- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- आरक्षण आन्दोलनों का...
जनता से रिश्ता वेबडेस्क। राजनीति में प्रायः वह सच नहीं होता है जो ऊपर से दिखाई पड़ता है। इसका सबसे ताजा प्रमाण राजस्थान में दो सप्ताह तक चला गुर्जर आरक्षण आदोलन है। यह आन्दोलन क्यों शुरू किया गया और बाद में क्यों अचानक बन्द कर दिया गया, इस बारे में कुछ भी स्पष्ट नहीं है। इस आन्दोलन को चलाने वाले गुर्जर नेता कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला ने फैसला किया कि गुर्जरों को आरक्षण देने के लिए उनके समर्थक भरतपुर व आसपास के इलाकों में रेल लाइनों पर धरना देंगे। लोकतन्त्र निश्चित रूप से किसी भी व्यक्ति को अहिंंसक तरीके से आन्दोलन चलाने की अनुमति प्रदान करता है परन्तु इस शर्त के साथ कि उसका लक्ष्य लोकहित होना चाहिए। इसके साथ ही कोई भी आन्दोलन भारतीय संविधान की उस परिधि के भीतर होना चाहिए जो किसी संगठन को सार्वजनिक सम्पत्ति का नुकसान करने से दूर रखता है मगर हमने देखा कि कई दिनों तक किस प्रकार श्री बैंसला के समर्थकों ने रेल यातायात को बाधित किया और कई स्थानों पर रेल पटरियों को भी नुकसान पहुंचाया। वास्तव में यह लोकतन्त्र में मिले नागरिक अधिकारों का दुरुपयोग इस मायने में कहा जा सकता है कि इससे समूचे समाज में विध्वंस का सन्देश जाता है न कि सृजन का।
लोकतन्त्र में विपक्षी दलों या आन्दोलनकारियों को यह भी ध्यान में रखना पड़ता है कि उनके प्रतिकार या प्रतिरोध का परिणाम अन्ततः समाज के सबल होने और साधारण नागरिक के अधिकार सम्पन्न होने का आये, परन्तु गुर्जर आन्दोलन ने समाज को भीतर से विखंडित करने का लक्ष्य रखा क्योंकि भारतीय संविधान में स्पष्ट व्यवस्था है कि आरक्षण केवल 49 प्रतिशत तक ही हो सकता है। इससे अधिक करने के लिए संविधान में संशोधन करने की आवश्यकता पड़ेगी परन्तु राजनीतिक दल इस हकीकत से वाकिफ होते हुए भी ऐसे शगूफे छोड़ते रहते हैं जिससे किसी खास वर्ग या समुदाय में उनकी लोकप्रियता बढ़े। इस मामले में कई राज्यों में कभी पिछड़े मुसलमानों या जाटों के आरक्षण का शगूफा छोड़ दिया जाता है। हकीकत यह है कि ऐसी मांग करने वाले राजनीतिक दल या संगठन को भी यह मालूम होता है कि भारतीय संविधान में यह संभव नहीं है मगर विपक्ष सत्ता से बाहर रहते हुए यह हकीकत भूल जाता है और जब वह खुद सत्ता में होता है तो ऐसे मुद्दों को विवादास्पद कहने लगता है, लेकिन यह भी वास्तविकता है कि राजनीतिक स्वार्थों व आपाधापी के चलते कभी-कभी बड़े-बड़े नेता भी भारत की जमीनी सच्चाई को भूल सस्ती लोकप्रियता के चक्कर में पड़ जाते हैं। ऐसा ही एक आन्दोलन साठ के दशक में 'अंग्रेजी हटाओ' का चला था।
हालांकि इसके प्रणेता समाजवादी विचारधारा के अलम्बरदार कहे जाने वाले डा. राम मनोहर लोहिया थे मगर इस आन्दोलन का मूल विचार भारत को पीछे ले जाने का था क्योंकि अंग्रेजी भाषा ने उस समय भी पूरी दुनिया में विकास और प्रगति की तरफ बढ़ने में अपनी निर्णायक भूमिका निभानी शुरू कर दी थी। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि आज भारत ने कम्प्यूटर साफ्टवेयर क्षेेत्र में पूरी दुनिया में जो शीर्ष स्थान प्राप्त किया है उसके पीछे इसकी युवा पीढ़ी का अंग्रेजी ज्ञान ही है। आर्थिक व्यवस्था में अंग्रेजी भाषा का केन्द्रीय स्थान होने की वजह से ही भारत की युवा पीढ़ी यह कमाल कर सकी मगर तब अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन ने हिंसक रूप ले लिया था जिससे भारी नुकसान भी हुआ था मगर जो सबसे बड़ा नुकसान उस समय की किशोरवय पीढ़ी को हुआ था उसका अन्दाजा कोई नहीं लगा सकता है, परन्तु दूसरी तरफ इस अंग्रेजी विरोधी आन्दोलन में शामिल हुए कई लोग बड़े नेता भी बन गये।
लोकतन्त्र में यह प्रवृत्ति ही लोकहित से राजनीति को दूर करने की क्षमता रखती है। यदि हम आज के डा. लोहिया के विचारों को मानने वाले बुद्धिजीवियों से बात करें तो वे खुल कर स्वीकार करते हैं कि अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन अनावश्यक था। इसके स्थान पर यदि तब अंग्रेजी पढ़ाओ आन्दोलन चलाया जाता तो वह आम भारतीय के हित में ज्यादा होता क्योंकि इससे एक रिक्शा वाले के बेटे में भी अपने अंग्रेजी ज्ञान के बूते पर किसी अफसर के बेटे से आगे निकलने की चाह जागृत होती। बेशक इस तर्क से सभी लोग सहमत हों ऐसा जरूरी नहीं है मगर यह एक तर्क तो है और भारत की शिक्षा प्रणाली का समान स्वरूप विकसित करने की वकालत करता है। इसी प्रकार अगर हम विभिन्न राज्यों में अलग-अलग जातिगत आरक्षण की बात करते हैं तो हमें सम्पूर्ण समाज के सापेक्ष उस जाति के लोगों की सामाजिक व शैक्षिक स्थिति का ध्यान रखना होगा और अनुसूचित जाति व जनजाति के साथ पिछड़े वर्गों के लिए किये आरक्षण का संज्ञान लेना होगा मगर सिर्फ नेतागिरी चमकाने के लिए और अपने परिवारजनों को राजनीति में उतारने के लिए आन्दोलन को जन्म देना लोकतन्त्र का अपमान ही है।