उसके तहत यहां अलग-अलग राज्यों की पुलिस किसी को गिरफ्तार करे और उसे नाहक ही प्रताड़ित करे। लेकिन ऐसा पिछले करीब पांच सालों से लगातार चलता रहा, जब सुप्रीम कोर्ट ने सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा-66 ए को रद्द कर दिया था और पुलिस इस कानून का इस्तेमाल करके लोगों को परेशान करती रही। इस मसले पर एक महीने पहले सुप्रीम कोर्ट ने काफी नाराजगी जताई थी। अब सोमवार को एक बार फिर शीर्ष अदालत ने एक गैरसरकारी संगठन की याचिका पर राज्यों, केंद्र शासित प्रदेशों और सभी राज्यों के उच्च न्यायालयों को नोटिस जारी कर इस बात पर जवाब मांगा है कि 2015 में ही रद्द हो चुकी इस धारा के तहत अब भी लोगों को खिलाफ मामले दर्ज किए जा रहे हैं। यह समूचे देश में कानून लागू करने वाले महकमे की कार्यशैली पर सवालिया निशान है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले को अहमियत देने, उसका मतलब समझने और उस पर अमल करने के बजाय उसे ताक पर रख कर मनमानी करने की वजह आखिर क्या रही!
गौरतलब है कि देश भर में पुलिस की ओर से मामूली बातों पर भी लोगों को गिरफ्तार या प्रताड़ित करने के लिए सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66ए के बेजा इस्तेमाल से जुड़ी शिकायतें जब सुप्रीम कोर्ट तक पहुंची थी, तब 2015 में ही उसने इस धारा को ही रद्द कर दिया था। इसके बावजूद जमीनी स्तर पर देश के अलग-अलग हिस्सों में कानून की इस धारा को हथियार बना कर इसके तहत गिरफ्तारी होती रही। पुलिस राज्य का विषय है और इस नाते राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की सरकारों का यह दायित्व है कि वह लागू कानूनों की वैधता और कसौटी पर सही और न्यायिक होने का हर वक्त ध्यान रखे। सवाल है कि इतने साल पहले सुप्रीम कोर्ट में कानून की इस धारा के रद्द होने की सूचना सरकारों के पास कैसे और क्यों नहीं पहुंची! जबकि इस दौरान इस कानून के तहत कई लोगों को नाहक ही प्रताड़ना झेलनी पड़ी। एक रद्द कानून के हथियार से लोगों को परेशान करने का मुआवजा क्या होगा और इतने लंबे समय तक इस धारा के इस्तेमाल करने के लिए संबंधित महकमे कोई अफसोस जाहिर करेंगे! क्या पुलिस इस संदर्भ में जानकारी और व्यवहार को लेकर सवालों के कठघरे में नहीं खड़ी है?
यह किसी से छिपा नहीं है कि कानून के मामूली नुक्तों की वजह से किसी व्यक्ति को अपनी जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा जेल में गुजारना पड़ सकता है। इसके व्यावहारिक पहलुओं और असर के मद्देनजर ही सुप्रीम कोर्ट ने एक महीने पहले साफ शब्दों में यह टिप्पणी की थी कि जो हो रहा है वह भयानक, चिंताजनक और चौंकाने वाला है। दरअसल, सूचना प्रौद्योगिकी कानून की निरस्त धारा 66ए के तहत सोशल मीडिया पर भड़काऊ टिप्पणियां करने के दोषी किसी व्यक्ति को तीन साल तक कैद और जुर्माने की सजा का प्रावधान था। लेकिन व्यवहार में सरकारों और पुलिस ने इसका जिस तरह बेजा इस्तेमाल किया, अभिव्यक्ति की आजादी को बाधित किया गया, वह देश की लोकतांत्रिक प्रणाली के लिए एक अफसोसनाक स्थिति थी। यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट ने 24 मार्च, 2015 को ही श्रेया सिंघल मामले में इस धारा को रद्द कर दिया था। यों भी विविधताओं से भरे हमारे देश में एक मसले पर अलग-अलग क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की राय भिन्न हो सकती है। लेकिन उसकी मनमानी व्याख्या करके लोगों को परेशान, गिरफ्तार और प्रताड़ित करना लोकतंत्र को ही बाधित करने का जरिया बनेगा।