- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- बार-बार निराश करती...
x
बार-बार निराश करती न्याय प्रक्रिया
सुरेंद्र किशोर: पिछले दिनों पटना हाई कोर्ट ने 1999 में घटित सेनारी नरसंहार के सभी दोषियों को सजा से मुक्त कर दिया। उसके अनुसार, 'अभियोजन पक्ष इस कांड के आरोपितों पर लगे आरोपों को साबित करने में सफल नहीं हो सका। वह कोई ठोस सुबूत भी सामने नहीं ला पाया।' ज्ञात हो कि बिहार के जहानाबाद जिले के सेनारी गांव के इस नृशंस कांड में 34 लोगों की गला काटकर और पेट फाड़कर हत्या कर दी गई थी। इस कांड से पूरा देश हिल गया था। इस मामले में निचली अदालत ने तो दस लोगों को फांसी और तीन को उम्रकैद की सजा दी थी, पर अब हाई कोर्ट में वह सजा उलट गई है। खबर है कि बिहार सरकार हाई कोर्ट के इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील करेगी। वहां क्या होता है, कुछ कहना कठिन है।
अभियोजन पक्ष की कमजोरी के कारण आरोपित बरी हो जाते हैं
वैसे यह इकलौता ऐसा मामला नहीं है, जिसमें किसी गंभीर अपराध के आरोपित अदालत द्वारा दोषमुक्त करार दिए गए हों। इससे पहले बिहार के ही लक्ष्मणपुर बाथे में 1997 में एक साथ 58 लोगों की हत्या कर दी गई थी। इस मामले में भी 2013 में पटना हाई कोर्ट ने निचली अदालत के निर्णय को बदलते हुए सभी दोषियों को बरी कर दिया था। बिहार के साथ-साथ देश के अन्य प्रांतों में भी इस तरह के मामले सामने आए हैं, बल्कि यह कहना उपयुक्त होगा कि आते ही रहते हैं। पूरे देश की अपराध की घटनाओं पर एक नजर दौड़ाने पर यह लगता है कि कई बार अभियोजन पक्ष की कमजोरी के कारण ऐसे भी आरोपित बरी हो जाते है, जिनके बारे में यह आम धारणा रहती है कि वे अपराधी हैं।
पूरे देश को हिला देने वाले नरसंहारों के आरोपितों की दोषमुक्ति चिंताजनक परिघटना
ऐसे नरसंहारों, जिन्होंने पूरे देश को हिला दिया था, के आरोपितों की दोषमुक्ति चिंताजनक परिघटना है। जब ऐसा होता है तो लोगों का विधि के शासन पर से भरोसा डिगता है। शांतिप्रिय आम लोगों के लिए भी और खुद देश की आपराधिक न्याय प्रणाली के लिए भी यह चिंता का विषय बनना चाहिए कि ऐसा क्यों होता है? वर्ष 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, 'दोषमुक्ति का हरेक मामला न्याय व्यवस्था की विफलता है। राज्यों को चाहिए कि वे छह माह के भीतर ऐसी कार्य प्रणाली विकसित करें, ताकि न तो कोई निर्दोष दंडित हो और न ही कोई दोषी बच न पाए। राज्य सरकारें इस बात की भी समीक्षा करें कि दोषमुक्ति के कारण क्या-क्या हैं। यह भी देखें कि अनुसंधान और अभियोजन में क्या कमी या दोष रह जाता है। उसे दूर करने के लिए क्या उपाय किए जाने चाहिए।' लगता है कि इस दिशा में कुछ नहीं हुआ।
बिहार सहित देश के कुछ राज्यों में अदालतों से दोषमुक्ति का प्रतिशत बहुत अधिक
बिहार सहित देश के कुछ राज्यों में अदालतों से दोषमुक्ति का प्रतिशत बहुत अधिक है, पर यदि बड़े-बड़े नरसंहारों में भी एक-एक करके आरोपित दोषमुक्त होते चले जाएं तो शासन के लिए चिंता का विषय बनना चाहिए। हालांकि देश में न्याय प्रणाली को चुस्त-दुरुस्त करने के लिए समय-समय पर न्यायविदों और आयोगों के सुझाव आते रहते हैं, लेकिन उन पर इस तरह अमल नहीं होता, जिससे स्थिति में नजर आने लायक सुधार हो। यह गंभीर चिंता की बात है कि किसी-किसी राज्य में सजा की दर सिर्फ छह