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- वैश्विक शांति की...
जगमोहन सिंह राजपूत: किसी भी देश की समेकित प्रगति का व्यावहारिक मूल आधार वहां के सभी निवासियों के पारस्परिक सद्भाव, एकजुटता और साथ मिल कर कार्य करने की इच्छाशक्ति पर निर्भर करता है। अपनी विविधता के लिए जाने जाने वाले भारत में, जहां विश्व के सभी जाने-पहचाने पंथों को मानने वाले रहते हैं, पांथिक सद्भावना और सामाजिक सद्भाव अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं। पिछले कुछ दशकों से- लगातार बदलते जा रहे नस्लीय तथा पांथिक अनुपात के कारण- इसकी आवश्यकता यूरोप के देश भी परिस्थितिवश समझने लगे हैं। वहां भी एक संस्कृति, एक भाषा, एक पंथ की स्थिति तेजी से बदल रही है। विविधता हर तरफ दिखाई देने लगी है। उन्हें यह आभास भी लगातार हो रहा है कि समन्वय और समरसता की स्थिति बनाना कितना आवश्यक है, लेकिन यह सहज नहीं है।
भारत के पास हर प्रकार का अनुभव है, पांथिक सद्भाव का लंबा इतिहास है। इसके बरक्स ऐसे भी अनेक उदाहरण हैं, जब संवेदनात्मक संबंधों में गहरी दरारें उभर कर सामने आई हैं। नकारात्मकता हावी हुई है और हिंसा बढ़ी तथा जान-माल की भारी हानि हुई है। अविश्वास बढ़ा है। जब किसी भी समाज में वैमनस्य, अविश्वास तथा आशंकाएं बढ़ जाती हैं तब हिंसा का उभार होता ही है। भारत की प्राचीन संस्कृति और ज्ञानार्जन परंपरा सभी की वैचारिक स्वतंत्रता की पक्षधर रही है। ऐसी संस्कृति में वे मत और पंथ, जो भारत की सीमाओं के बाहर से आए, अस्वीकार्य हो ही नहीं सकते थे।
हजारों सालों से इस दर्शन और संस्कृति में परिष्कार और गतिशीलता के साथ आवश्यक संवर्धन के प्रयास भी आवश्यक रूप से चलते ही रहे। इसे सारे विश्व ने भारत के प्रसिद्ध शिक्षा संस्थानों में आकर समझने का प्रयास किया। इसके वैश्विक प्रचार और प्रसार के पश्चात समस्त विश्व ने मानना प्रारंभ किया था कि विविधता में एकता और एकात्मता की सीख भारत से ही लेनी चाहिए। अर्नाल्ड टायनबी का बहुधा उद्धृत कथन इसी को व्यक्त करता है; 'यह भली भांति स्पष्ट हो रहा है कि एक अध्याय, जिसकी शुरुआत पाश्चात्य थी, अगर उसका अंत मानवजाति के आत्मसंहार में नहीं होना है, तो समापन भारतीय होगा।… मानव इतिहास के इस सबसे अधिक खतरनाक क्षण में मानवजाति की मुक्ति का अगर कोई रास्ता है, तो वह भारतीय है- चक्रवर्ती अशोक और महात्मा गांधी का अहिंसा का सिद्धांत और रामकृष्ण परमहंस के धार्मिक सहिष्णुता के उपदेश ही मानवजाति को बचा सकते हैं। यहां हमारे पास एक ऐसी मनोवृत्ति और भावना है, जो मानवजाति को एक परिवार के रूप में विकसित होने में सहायक हो सकती है। इस अणु युद्ध में विनाश का यही विकल्प है।'
रूस और यूक्रेन के मध्य हो रहे युद्ध के एक महीने बाद तक कोई समाधान की ओर बढ़ने के सार्थक प्रयास कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं हुए। विश्व के अनेक देशों का विश्वास है कि भारत ही वह देश है, जो शांति स्थापना में सक्रिय और सार्थक कर सकता है। युद्ध तो समाप्त हो ही जाएगा, मगर जिस विनाश को सारे विश्व में देखा जा रहा है, उसकी पुनरावृत्ति की प्रवृत्ति को समाप्त करना ही होगा, अन्यथा मनुष्य का पृथ्वी पर अस्तित्व ही समाप्त हो सकता है।
बीसवीं शताब्दी में दो विश्वयुद्धों का संत्रास झेल चुके वैश्विक मानव समाज ने जब संयुक्त राष्ट्र बना कर शांति स्थापना के संगठित प्रयास किए, तब तक भारत में विभाजन जनित वैमनस्य तेजी से उभर रहा था।
दो संप्रदायों के मध्य अनियंत्रित अविश्वास के रूप में ही उसे भारत के बाहर देखा गया। विभाजन हुआ, जो हिंसा विभाजन के समय हुई, उसमें यही पुन: स्थापित हुआ कि पारस्परिक कटुता भयंकर और वीभत्स मानवीय निर्ममता की जननी होती है; और जब वह उफनती है तब किसी पर धर्म, पंथ या जाति देख कर प्रहार नहीं करती। उसकी आग में आक्रांत ही नहीं, आक्रांता भी जल जाता है। रूस और यूक्रेन युद्ध में भी यही हो रहा है।
शांति स्थापना के लिए बड़े-बड़े शब्दों का इस्तेमाल करने वाले ऐसे लोग और विकसित राष्ट्र भी हैं, जो चाहेंगे कि युद्ध होते रहें, लंबा चलते रहें, उनका व्यापार बढ़ता रहे, मुनाफा उछाल लेता रहे। पूंजीवाद मुनाफा कमाने में कोई भी राह अपनाने से हिचकता नहीं है। इसलिए आयुध-व्यापारी देशों, और कंपनियों की स्वाभाविक चिंता इस समय यही होनी है कि अगर विश्व में शांति स्थापित हो गई, तो उसकी अर्थव्यवस्था ही चरमरा जाएगी!
