सम्पादकीय

लेखन की जिम्मेदारी : कविता की नदी में इतिहास की नाव

Neha Dani
26 Dec 2021 2:39 AM GMT
लेखन की जिम्मेदारी : कविता की नदी में इतिहास की नाव
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कई बार अपने और पराए का भेद भी नहीं कर पाती है।

भारत में इतिहास लेखन की जिम्मेदारी अंग्रेजों के आने से पहले प्रायः कवियों ने ही उठाई है। हमारे यहां कविता में आयुर्वेद के ग्रंथ भी लिखे गए, धर्मग्रंथ भी, विज्ञान और दर्शन के ग्रंथ भी। कवियों पर कितना भरोसा था हमारे पुरखों को! शायद ही दुनिया के किसी और देश में कवियों और कविता ने इतना ओवरटारइम किया हो। यानी हमारे यहां बेचारी 'कविता' को यदा-कदा ही आधुनिक अर्थों में शुद्ध कविता होने का सुख या भाग्य मिलता रहा। कविता युगों से कंठ का आभूषण रही है, इसीलिए जिस बात को देर तक और दूर तक पहुंचाना हो, उसे हमारे यहां कविताओं में कहने की परंपरा रही होगी।

पृथ्वीराज चौहान की कहानी भी उसके कई समकालीनों ने कविता में कही। घटना या व्यक्ति के समकालीन स्रोतों की इतिहास लेखन में बड़ी भूमिका मानी जाती है, और उसका एकाधिक स्रोतों से पुष्टिकरण। यह प्रक्रिया यों हमने पश्चिम से अर्जित की है, पर इसे सारे संसार की, इतिहास की लगभग सारी एकेडमिक दुनिया मानती है। समकालीनता की कसौटी पर तो पृथ्वीराज रासो इतिहास का मूल्यवान स्रोत सिद्ध होता है। अकेले स्रोत को संपूर्ण मानने की सीमाएं तो हैं, पर उसे गलत नहीं ठहराया जा सकता।
यह एक कवि की ऐतिहासिक रचना का पुनर्पाठ है। ऐसी कृति की ऐतिहासिकता पर संदेह केवल उसी पूर्वाग्रह से होता है, जिसके लिए इतिहास दार्शनिक कॉलिंगवुड ने कहा था कि हम इतिहास को वर्तमान की आंख से देखते हैं। इस संदेह को पश्चिमी दृष्टि भी कहा जा सकता है। वैसे, भारत में इतिहास लेखन की पश्चिमी दृष्टि अंग्रेजों के साथ आई, और उनका इतना प्रभाव रहा कि उनसे पहले की भारतीय लोगों की इतिहास दृष्टि को सिरे से खारिज करने का फैशन रहा है। दृष्टि अलग थी पर थी, विधा कविता थी, पर इतिहास लिखा जाता था। भारतीय इतिहास की प्राचीन गलियों के तिलिस्म 'रहा होगा' के भाव में खुलते हैं। सुनिश्चितता बड़ा दुर्लभ भाव है, इसलिए वहां किसी राजनीतिक एजेंडे के आरोपण के लिए भरपूर स्कोप रहता है।
क्या इसे संयोग कहा जाएगा कि गाय के नाम पर अच्छी-बुरी राजनीति के युग में नागौरी बैल के लिए प्रसिद्ध नागौर में पले-बढ़े लेखक चंदबरदाई की कृति का सिनेमाई रूपांतरण लेकर डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी आ रहे हैं। मेरी जानकारी में उन्होंने पृथ्वीराज रासो के जिस संस्करण को आधार बनाया है, वह नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी से प्रकाशित है। दो खंडों में प्रकाशित दो हजार से ज्यादा पृष्ठों में फैले इस ग्रंथ को कुछ लोग महाभारत के समान मानते हैं। इस संस्करण के दो संपादकों में मुख्य संपादक मोहनलाल विष्णुलाल पंड्या है, जिनके पिता हिंदी के अनन्य नायक भारतेंदु हरिश्चंद्र से भी जुड़े थे, तो वह भी जुड़ गए थे। आधुनिक इतिहासकारों से कहीं पहले कविराज श्यामलदास ने पृथ्वीराज रासो को एक जाली ग्रंथ बताया ही नहीं, बल्कि सिद्ध भी करने की कोशिश की, जिसका जवाब मोहनलाल विष्णुलाल पंड्या ने ही पृथ्वीराज संरक्षा लिखकर दिया था।
कहने को यों भी कहा जा सकता है कि पृथ्वीराज इतिहास का एक साहित्यिक पृष्ठ है या साहित्य का ऐतिहासिक पृष्ठ। तो अकादमिक शब्दों में यह इंटरडिसिप्लिनरी मामला है, तो प्रथम दृष्टया सांचों में देखेंगे, तो मिलावट दिखेगी। सांचों से बाहर निकलकर देखेंगे, तो सच के नए रूप खिलते और खुलते नजर आएंगे। राजस्थान के इतिहास में हिंदी सिनेमा की दिलचस्पी नई नहीं है और उस पर विवाद होने में भी नवीनता नहीं है। डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी मूलतः राजस्थान से हैं, भारतीयता और भारतीय मूल्यों के प्रति उनकी श्रद्धा असंदिग्ध और जग जाहिर है। उनकी इतिहास दृष्टि के लिहाज से, भारतीय इतिहास लेखन के तीन प्रमुख स्कूलों-साम्राज्यवादी, राष्ट्रवादी और मार्क्सवादी में से मैं उन्हें राष्ट्रवादी के दायरे में रख सकता हूं।
हालांकि वहां भी वह मुझे अंधविश्वासी नहीं लगते हैं। वह खुद संधान करते हैं, तथ्य और तर्क की कसौटी पर अपनी धारणा बनाते हैं। मेरी राय है कि वह फिल्म इंडस्ट्री के गिने-चुने दो-तीन समकालीन निर्देशकों में से हैं, जो बहुत पढ़ते हैं। राष्ट्रवादी इतिहास लेखन के स्कूल से मेरी दूरी है, पर डॉ. द्विवेदी से असहमत होकर भी तथ्यों, तर्कों के साथ विमर्श संभव है, जो दुर्लभ बात है। उनके निर्देशन में बनी पिंजर का एक दृश्य मुझे कभी नहीं भूलता, जो उनकी इतिहास दृष्टि का उद्घाटन भी है। इस दृश्य में विभाजन के बाद रेलवे स्टेशनों पर अफरा-तफरी है, खाकी निक्क्र और काली टोपी में एक सेवादार शरणार्थियों को चाय-पानी पिला रहा है।
इस दृश्य की ऐतिहासिकता और व्याख्या के लिए दर्शक, पाठक और शोधार्थी स्वतंत्र हैं। पृथ्वीराज का बनना और शांतिपूर्ण रिलीज होना पहाड़ चढ़ने जैसा ही कर्म होगा, राजस्थान के राजपूत और गुर्जर अपनी भावनाओं और आस्थाओं की तलवारें लिए फिल्म के खिलाफ उठ खड़े हो रहे हैं। विडंबना यह है कि आस्था की तीखी तलवार कई बार अपने और पराए का भेद भी नहीं कर पाती है।


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