प्रतिशत है। आखिर इस स्थिति को तत्काल सुधारने के लिए विशेष उपाय क्यों नहीं किए जाते? कोविड महामारी के गुजर जाने के बाद पूरे देश के हुक्मरानों को इस बात पर अवश्य ही विचार करना चाहिए कि एक राज्य में तो सजा की दर 85 प्रतिशत है तो एक अन्य राज्य में सौ आरोपितों में से सिर्फ छह ही सजा क्यों पाते हैं? यह आंकड़ा सिर्फ भारतीय दंड संहिता (आइपीसी) के तहत दायर मुकदमों से संबंधित है। एक बार सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश संतोष हेगड़े ने कहा था कि जब तक हम अपने न्याय शास्त्र में परिवर्तन नहीं करेंगे, तब तक हम आपराधिक न्याय प्रणाली में संतोषप्रद सुधार नहीं कर पाएंगे।
भले 99 आरोपित छूट जाएं, किंतु किसी एक भी निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए
मौजूदा न्याय शास्त्र के अनुसार, 'भले 99 आरोपित छूट जाएं, किंतु किसी एक भी निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए।' जस्टिस हेगड़े की राय थी कि मौजूदा परिस्थिति को देखते हुए हमें इसे उलट देना चाहिए, ताकि एक भी आरोपित न छूटे। आपराधिक न्याय प्रणाली की बिगड़ती स्थिति को देखते हुए हमें जस्टिस हेगड़े की इस सलाह पर विचार करना ही चाहिए, अन्यथा देर-बहुत देर हो जाएगी। ज्ञात हो कि सुप्रीम कोर्ट यह भी कह चुका है कि कोई भी आरोपित दोषमुक्त होता है तो उससे लोगों को यह नतीजा निकालने का अवसर मिल जाता है कि दोषमुक्ति से पहले उसे नाहक परेशान किया गया। क्या यह धारणा इस देश की न्याय प्रक्रिया के स्वास्थ्य के लिए ठीक है?
देश में आपराधिक न्याय प्रक्रिया को बेहतर बनाने के लिए उठाने होंगे सख्त कदम
जाहिर है देश में आपराधिक न्याय प्रक्रिया को बेहतर बनाने के लिए कुछ सख्त कदम उठाने होंगे। शुरुआत नार्को, ब्रेन मैपिंग और पॉलिग्राफिक टेस्ट से हो सकती है। 2010 में सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला दिया कि आरोपित या फिर संबंधित व्यक्ति की सहमति से ही उसका नार्को टेस्ट हो सकता है। किसी की इच्छा के खिलाफ उसका ब्रेन मैपिंग नहीं हो सकता। पॉलिग्राफ टेस्ट के बारे में भी यही बात लागू होगी। हालांकि कुछ मामलों में संबंधित अदालत के आदेश से ऐसे टेस्ट आज भी होते हैं, किंतु यदि इसकी छूट जांच में लगे आम पुलिस अफसरों को भी रहती तो इस देश में सजा का प्रतिशत बहुत बढ़ सकता था। ऐसे में केंद्र सरकार को सुप्रीम कोर्ट से यह गुजारिश करना चाहिए कि समय की जरूरत को देखते हुए वह अपने उस निर्णय को बदले, क्योंकि इसका लाभ आरोपितों को मिल रहा है। यदि सुप्रीम कोर्ट अपने निर्णय बदलने को तैयार नहीं हो तो इस संबंध में संसद को कानून बनाना चाहिए।
कानूनी समस्याओं को देखते हुए कानूनों में जरूरी फेरबदल किए जाने चाहिए
इसके साथ हमें अपने संबंधित कानूनों की प्राचीनता के बारे में भी पुनर्विचार करना होगा। यदि तमाम लोग न्याय के लिए अब भी कराह रहे हैं तो इसके लिए हमारे कानूनों की प्राचीनता भी जिम्मेदार है, जो अब उतने कारगर नहीं रहे। देखा जाए तो 1860 में भारतीय दंड संहिता बनी और 1949 में पुलिस एक्ट। इसी तरह 1872 में भारतीय साक्ष्य अधिनियम बना और 1908 में सिविल प्रक्रिया संहिता। आज की कानूनी समस्याओं को देखते हुए इन कानूनों में जरूरी फेरबदल भी किए जाने चाहिए।
( लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं )
Next Story