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अधिकारों और कर्तव्यों को साझा करने और शांति और समृद्धि प्राप्त करने की सच्ची नींव है। यही सच्चा गणतंत्रवाद भी होगा।
कुछ दिनों पहले कुछ अखबारों में यह सुर्खी देखकर मैं चौंक गयाः भारतीयता ही एकमात्र जाति। यह शीर्षक प्रधानमंत्री के भाषण से संबंधित एक खबर के लिए लगाया गया था, जो उन्होंने केरल के दार्शनिक संत श्री नारायण गुरु (1856-1928) के सम्मान में होने वाली शिवगिरी तीर्थयात्रा की 90 वीं वर्षगांठ से संबंधित कार्यक्रम के उद्घाटन के मौके पर दिया था।
गुरु की शिक्षा और शिवगिरी के प्रवास के आधार पर मेरा विश्वास बना कि वह पहचान के रूप में जाति के दृढ़ विरोधी थे, और उन्होंने जीवनपर्यंत जातिगत भेदभाव के खिलाफ लड़ाई लड़ी। शिवगिरी स्थित उनके आश्रम का सिद्धांत है, ओम सहोदरयम सर्वत्र, जिसका अर्थ है, 'ईश्वर की नजर में सभी मनुष्य बराबर हैं।'
गलत शब्द का चयन
मोदी भारत के प्रधानमंत्री हैं, जो कि संविधान के तहत एक गणराज्य है और उसकी प्रस्तावना में लिखा है,' हम भारत के लोग...दृढ़ संकल्प होकर...इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।' संविधान राज्यों, धर्मों, धार्मिक संप्रदायों, भाषाओं और जातियों को स्वीकार करता है (और घृणित प्रथा के उन्मूलन का वादा करता है)।
संविधान विभिन्न तरीकों से प्राप्त नागरिकता को भी स्वीकार करता है, जिनमें जन्म, वंश, पंजीयन, देशीयकरण, क्षेत्र का समावेश और कुछ निश्चित मामलों में प्रवासन शामिल हैं। भारत का उल्लेख कई अनुच्छेदों में आता है और 'इंडियन'(भारतीय) शब्द का उल्लेख एंग्लो इंडियन, इंडियन स्टेट (भारतीय राज्य) और इंडियन इंडिपेंडेंस एक्ट (भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम) 1947 के संदर्भ में आता है। मुझे 'इंडियननेस'(भारतीयता) शब्द कहीं नहीं मिला।
जाति का अंग्रेजी भाषा में या किसी भारतीय भाषा में केवल एक ही अर्थ होता है। यह उन असंख्य बुराइयों को ध्यान में लाती है, जो जाति व्यवस्था से जुड़ी हुई थीं, और अब भी जुड़ी हुई हैं। मैं समझ सकता हूं कि प्रधानमंत्री ने इस शब्द का उपयोग संभवतः किस भावना के साथ किया, लेकिन इस शब्द का उनका चयन दुर्भाग्यपूर्ण और गलत था।
एकल पहचान को अस्वीकार करें
भारतीयता को जाति के बराबर रखना खतरनाक है। 'जाति' के कठोर और प्रतिगामी नियम हैं। नियमों के तहत शादी एक ही जाति में होनी चाहिए और इस नियम को तोड़ने के कारण अनेक युवाओं की जान तक चली गई। जाति व्यक्तियों के एक समूह को अलग करती है और, अधिकतर, व्यक्तियों के दो समूहों के बीच भेद पैदा करती है। जाति के प्रति निष्ठा और पूर्वाग्रह धार्मिक वफादारी से ज्यादा मजबूत होते हैं और धार्मिक पूर्वाग्रहों की तरह भयानक होते हैं।
हाल तक धर्म पीछे था; लोग जाति का दिखावा करते थे। अब मोदी सरकार के समय अनेक लोग धर्म और जाति दोनों का दिखावा कर रहे हैं। जाति की श्रेष्ठता के प्रदर्शन के साथ ही उसकी घृणित बुराइयां भी सामने आने लगती हैं। जाति संकीर्ण होती है, विशिष्ट होती है और आमतौर पर शादी, भोजन, परिधान, पूजा इत्यादि को लेकर कठोर और आमतौर पर अनुदार होती है।
जाति एकल पहचान बनाने की कोशिश करती है। यदि 'भारतीयता' का उद्देश्य भी एकल पहचान बनाना है, तब तो यह विविधता और बहुलतावाद के विपरीत ध्रुवीय है। अपने लाखों साथी नागरिकों की तरह मैं भाजपा के द्वारा बनाई जा रही एकल पहचान की कोशिशों को अस्वीकार करता हूं।