सारी परिस्थितियों का विश्लेषण करने के बाद निष्कर्ष यही है कि भारत ही वह देश है, जिसे आगे आकर सामजिक सद्भाव और पांथिक समरसता के अपने लंबे अनुभव और उनकी व्यावहारिकता विश्व के समक्ष प्रस्तुत करनी होगी।
यह पूंजी अन्य किसी के पास है ही नहीं। ऐसी स्थिति में अर्नाल्ड टायनबी जैसे विद्वानों की अपेक्षाओं को पूरा करने में पहल करना क्या भारत का नैतिक और सांस्कृतिक उत्तरदायित्व नहीं बनता है? भारत को ज्ञान, दर्शन और सहिष्णुता के लिए सबसे उपयुक्त स्थान माना जाता रहा, और तक्षशिला जैसे अध्ययन संस्थानों में विदेशों से बड़ी संख्या में साधक और शोधक आते रहे। उसमें व्यवधान पड़े, लेकिन गांधी देश को उस बड़े वैश्विक उत्तरदायित्व का बोध सभी को- देश और विदेश में- सदा कराते रहे। संयुक्त राष्ट्र का सूत्र वाक्य भी यही स्पष्ट कहता है : युद्ध मनुष्य के मष्तिष्क में उत्पन्न होते हैं, अत: शांति की संरचना और सर्जन को भी वहीं से प्रारंभ होना होगा।
अगर इस दिशा में ईमानदारी से प्रयास होते, तो आज यूक्रेन इस विकट परिस्थिति में नहीं होता। हथियारों के संग्रह में ही अपनी सुरक्षा देखने वालों ने अपरिग्रह और विश्व-बंधुत्व को सही ढंग से समझा ही नहीं। इस समय युद्ध कहीं भी हो, उसकी भीषणता का सबसे महत्त्वपूर्ण कारण कुछ देशों का परमाणु हथियारों का जखीरा है, जिसे केवल इस भ्रम में बढ़ाया जाता रहा कि जिनके पास यह है, वे इससे सदा के लिए सुरक्षित हो जाएंगे! इसका परिणाम यह हुआ कि आज न कोई देश सुरक्षित है, न ही इस पृथ्वी पर मानव का बने रहना सुनिश्चित है! पर दुर्भाग्य यह है कि परतंत्र भारत स्वयं भी पश्चिम से इतना प्रभावित रहा कि स्वतंत्र होने पर उसने विकास की वही अवधारणा अपना ली, जो पश्चिम की देन थी!
भारत वैश्विक शांति स्थापना में कैसे आगे बढ़ सकेगा? सबसे पहले उसे उस दलगत राजनीति के परिष्कार के प्रयास करने होंगे, जिसमें चुनाव जीतना और सत्ता में पहुंच जाना ही राजनीतिक दलों का एकमात्र लक्ष्य नहीं होगा। जिसमें पराजित दल दोगुने उत्साह से लोगों के पास जाकर उनकी समस्याओं का अध्ययन करेगा, समाधान के हर प्रयास में भागीदार बनेगा। सत्ता राष्ट्र निर्माण का यह केवल एक मार्ग मात्र होगा, जन सेवा के लिए अन्य अनेक मार्ग भी होंगे, जिसमें सत्ता तक पहुंचना आवश्यक नहीं होगा। भारत में तो अपरिग्रह- आवश्यकता से अधिक संग्रहण- या प्रकृति का अनावश्यक अर्जन स्वीकार्य ही नहीं था। जिसके पास अगर अधिक था, तो उसके लिए उसका उपयोग करने के लिए निर्देश थे: 'परहित सरिस धरम नहीं भाई, पर सेवा सम नहीं अधमाई'!
भारतीय दर्शन और संस्कृति के दो मूल तत्त्व- अपरिग्रह और प्रकृति के प्रति देवत्व के भाव को अंतर्निहित करना ही वह मार्ग प्रशस्त करा सकते हैं, यही सामाजिक समरसता और पांथिक सद्भाव के स्रोत बन सकते हैं। इन्हें पुन: जागृत कर भारत शांति और विश्व-बंधुत्व का मार्ग सभी को दिखा सकता है।