सम्पादकीय

आरक्षण का खेल

Subhi
12 Nov 2022 5:51 AM GMT
आरक्षण का खेल
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सुप्रीम कोर्ट ने अपने द्वारा निर्धारित लक्ष्मण रेखा को ही पार कर तीन दो के अनुपात से आरक्षण की सीमा दस प्रतिशत और बढ़ा दिया। जिन दो ने इस निर्णय का विरोध किया, उनमें एक तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश भी थे। क्या मुख्य न्यायाधीश के विरोध का भी कोई अर्थ नहीं होता? सर्वसम्मति बनाने की कोशिश होनी चाहिए थी।

Written by जनसत्ता: सुप्रीम कोर्ट ने अपने द्वारा निर्धारित लक्ष्मण रेखा को ही पार कर तीन दो के अनुपात से आरक्षण की सीमा दस प्रतिशत और बढ़ा दिया। जिन दो ने इस निर्णय का विरोध किया, उनमें एक तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश भी थे। क्या मुख्य न्यायाधीश के विरोध का भी कोई अर्थ नहीं होता? सर्वसम्मति बनाने की कोशिश होनी चाहिए थी।

न्यायपालिका के उस निर्णय के बाद अब राजनीतिक दलों का खेल शुरू हो गया है। एक को तो लगता है कि उसे संजीवनी मिल गई है, तो दूसरे कहते हैं कि हम तो उसे बहुत पहले से चाहते हैं। दो न्यायाधीशों के विरोध के समर्थन में कोई नहीं। लेकिन जब सामाजिक न्याय पर विस्तार से चर्चा होगी तब उन दो न्यायाधीशों का विरोध चिनगारी जरूर बनेगी। अभी सामाजिक न्याय के पुरोधा कहे जाने वालों ने भी चुप्पी साध रखी है। आजादी के पचहत्तर वर्षों बाद एससी, एसटी का सामाजिक स्तर, आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग की तुलना में कहां पर है, समीक्षा होनी चाहिए।

अब तक ओबीसी, एससी, एसटी को मिलाकर कुल 49.5 प्रतिशत आरक्षण की सुविधा है। तब फिर 50.5 प्रतिशत पर वर्षों से कौन मलाई खा रहे हैं। कई बार सामान्य से ओबीसी का कट आफ ऊंचा रहता है। मतलब सामान्य वाले पचास प्रतिशत पर सफल हो गए, जबकि ओबीसी वाले साठ प्रतिशत पर भी असफल रहे।

कहने के लिए तो 50.5 प्रतिशत सामान्य कोटा सबके लिए है, लेकिन ओबीसी, एससी, एसटी वाले आवेदन तो अपने-अपने कोटे में ही करते हैं। इनमें से कोई अगर सामान्य वाले कोटे से अधिक नंबर लाता है, तब भी उन्हें क्रमश: ओबीसी, एससी, एसटी कोटे में ही रखा जाता है। यह खेल वर्षों से आरक्षण की अवधारणा को ठेस पहुंचाता आ रहा है।


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