प्रधानमंत्री के बयान ने मुझे बाबासाहेब आंबेडकर के ऐतिहासिक भाषण (उन्हें यह भाषण देने ही नहीं दिया गया), एनिहिलेशन ऑफ कास्ट (जाति का विनाश) को फिर से पढ़ने को प्रेरित किया। इस भाषण के कुछ विचारोत्तेजक अंश देखिए : ' हिंदुओं की नैतिकता पर जाति का प्रभाव निंदनीय है। जाति ने सार्वजनिक भावना को खत्म कर दिया। जाति ने सार्वजनिक दान की भावना को ध्वस्त कर दिया। जाति ने जनमत को असंभव बना दिया है।'
'जाति-व्यवस्था से बढ़कर अपमानजनक कोई और सामाजिक संगठन हो ही नहीं सकता। यह एक ऐसी व्यवस्था है, जो लोगों को शिथिल, पंगु और विकलांग बनाकर, उन्हें कुछ भी उपयोगी गतिविधि नहीं करने देती।' ' मेरी राय में इसमें कोई संदेह नहीं है कि जब तक आप अपनी सामाजिक व्यवस्था नहीं बदलेंगे, आप प्रगति नहीं कर सकते। आप समाज को न तो रक्षा के लिए और न ही अपराध के लिए लामबंद कर सकते हैं।
जाति की नींव पर आप कोई भी निर्माण नहीं कर सकते...' जाति ने सामाजिक और आर्थिक असमानता को कायम रखा है। गांवों में, विशेष रूप से, किसी की जाति और जाति की संख्यात्मक ताकत सामाजिक और राजनीतिक संरचना और सामाजिक प्रभाव तथा राजनीतिक शक्ति के वितरण को निर्धारित करती है। निरपवाद रूप से इससे आर्थिक अवसरों का निर्धारण भी होता है।
मैंने देखा है कि जमीन का पट्टा, या बैंक कर्ज या कोई सरकारी नौकरी हासिल करने जैसी साधारण चीज भी किसी की जाति या जाति की संख्यात्मक ताकत से प्रभावित होती है। निजी क्षेत्र में भी कोई बेहतर स्थिति नहीं है। अनौपचारिक या असंगठित क्षेत्र या सूक्ष्म और लघु उद्यमों की अधिकांश नौकरियां उन्हीं लोगों को मिलती हैं जो कि मालिक की जाति के होते हैं।
यदि हम जाति को भारतीयता के बराबर मान लें, तो हम खुद को एक खतरनाक ढलान पर पाएंगे। मुझे इस बात का कोई भ्रम नहीं है कि जाति चेतना या जाति आधारित भेदभाव रातोंरात खत्म हो जाएंगे, लेकिन जाति व्यवस्था से छुटकारा पाने के उत्साहजनक रुझान हैं। शहरीकरण, औद्योगिकीकरण, टेलीविजन और सिनेमा, मुक्त अर्थव्यवस्था, संचार, प्रवासन और यात्रा जाति संबंधी पूर्वाग्रहों को तोड़ रहे हैं। भारतीयता को जाति जैसा मानने से पिछले कुछ दशकों में हुई प्रगति उलट जाएगी।
गणतांत्रिक दृष्टिकोण
जाहिर है, हर भारतीय में एक गुण होता है, जिसे भारतीयता के रूप में वर्णित किया जा सकता है। मैं इसे परिभाषित नहीं करूंगा और न ही इसे समझाने की कोशिश करूंगा, लेकिन एक भारतीय होना एक देश से जुड़े होने की अवर्णनीय भावना है। मेरा यह निष्कर्ष है कि भारतीयता को नागरिकता के समान होना चाहिए, जो कि संविधान के तहत गणतंत्र के विचार के अनुरूप है।
एक नागरिक, जो भारत के संविधान की मूल संरचना में विश्वास करता है और इसके मूल सिद्धांतों के प्रति निष्ठा रखता है, वह भारतीय है। हमें भारतीयों को जातिगत निष्ठाओं से मुक्त करना चाहिए और उन्हें स्वतंत्रता और उदारवाद, समानता, सहिष्णुता, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र जैसे सार्वभौमिक रूप से पोषित मूल्यों का जश्न मनाने के लिए शिक्षित करना चाहिए। 'नागरिकता' एक राष्ट्र के निर्माण, मूल्यों, अधिकारों और कर्तव्यों को साझा करने और शांति और समृद्धि प्राप्त करने की सच्ची नींव है। यही सच्चा गणतंत्रवाद भी होगा।
सोर्स: अमर उजाला
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