सम्पादकीय

आरक्षण की आग, सुलगती जिंदगी

Rani Sahu
27 Sep 2022 11:01 AM GMT
आरक्षण की आग, सुलगती जिंदगी
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by Lagatar News
Neeraj Sisodia
हाल ही में झारखंड, ओडिशा और पश्चिम बंगाल में कुर्मी समुदाय को जनजाति में शामिल करने की मांग को लेकर विरोध प्रदर्शन किए गए. कहीं रेल चक्का जाम किया गया, तो कहीं हाईवे जाम किया गया. कुछ साल पहले भी झारखंड में कुर्मी समुदाय का कुछ इसी तरह का आंदोलन देखने को मिला था. सरकारी आंकड़ों की मानें तो झारखंड में कुर्मी समाज की आबादी 10 से 12 फीसदी है. वहीं कुर्मी समाज के प्रतिनिधि इसे 22 फीसदी बताते हैं. कुर्मी समाज वर्तमान में ओबीसी कैटेगरी में आता है. अब उसे जनजाति का दर्जा चाहिए. सवाल सिर्फ एक जाति या समुदाय विशेष का नहीं है. सवाल पूरे हिन्दुस्तान और उसके हर नागरिक का है. आरक्षण की आग आखिर कब तक प्रतिभाओं को झुलसाती रहेगी. भारतीय समाज में आरक्षण कोई नई बात नहीं है. मनु द्वारा प्रतिपादित आरक्षण व्यवस्था सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा प्रशासनिक असमानता पर आधारित थी. इस व्यवस्था ने केवल जन्म के आधार पर उच्च या निम्न स्थान प्रदान कर दिया. यह व्यवस्था भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 में वर्णित समता के सिद्धांत के एकदम विपरीत है. निचले और वंचित तबकों को बराबरी पर लाने के उद्देश्य से आरक्षण की व्यवस्था की गई थी, लेकिन पिछले 75 वर्षों में यह व्यवस्था राजनीतिक तुष्टीकरण का जरिया मात्र बनकर रह गई. सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक फैसले में कहा था कि जाति पिछड़ेपन का एक प्रमुख कारक हो सकती है लेकिन यही एकमात्र कारक नहीं हो सकती. निश्चित तौर पर जातिगत रूप से विभाजित भारतीय समाज में आज भी अनेक जातियां हाशिये पर हैं.
सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक और प्रशासनिक आधार पर पिछड़े लोगों को मुख्य धारा से जोड़ने के लिए भारतीय संविधान में आरक्षण की व्यवस्था की गई थी. आजादी के अमृतकाल में भी यह व्यवस्था जारी है. आज देश के प्रतिष्ठित पदों पर पिछड़े और अति पिछड़े समाज के लोग काबिज हो चुके हैं. विधानसभाओं से लेकर संसद तक उन्हें प्रतिनिधित्व भी मिल चुका है. अब लड़ाई जाति की नहीं वरन् आर्थिक पिछड़ेपन की है. फिर भी कभी जाट आंदोलन तो कभी कुर्मी आंदोलन के नाम पर सियासी लाभ के लिए आरक्षण की आग को हवा दी जाती है.
प्रोफ़ेसर कार्सन लिखते हैं प्राकृतिक अधिकारों और लोगों की संप्रभुता के नाम पर कुलीन रूप से संगठित समाजों को हटाने के बाद जो जगह खाली होगी, उसकी जगह पर कौन आयेगा? समानता के साथ-साथ मानवीय और सार्वभौमिक अधिकारों का जश्न मनाने वाली राजनीतिक विचारधारा के भीतर नये अभिजात वर्ग को कैसे चुना जा सकता है. उसे किस तरह उचित ठहराया जा सकता है? दूसरे शब्दों में असमानता को कैसे वैध ठहराया जा सकता है?
27 अगस्त 1957 को संविधान सभा के एक दलित सदस्य श्री एस. नागप्पा ने संविधान सभा में अपनी बात रखते हुए कहा था कि मुझे मेरा दिया जाने योग्य हिस्सा चाहिए. हालांकि मैं अबोध, अज्ञानी गूंगा हूं, फिर भी मैं चाहता हूं कि आप मेरे इस दावे को मान्यता दें. मेरे मासूम होने का फायदा मत उठाइये. मुझे महज़ अपना मुनासिब हिस्सा चाहिए. मैं दूसरों की तरह अहमियत या एक अलग देश नहीं चाहता. अलग देश के लिए हमसे बेहतर दावा किसी के पास नहीं है. हम तो इस देश के आदिवासी हैं. दरअसल, आरक्षण का मक़सद था कि वंचित जातियों को महसूस हो कि देश में मौजूद अवसरों में उनका भी हिस्सा है और देश चलाने में उनका भी योगदान है. इसलिए संविधान अल्पसंख्यकों, आदिवासियों, महिलाओं सबका ख्याल रखता हुआ नजर आता है.
Rani Sahu

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