सम्पादकीय

आरक्षण के आंकड़े

Gulabi
16 Dec 2021 4:23 AM GMT
आरक्षण के आंकड़े
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इन दिनों स्थानीय चुनावों में ओबीसी को आरक्षण एक अहम विषय बना हुआ है, लेकिन
अन्य पिछड़ा वर्ग को स्थानीय एवं पंचायत चुनावों में 27 प्रतिशत आरक्षण देने की महाराष्ट्र सरकार की कोशिश पर यदि सुप्रीम कोर्ट ने लगाम लगा दी है, तो कोई आश्चर्य नहीं। दरअसल, कुछ राज्य सरकारों का जो काम करने का रवैया है, उसमें यदा-कदा सुप्रीम कोर्ट के प्रति एक उदासीनता का भाव दिखता है। मोटे तौर पर सुप्रीम कोर्ट को अन्य पिछड़ा वर्ग या ओबीसी को स्थानीय या पंचायत चुनावों में आरक्षण देने पर कोई आपत्ति नहीं है। उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे बडे़ राज्यों सहित ऐसे कई राज्य हैं, जहां पहले से ही ओबीसी को यह आरक्षण कमोबेश हासिल है। महाराष्ट्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपने फैसले को बचाने की पूरी कोशिश की, लेकिन कोर्ट ने उचित ही अतिरिक्त उदारता दिखाने से इनकार कर दिया। इसी महीने 6 दिसंबर को कोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार के फैसले पर रोक लगा दी थी और अब राज्य सरकार को ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत आरक्षित सीटों को जिला परिषद एवं पंचायत समितियों के लिए सामान्य श्रेणी में बदलने व नई अधिसूचना जारी करने का आदेश दिया है। अब राज्य सरकार या तो बिना ओबीसी आरक्षण के चुनाव कराएगी या हो सकता है कि कुछ समय के लिए चुनावों को टाल देगी।
इन दिनों स्थानीय चुनावों में ओबीसी को आरक्षण एक अहम विषय बना हुआ है, लेकिन इससे जुड़े दो-तीन कमजोर पहलुओं पर ध्यान देना चाहिए। अव्वल तो आरक्षण देने के प्रति सरकारों को राजनीतिक वजहों से बहुत जल्दी रहती है। इस जल्दी की वजह से वे विधि-सम्मत समावेशी प्रक्रियाओं का पालन करने के बजाय अध्यादेश का सहारा लेती हैं। महाराष्ट्र सरकार ने भी अध्यादेश का ही सहारा लिया। सुप्रीम कोर्ट ने उसे यथोचित आंकड़े जुटाने के लिए आयोग गठित करने को कहा था। आयोग का गठन तो किया गया, पर उसके लिए कोई बजट पारित नहीं किया गया। इसी वजह से सर्वोच्च अदालत की नाराजगी सामने आई है। इस मामले में दूसरा कमजोर पहलू यह है कि हमारी सरकारों का आंकड़ों से लगाव निरंतर कम हो रहा है। सरकारें इस पक्ष को नजरअंदाज करने लगी हैं कि किसी भी कानून या नीति निर्माण के लिए पुख्ता आंकड़े सबसे जरूरी हैं। सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले से आंकड़ों की उपयोगिता फिर उजागर हुई है।
तमाम सरकारों को यह समझ लेना चाहिए कि किसी भी वर्ग के लिए पर्याप्त आंकड़ों के बगैर आरक्षण का प्रावधान न हो। ऐसा लगता है कि यह बाध्यता अब हर राज्य में स्थानीय चुनावों पर लागू होगी। हर राज्य को जातिगत आंकड़े रखने पड़ेंगे। सिर्फ अनुमान के आधार पर आरक्षण निर्धारित करने का दौर खत्म होने वाला है। अगर भविष्य के सभी चुनावों पर यह आदेश लागू हुआ, तो जिस वर्ग को जितनी जरूरत है, उतना आरक्षण देने की ओर हम बढ़ चलेंगे। अपने देश में आर्थिक-सामाजिक न्याय केवल चुनावी राजनीति के बूते नहीं हो सकता, इसके लिए तंत्र की अपनी पुख्ता व्यवस्था होनी चाहिए। केंद्र सरकार को इस बाबत एक संविधान सम्मत फॉर्मूला तय करना चाहिए। अलग-अलग राज्य के अलग-अलग जातिगत हालात के हिसाब से जरूरतमंदों को प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए। आरक्षण व्यवस्था किसी का अधिकार या संसाधन छीनने का माध्यम न बने, बल्कि इसमें अधिकार व संसाधन जरूरत के हिसाब से साझा करने की शालीनता सुनिश्चित होनी चाहिए।
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